19 सितंबर 2025:✍🏻 Z S Razzaqi | अंतरराष्ट्रीय विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार
लेकिन आश्चर्यजनक यह रहा कि जैसे ही उनका प्रेस कॉन्फ्रेंस समाप्त हुआ, महज़ दो मिनट के भीतर चुनाव आयोग ने ट्वीट करके उनके दावों को “बेसलेस और निराधार” बता दिया। इससे भी बड़ा सवाल तब खड़ा हुआ जब बीजेपी के कई वरिष्ठ नेताओं ने मानो सोशल मीडिया की ट्रोल आर्मी की तरह आक्रामक बयानबाज़ी शुरू कर दी। यह परिघटना कई गंभीर सवालों को जन्म देती है—क्या लोकतांत्रिक संस्थाएँ विपक्ष की आवाज़ सुनने को तैयार नहीं हैं? क्या इतनी बड़ी शिकायत पर जांच कराने की बजाय तुरंत खारिज कर देना उचित था? और सबसे अहम—क्या युवाओं की नज़र में यह आचरण लोकतंत्र को मज़बूत करने वाला साबित हो रहा है या उसे और संदिग्ध बना रहा है?
राहुल गांधी के आरोप: तथ्य और मंच पर गवाही
राहुल गांधी का आरोप यह नहीं था कि केवल सैद्धांतिक रूप से चुनाव आयोग की पारदर्शिता पर सवाल उठ रहे हैं। उन्होंने अपने मंच पर उन नागरिकों को भी बुलाया जिनके वोट कथित तौर पर मतदाता सूची से डिलीट कर दिए गए थे। इससे यह संदेश गया कि मामला महज़ आंकड़ों का खेल नहीं, बल्कि वास्तविक लोगों की आवाज़ है।
उन्होंने जो डेटा प्रस्तुत किया, उसमें कई निर्वाचन क्षेत्रों से मतदाता सूचियों में असामान्य कटौतियों की बात कही गई। उनका तर्क था कि यह एक सुनियोजित प्रक्रिया है जिससे विपक्षी मतदाताओं को निशाना बनाया जा रहा है। अगर यह सच है, तो यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है।
चुनाव आयोग की भूमिका और ‘तुरंत प्रतिक्रिया’ पर सवाल
लोकतांत्रिक ढांचे में चुनाव आयोग को सबसे निष्पक्ष और स्वतंत्र संस्था माना जाता है। उसका काम न केवल चुनाव कराना है, बल्कि यह सुनिश्चित करना भी है कि चुनाव प्रक्रिया पर किसी को संदेह न रहे।
राहुल गांधी के आरोपों के बाद चुनाव आयोग से अपेक्षा थी कि वह कहता:
हम इस मामले की जांच कराएँगे।
यदि आरोप सही पाए गए तो कठोर कार्रवाई होगी।
विपक्ष और सत्तारूढ़ दोनों पक्षों को विश्वास दिलाने के लिए एक संयुक्त समिति बनाई जाएगी।
लेकिन जो हुआ वह ठीक उल्टा था। प्रेस कॉन्फ्रेंस समाप्त होते ही महज़ दो मिनट में चुनाव आयोग ने ट्वीट करके आरोपों को पूरी तरह खारिज कर दिया। प्रश्न यह है कि इतनी जल्दी जांच किए बिना किसी भी संस्था को इतनी निर्णायक टिप्पणी कैसे करनी चाहिए? क्या इससे यह संदेश नहीं गया कि आयोग पहले से ही रक्षात्मक मुद्रा में था?
बीजेपी नेताओं की प्रतिक्रिया: ट्रोल आर्मी जैसा व्यवहार?
