अक्टूबर 26, 2025 |✍🏻 Z S Razzaqi |वरिष्ठ पत्रकार
I. फ़ारसी के असातिज़ा (Masters) का साया और दक्कनी रिवायात (14th - 17th Century)
उर्दू की इब्तिदाई शक्ल, जिसे 'रेख़्ता' या 'दक्कनी' कहा गया, सीधे तौर पर फ़ारसी शायरी के सांचे में ढली। फ़ारसी के असातिज़ा रूमी, सा'दी, और हाफ़िज़ की रूमानी, सूफ़ियाना और फ़लसफ़ियाना रूह इन इब्तिदाई अशआर में नुमायां थी।
अहम शुअरा:
ख़्वाजा बंदा नवाज़ गेसू दराज़: (दक्कनी) इनकी शायरी में इब्तिदाई सूफ़ीयाना रंग और इल्हामी तसव्वुर मिलता है।
क़ुली क़ुतुब शाह: (दक्कनी) उर्दू के पहले साहिब-ए-दीवान शायर, जिनकी शायरी में रोज़मर्रा की ज़िंदगी और इश्क़ का ख़ूबसूरत अक्स मिलता है।
वली दक्कनी: (रेख़्ता के उस्ताद) जिनकी शायरी दिल्ली पहुँची और उर्दू ग़ज़ल को पहली बार इज़्ज़त-ओ-एहतिराम (respect) दिलाया।
सिराज़ औरंगाबादी: दक्कनी शायरी के आख़िरी और अहमतरीन शायर, जिनकी ज़बान में सादगी और दर्द था।
फ़ैज़ी और ज़हीर: फ़ारसी के नुमाइंदा शायर, जिनका असर साफ़ महसूस होता था।
इन असातिज़ा ने फ़ारसी के अरूज़ी औज़ान (meter and rhythm), इस्तियारात (metaphors) और तश्बीहात (similes) को उर्दू के लिए मुक़र्रर किया।
II. दिल्ली का क्लासिकी दौर: अज़मत-ए-शुअरा और फ़न का निखार (18th Century)
18वीं सदी में उर्दू शायरी का मरकज़ दक्कन से शुमाली हिंद (दिल्ली) मुंतक़िल हुआ, और यहाँ के शोरा ने उर्दू को एक मुक़म्मल और क्लासिकी (classical) ज़बान की शनाख़्त दी। यह वह दौर था जब ज़बान को मज़ीद पाक-साफ़ किया गया।
शुमाली हिंद के असातिज़ा:
मीर तक़ी मीर: 'ख़ुदा-ए-सुख़न'। ग़ज़ल को दर्द, ग़म और तहजीबी ज़वाल (cultural decline) के तजरुबात से जोड़ा। उनकी सादगी में हज़ारों पेचीदगियाँ हैं।
मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी सौदा: क़सीदा, हजो (satire) और शहर-आशोब (city lament) के इमाम। इनकी ज़बान में अज़मत और बुलंद आहंगी थी।
ख़्वाजा मीर दर्द: सूफ़ीयाना ग़ज़ल के मालिक। इनकी शायरी रूहानियत, तन्हाई और तसव्वुफ़ (mysticism) की बेहतरीन मिसाल है।
मीर हसन: मसनवी (narrative poem) 'सहर-उल-बयान' के मुसन्निफ़, जिन्होंने उर्दू नज़्म को नई बुलंदी बख़्शी।
शेख़ इब्राहीम ज़ौक़: (बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद) जिनकी शायरी मुहावरात (idioms) और रोज़मर्रा की बोलचाल की सफ़ाई के लिए मशहूर है।(शेख़ इब्राहीम ज़ौक़ की बायोग्राफी)
III. लखनऊ की रंगीनी और ग़ालिब का फ़लसफ़ा (19th Century)
