21 अक्टूबर 2025 | पत्रकार :कविता शर्मा | पत्रकार
उत्तर प्रदेश के संभल ज़िले में जामा मस्जिद को “हरिहर मंदिर” बताकर निकाली गई 22 किलोमीटर लंबी पैदल यात्रा ने कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं—विशेषकर यह कि जब प्रशासन ने अनुमति ही नहीं दी, तो इतनी बड़ी रैली को आयोजित कैसे होने दिया गया, और पुलिस इस भीड़ को रोकने या गिरफ्तार करने में नाकाम क्यों रही?
22 किलोमीटर की यह यात्रा माँ केला देवी मंदिर के महंत ऋषिराज गिरि द्वारा सैकड़ों समर्थकों व श्रद्धालुओं के साथ निकाली गई। यह मार्च उस याचिका की पहली वर्षगांठ पर आयोजित किया गया था जिसमें दावा किया गया था कि जामा मस्जिद एक प्राचीन हरिहर मंदिर के स्थान पर बनी है।
यात्रा के दौरान पुलिस और प्रशासन ने जामा मस्जिद तथा नज़दीकी क्षेत्रों में भारी सुरक्षा बल तैनात किया, लेकिन यात्रा को रोका नहीं, और न ही बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी की गई। यहीं से सवाल उठने शुरू होते हैं।
क्या सरकार अनुमति न देने के बावजूद "सॉफ्ट कन्सेन्ट" दे रही थी?
कानून व्यवस्था के जानकारों का कहना है कि यदि प्रशासन किसी आयोजन को “अनुमति नहीं” देता है, तो उसे रोकना उसकी कानूनी ज़िम्मेदारी होती है। इस मामले में तीन संभावनाएँ उभरती हैं—
1️⃣ प्रशासनिक सॉफ्ट-एप्रोच या मौन सहमति?
विश्वास किया जा रहा है कि सरकार, विशेषकर चुनावी वर्ष में, किसी भी धार्मिक भीड़ को बल प्रयोग से रोककर राजनीतिक नुकसान नहीं उठाना चाहती।
ऐसे में अनुमति न देना और कार्रवाई न करना—दोनों मिलकर एक “अनौपचारिक सहमति” की ओर संकेत करते हैं।
2️⃣ राजनीतिक ध्रुवीकरण का एजेंडा?
कई राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इस तरह के विवाद चुनावी ध्रुवीकरण को तेज़ करने के लिए इस्तेमाल किए जाते हैं।
संभल जैसे क्षेत्र, जहाँ मुस्लिम आबादी अधिक है, वहाँ ऐसे धार्मिक विवाद तीव्र राजनीतिक प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं।
इसके चलते आशंका जताई जा रही है कि सरकार ऐसा माहौल बनने दे रही है जिसमें साम्प्रदायिक तनाव बढ़े और चुनावी ध्रुवीकरण तेज़ हो।
3️⃣ पुलिस-प्रशासन की सीमित कार्रवाई: आदेश या विवशता?
पुलिस द्वारा यात्रा न रोकना दो बातों की तरफ़ इशारा कर सकता है—
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ऊपर से सख़्ती का आदेश नहीं मिला,
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या स्थानीय प्रशासन भीड़ की संवेदनशीलता को देखते हुए टकराव से बचना चाहता था।
22 किमी पैदल यात्रा—बिना अनुमति के कैसे संभव?
सैकड़ों लोगों का यह मार्च माँ केला देवी मंदिर से शुरू हुआ और जामा मस्जिद की ओर बढ़ा।
बिना अनुमति के इतना बड़ा जुलूस निकाला जाना सुरक्षा व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
Key Points:
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यात्रा पहले से घोषित थी
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सोशल मीडिया पर इसका प्रचार किया गया
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पुलिस और प्रशासन पूरी जानकारी में थे
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सुरक्षा बल तैनात तो हुए, पर रोकथाम नहीं
इसका अर्थ साफ है—प्रशासनिक कार्रवाई इच्छाशक्ति के अभाव की ओर इशारा करती है।
क्या यह विवाद जानबूझकर भड़काया जा रहा है?
यात्रा का आयोजन उस याचिका की वर्षगांठ पर किया गया जिसमें दावा है कि जामा मस्जिद पहले एक मंदिर थी।
ऐसे दावे पिछले कुछ वर्षों में बार-बार उठाए जा रहे हैं—कभी बनारस, कभी मथुरा, कभी कर्नाटक।
राजनीतिक विश्लेषण:
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चुनावी वर्ष में धार्मिक मुद्दे अक्सर तेज़ किए जाते हैं।
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मुस्लिम-बहुल इलाक़ों में ऐसे विवाद ज़मीन पर नया तनाव पैदा करते हैं।
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इससे राजनीतिक दलों को ध्रुवीकरण का फ़ायदा मिलता है।
संभल में भी यही पैटर्न नज़र आ रहा है।
यदि अनुमति नहीं—तो गिरफ्तारी क्यों नहीं?
कानूनी प्रक्रिया के अनुसार,
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यदि कोई जुलूस बिना अनुमति निकलता है,
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और धार्मिक विवाद को बढ़ावा देता है,
तो पुलिस को धारा 144, 151 या शांति-भंग की धाराओं में कार्रवाई करनी चाहिए।
लेकिन संभल में यह नहीं हुआ।
संभावित कारण:
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राजनीतिक दबाव
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उच्च स्तर से “ना रोकने” के निर्देश
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चुनावी माहौल में धार्मिक भीड़ से टकराव से बचना
यह प्रशासनिक निष्क्रियता आगे और विवाद खड़े कर सकती है।
समाज पर संभावित प्रभाव
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साम्प्रदायिक तनाव बढ़ सकता है
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सोशल मीडिया पर भ्रामक दावे तेज़ होंगे
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जामा मस्जिद जैसे संवेदनशील धार्मिक स्थल पर हिंसा का जोखिम रहेगा
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चुनावी माहौल में सामाजिक ध्रुवीकरण गहरा होगा
इसलिए इस घटना को किसी साधारण पैदल यात्रा की तरह नहीं देखा जा सकता।