चुनाव आयोग की प्रतिक्रिया के तुरंत बाद बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं ने प्रेस कॉन्फ्रेंस और सोशल मीडिया पर आक्रामक बयानबाज़ी शुरू कर दी।
किसी ने राहुल गांधी को “विद्रोह कराने वाला नेता” बताया।
किसी ने उनकी तुलना नेपाल और श्रीलंका जैसे अस्थिर देशों से कर दी।
कुछ ने तो उन्हें “जनता को भड़काने वाला” और “लोकतंत्र का दुश्मन” तक कहा।
यह आचरण सवाल उठाता है—क्या एक राष्ट्रीय पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का काम इस तरह विपक्ष को ट्रोल आर्मी की भाषा में जवाब देना होना चाहिए? लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी सत्तारूढ़ दल की। लेकिन जब विपक्ष के प्रश्नों का उत्तर संस्थागत रूप से देने के बजाय राजनीतिक रूप से मज़ाक उड़ाकर दिया जाता है, तो इससे लोकतंत्र की नींव कमज़ोर होती है।
युवाओं की दृष्टि: क्यों यह मुद्दा महत्वपूर्ण है
आज का भारत GEN-Z और मिलेनियल मतदाताओं से भरा हुआ है। यह वह पीढ़ी है जो सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय है और तथ्यों की जाँच (fact-checking) करने में माहिर है। राहुल गांधी ने जब उन लोगों को मंच पर बुलाया जिनके वोट कथित रूप से डिलीट किए गए, तो युवाओं के बीच एक संदेश गया कि मामला गंभीर है।
युवाओं के लिए यह केवल राजनीति नहीं, बल्कि उनके मताधिकार का सवाल है। अगर उनका वोट ही सूची से गायब हो गया तो लोकतंत्र में उनकी भागीदारी का क्या महत्व रह जाएगा? यही कारण है कि युवा इस मुद्दे को गहराई से देख रहे हैं और इसे केवल “विपक्ष की राजनीति” मानकर नज़रअंदाज़ नहीं कर रहे।
लोकतंत्र और JPC की ज़रूरत
इतने गंभीर मामले पर सबसे उचित रास्ता यही था कि संसद में एक जॉइंट पार्लियामेंट्री कमेटी (JPC) का गठन किया जाता। इस समिति में सभी दलों के प्रतिनिधि शामिल होते और जांच निष्पक्ष ढंग से होती। अगर राहुल गांधी के आरोप झूठे साबित होते, तो उनका राजनीतिक नुकसान स्वतः होता। लेकिन जांच से बचकर तुरंत आरोपों को खारिज करना यह संदेह पैदा करता है कि “कुछ तो गड़बड़ है।”
लोकतंत्र केवल चुनाव कराने से मज़बूत नहीं होता, बल्कि संस्थाओं की जवाबदेही और पारदर्शिता से मज़बूत होता है। JPC जैसी जांच समिति विपक्ष और जनता दोनों का विश्वास बहाल कर सकती थी।
लोकतंत्र में संस्थागत आचरण का महत्व
भारत जैसे विविधता वाले लोकतंत्र में संस्थाओं की विश्वसनीयता ही जनता को व्यवस्था से जोड़े रखती है। यदि जनता यह मानने लगे कि चुनाव आयोग या संसद जैसे निकाय निष्पक्ष नहीं हैं, तो लोकतंत्र की बुनियाद हिल जाएगी।
राहुल गांधी के आरोप सही हों या ग़लत, यह द्वितीयक प्रश्न है। प्राथमिक प्रश्न यह है कि क्या आरोपों की निष्पक्ष जांच हुई? यदि नहीं हुई, तो लोकतंत्र की पारदर्शिता पर एक गहरी चोट है।
निष्कर्ष:-
राहुल गांधी के आरोपों और चुनाव आयोग की तत्काल प्रतिक्रिया ने भारत के लोकतंत्र में एक गंभीर बहस छेड़ दी है। यह बहस केवल कांग्रेस बनाम बीजेपी की नहीं है, बल्कि लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता पर है।
अगर आरोप झूठे हैं, तो जांच कराकर विपक्ष को गलत साबित करना सबसे सही रास्ता था।
अगर आरोपों में सच्चाई है, तो यह लोकतंत्र का सबसे बड़ा संकट है।
दोनों ही परिस्थितियों में तत्काल ट्वीट करके आरोपों को खारिज करना लोकतांत्रिक आचरण नहीं कहलाता। बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं की आक्रामक प्रतिक्रियाएँ और ट्रोल आर्मी जैसा व्यवहार इस संदेह को और गहरा कर देता है।
आज का युवा मतदाता यह सब देख रहा है और गहराई से विश्लेषण कर रहा है। उसके लिए यह चुनाव केवल सरकार बदलने का नहीं, बल्कि अपने वोट और लोकतंत्र की रक्षा करने का प्रश्न बन चुका है। यही कारण है कि इस पूरे घटनाक्रम ने चुनाव आयोग, सत्तारूढ़ दल और विपक्ष—सभी को लोकतंत्र की असली परिभाषा पर सोचने को मजबूर कर दिया है।