दिल्ली के सियासी ज़वाल (political decline) के बाद लखनऊ उर्दू अदब का नया मरकज़ बना। यहाँ के शोरा ने ज़बान की सफ़ाई, ख़ूबसूरती, और रंगीनियत पर तवज्जो दी। इसी दौर में मिर्ज़ा ग़ालिब ने उर्दू शायरी की सिम्त बदल दी।
लखनऊ के नुमाइंदे:
ख़्वाजा हैदर अली आतिश: जिनकी शायरी में मुहावरेदार ज़बान, हुस्न-ओ-इश्क़ की बातें और अंदाज़-ए-बयाँ की नज़ाकत थी।
इमाम बख़्श नासिख़: ज़बान की सफ़ाई और इल्म-ए-अरूज़ (prosody) पर गहरी पकड़ के लिए जाने जाते हैं।
दया शंकर नसीम: मसनवी 'गुलज़ार-ए-नसीम' के ख़ालिक़, जिनका अंदाज़ लखनऊ के ख़ूबसूरत कल्चर का अक्स था।
मीर अनीस और मिर्ज़ा दबीर: मर्सिया निगारी के इमाम, जिन्होंने अज़ीयत (suffering) और फ़न की बुलंदी को एक साथ पेश किया।
मिर्ज़ा ग़ालिब (इंकलाब-ए-फ़िक्र): ग़ालिब ने उर्दू ग़ज़ल को फ़ारसी की मुश्किल अक़्वाल (sayings) और फ़लसफ़े से मालामाल किया। उन्होंने माद्दिज़म (materialism), वजूदियात (existentialism), और इंसानी नफ़्सियात (human psychology) की पेचीदगियों को अपनी शायरी में शामिल किया। ग़ालिब का हर शे'र फ़िक्र की एक नई राह खोलता है, जो उन्हें हमा वक़्त (timeless) शायर बनाता है।
IV. जदीदियत का इब्तिदाई आग़ाज़ और इक़बाल का मक़सद (Early 20th Century)
19वीं सदी के आख़िर और 20वीं सदी के आग़ाज़ में शायरी का मौज़ूअ इश्क़-ओ-हुस्न से हटकर क़ौमी बेदारी (national awakening), समाज और फ़लसफ़े की तरफ़ मुंतक़िल हुआ।
शोरा-ए-हिंद:
दाग़ देहलवी: जिनकी ज़बान की सादगी, मुहावरेदार अंदाज़ और रोज़मर्रा की बोलचाल आज भी मशहूर है।( दाग़ देहलवी की बायोग्राफी)
अल्लामा मुहम्मद इक़बाल: 'शायर-ए-मशरिक़' (Poet of the East)। इक़बाल ने शायरी को 'ख़ुदी' के फ़लसफ़े, उम्मती मसाइल, और जदीद दुनिया के तक़ाज़ों से जोड़ा। उनकी नज़्में और ग़ज़लें एक इल्हामी पैग़ाम रखती थीं।(अल्लामा इक़बाल की बायोग्राफी)
हसरत मोहानी: 'रईस-उल-मुतग़ज़्ज़िलीन'। इश्क़िया शायरी के साथ-साथ सियासी और तहरीकी जज़्बात को अपनी शायरी में शामिल किया।(हसरत मोहनी की बायोग्राफी)
फ़ानी बदायुनी: उनकी शायरी में यास (pessimism), नाकामी और दर्द का गहरा रंग झलकता है।
V. तरक्क़ी पसंद तहरीक: सियासत और समाज की बेबाकी (1930s - 1960s)
तरक्क़ी पसंद तहरीक (Progressive Writers' Movement) ने उर्दू शायरी को ज़ाती जज़्बात के दायरे से निकालकर इंसानियत, इंक़लाब, और समाजी अदल (social justice) का आईना बना दिया। यह उर्दू शायरी का वह दौर था जब फ़न को मक़सद (purpose) से जोड़ा गया।
अहम तरक्क़ी पसंद शुअरा:
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़: इश्क़ और सियासत को एक नया मानी दिया। उनका अंदाज़-ए-बयाँ हुस्न और इन्क़लाब का बेहतरीन संगम है।(फैज़ अहमद फ़ैज़ की बायोग्राफी)
जोश मलीहाबादी: 'शायर-ए-इन्क़लाब'। जिनकी ज़बान में अज़ीम ओज (grandeur), ग़ुस्सा और इन्क़लाबी जज़्बात थे।(जोश मलीहाबादी की बायोग्राफी)
साहिर लुधियानवी: फ़िल्मी और ग़ैर-फ़िल्मी शायरी में मज़दूरों, समाजी नाइंसाफ़ी, और जंग के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई।(साहिर लुधियानवी की बायोग्राफी )
अली सरदार जाफ़री, कैफ़ी आज़मी, और मजरूह सुल्तानपुरी: जिन्होंने नज़्म और ग़ज़ल दोनों को समाजी हक़ीक़त से जोड़ा।(अली सरदार जाफरी की बायोग्राफी )
नज़्म में इंकलाब:
नून मीम राशिद और मीरा जी: तरक्क़ी पसंदों के साथ ही उभरे, लेकिन उन्होंने जदीदियत के तहत नज़्म को फ़िक्र, वजूदियात और ज़र्री पेचीदगी (atomic complexity) दी। उन्होंने नज़्म-ए-आज़ाद (Free Verse) को उर्दू में मुक़ाम दिलाया।(नून मीम राशिद की बायोग्राफी )
VI. जदीदियत और मा-बाद जदीदियत: पेचीदा अफ़कार (1970s - Present)
1960 के बाद उर्दू शायरी 'जदीदियत' के दौर में दाख़िल हुई, जिसने शख़्सी तन्हाई (personal solitude), शहरी ज़िंदगी की अजनबीयत (urban alienation), और इंसानी वजूद के बेमानी (meaninglessness) होने के ख़्याल को मौज़ूअ बनाया।
जदीद और मा-बाद जदीद शोरा:
नासिर काज़मी: हिजरत, उदासी और ग़म की एक नई रिवायत क़ायम की।(नासिर काज़मी की शायरी)
मुनीर नियाज़ी: खौफ़, ख़ामोशी, और एक ख़ास तरह के तशवीश (anxiety) को अपनी शायरी का मौज़ूअ बनाया।
अहमद फ़राज़: ग़ज़ल में रूमानी और सियासी जज़्बात की एक बेहतरीन रिवायत क़ायम की, जिनकी ज़बान बेहद शेरी और आमफ़हम थी।(मुनीर नियाज़ी की शायरी)
जॉन एलिया: अपनी इंकलाबी फ़िक्र, बाग़ियाना (rebellious) अंदाज़, और फ़लसफ़ियाना बेबाकी के लिए जदीद ग़ज़ल में सबसे ज़्यादा मशहूर हुए।(जॉन एलिया की बायोग्राफी और शायरी)
परवीन शाकिर: ख़वातीन के जज़्बात, इश्क़ और रिश्ते की पेचीदगियों को जदीद नज़्म और ग़ज़ल में पहली बार बेबाकी से पेश किया।(परवीन शाकिर की बायोग्राफी और शायरी)
इफ़्तिख़ार आरिफ़, सईदा ताहिरा, ज़ाहिद फ़ातिमा: जैसे शायरों ने भी उर्दू शायरी में ख़वातीन की फ़िक्र और ज़बान की नई सतहें मुक़र्रर कीं।
शहरयार: (जदीद ग़ज़ल के अहम सितारे) इनकी शायरी में इश्क़, ज़िंदगी और मौत के फ़लसफ़े की गहराई मिलती है।(शहरयार की शायरी)
डॉ ताहिर रज़ज़ाक़ी संभली , जदीद रुबाइयात के माहिर फनकार अपने रुबियात के दीवान " रुतें " में जदीद ,फलसफी, तहक़ीक़ी रुबाई को खूबसूरत और जामेय अंदाज़ बख़्शा
VII. आज का दौर: डिजिटल शनाख़्त और वैश्वीकरण
मौजूदा दौर के शोरा, जैसे,डॉ. नुसरत महदी, डॉ वसीम बरेलवी , इक़बाल अशर उभरते हुए शायर उमैर नज्मी(और दीगर नयी आवाज़ें), न सिर्फ़ रिवायती तौर पर लिख रहे हैं बल्कि सोशल मीडिया और पॉडकास्ट के ज़रिए उर्दू शायरी को एक नया मुख़ातिब (audience) दे रहे हैं।
आज की शायरी में वैश्वीकरण (globalization) के असर, शख़्सी पहचान का मसला, टेक्नोलॉजी का दख़ल, और सियासी-समाजी मसाइल को सीधे तौर पर उठाया जा रहा है। ज़बान में मज़ीद सादगी और फ़ारसी के मुश्किल अलफ़ाज़ से परहेज़ करने का रुझान बढ़ा है।
जदीदियत के नुक़्ता-ए-नज़र से ख़ुसूसियात
फ़ारसी रूह की पेचीदगी (Complexity of Persian Soul): फ़ारसी शायरी का असर उर्दू में सिर्फ़ अलफ़ाज़ तक महदूद नहीं रहा, बल्कि मक़ता (concluding couplet) और मतला (opening couplet) की रिवायत, इश्क़-ए-हक़ीक़ी (spiritual love) और इश्क़-ए-मिजाज़ी (worldly love) का तसव्वुर, और तसव्वुफ़ की पेचीदगी भी फ़ारसी से विरासत में मिली। ग़ालिब जैसे शायर इसी पेचीदगी को उर्दू में फ़लसफ़ा और फ़िक्र की शक्ल में लाए।
जदीदियत का इंकलाब और तजरुबा: जदीदियत ने शायरी को 'तर्ज-ए-अदा' (style of expression) से ज़्यादा 'अंदाज़-ए-फ़िक्र' (style of thought) से जोड़ा। नज़्म-ए-आज़ाद और नज़्म-ए-मोअर्रा ने शायरों को वज़्न (weight) और रदीफ़-क़ाफ़िया की पाबंदियों से आज़ाद किया। जॉन एलिया की शायरी इसी जदीद तन्हाई और बग़ावत की सबसे बड़ी मिसाल है।
ज़बान की ख़ुसूसी खुसूसियात (Linguistic Features): उर्दू शायरी की सबसे ख़ास खुसूसियत इसकी लहजे की मिठास (sweetness of tone), मुहावरात की ख़ूबसूरती और इश्क़ का शाइस्ता (polite) अंदाज़ है। ये खूबियां ही इसे मुहर, विजिटिंग कार्ड और लेटरहेड (जहाँ हर लफ़्ज़ अहम है) से लेकर वेबसाइट (जहाँ लहजा अहम है) तक हर जगह क़ाबिल-ए-इस्तेमाल बनाती हैं।
क़द्र-ओ-कीमत (Final Value)
उर्दू शायरी का सफ़र, फ़ारसी के असातिज़ा की इबादत और अदब से शुरू होकर, मीर के दर्द, ग़ालिब के फ़लसफ़े, इक़बाल के पैग़ाम, फ़ैज़ के इन्क़लाब और जॉन एलिया की जदीद तन्हाई से गुज़रा है। आज यह शायरी पूरी दुनिया में एक नई 'डिजिटल शनाख़्त' बना रही है। उर्दू अदब की ये दौलत एक अज़ीम विरसा है, जो हमें तहज़ीब, फ़न और फ़िक्र के दरमियान एक नायाब रिश्ता क़ायम करना सिखाती है।
