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Bollywood History Explained: 1913 से आज तक भारतीय सिनेमा की सौ साल की यात्रा और परिवर्तन

मोहम्मद हाशिम  (Film Journalist)

भूमिका — बॉलीवुड क्यों केवल सिनेमा नहीं है

भारतीय सिनेमा, विशेषकर हिंदी सिनेमा जिसे सामान्यतः बॉलीवुड कहा जाता है, केवल फिल्में बनाने का व्यवसाय नहीं रहा — यह हमारी सामूहिक यादों, सामाजिक विमर्शों, राजनीतिक संकेतों और सांस्कृतिक कल्पनाओं का वह आकाश है जहाँ हर दौर ने अपनी छाप छोड़ी। पर्दे पर दिखने वाला हर चेहरा, हर गीत, हर दृश्य दरअसल उस समय की बदलती मानसिकता, तकनीक और आर्थिक परिदृश्य का दर्पण होता है। 

इस लेख में हम क्रमवार — इतिहास, तकनीक, शैलीगत बदलाव और संगीत-शब्द कला के महत्व तक — गहराई से चलेंगे और उन कलाकारों/गीतकारों/निर्देशकों का संक्षिप्त परन्तु सारगर्भित परिचय देंगे जिन्होंने बॉलीवुड को आकार दिया।

आरम्भ — सीनिमा की पहली किरणें और दादासाहेब फाल्के

सन्‌ 1896 के बाद कुछ ही वर्षों में भारत में सिनेमा के छोटे-छोटे प्रदर्शन शुरू हो गए, पर भारतीय फीचर-फिल्म की नींव वास्तविक अर्थों में तब पड़ी जब दादासाहेब फाल्के ने 1913 में कथा-आधारित लंबी फिल्म निर्मित की। फाल्के ने न केवल तकनीकी प्रयोग किए, बल्कि भारतीय लोककथात्मक और मिथकीय सामग्री को चलचित्रीकृत कर दिखाया — और उसी समय से फिल्म को कहानी सुनाने का एक नया तंत्र मिल गया। शुरुआती फिल्में दर्शकों को दृश्य और भावनात्मक दोनों तरह से छूने लगीं और फिल्म-निर्माण एक व्यवस्थित प्रक्रिया बनती चली गई।

साइलेंट युग से 'टॉकी' तक — जब फिल्म बोल उठी

सिनेमा के पहले दशकों में दृश्य-नाटकीयता के साथ संगीत का सीमित उपयोग था; पर 1931 में बोले जाने वाली फिल्मों की शुरुआत ने भारतीय सिनेमा की दिशा बदल दी। 'बोली हुई' फिल्मों में संवाद, गीत और संगीत ने कहानी के साथ एक अनिवार्य नाता जोड़ दिया — और यही वह क्षण था जब फिल्म-गीत (film song) भारतीय सिनेमा की आत्मा बन गए। गाने केवल मनोभाव के विस्तार नहीं रहे, बल्कि कथात्मक मूवमेंट और चरित्र-निर्माण के अहम उपकरण बन गए।

स्वर्ण युग (1940s–1960s) — काव्यात्मकता, सामाजिक यथार्थ और मानवीय संवेदना

स्वतंत्रता-पूर्व तथा स्वतंत्रता के बाद के दशकों को हिंदी सिनेमा का स्वर्ण युग कहा जाता है। इस युग की फिल्में न केवल कहानी कहती थीं, बल्कि समाज के सवालों और अंदरूनी मनोविज्ञान को भी बड़ी बारीकी से उठाती थीं। निर्देशकों और कलाकारों ने सिनेमा को एक गंभीर सामाजिक कला के रूप में परिभाषित किया—जहाँ काव्य और यथार्थ दोनों साथ-साथ चलते थे। इस समय की कई फिल्मों में साहित्यिक भाषा, सूक्ष्म अभिनय और संगीतमय गहराई देखने को मिली। रंगीन प्रयोग, नवाबी व समाजवादी विषय, और शहरी-ग्रामीण टकराव—सबने इस दौर की फिल्मों को समृद्ध बनाया।

1970s–1980s — व्यावसायिक परिदृश्य का विस्तार, नया हीरो और मसाला सिनेमा

1970 के दशक में भारतीय समाज व अर्थव्यवस्था में बड़े बदलाव नज़र आए और उसी के साथ फिल्मों का स्वरूप भी बदल गया। नायक का चरित्र अधिक तीव्र, विद्रोही और संघर्षशील बनने लगा — और इस समय के कई निर्देशक व कलाकारों ने व्यावसायिकता को नए रूप में परिभाषित किया। 'मसाला' फिल्मों का दौर आया — जिनमें एक फिल्म में रोमांस, एक्शन, कॉमेडी, गीत और नाटकीयता का संगम होता था। इससे न सिर्फ बॉक्स-ऑफिस पर बड़ा असर पड़ा बल्कि फिल्म बनाने के व्यावसायिक मॉडल भी बदल गए।

1990s के बाद — ग्लोबलाइज़ेशन, मल्टीप्लेक्स और नया दर्शक

1990 के दशक के बाद आर्थिक उदारीकरण, उपभोक्ता संस्कृति का विस्तार और प्रवासी भारतीय दर्शकों की बढ़ती महत्ता ने बॉलीवुड को वैश्विक रूप में पुनर्परिभाषित किया। बड़े बजट, ग्लैमर, विदेशी लोकेशन और ग्लोबल मार्केटिंग ने फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय बाजार के अनुरूप ढाला। साथ ही नई तकनीक—डिजिटल कैमरा, सीजीआई और बाद की पीढ़ी के कथाकार—इस दौर की फिल्मों को पहले से अलग आवाज़ व बनावट देते हैं। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के आने से विषयों की विविधता और प्रयोगवाद को भी नई उड़ान मिली है।

शैलीगत बहुलता — बॉलीवुड का बहुउपयोगी चेहरा

बॉलीवुड की खूबी इसकी शैलीगत बहुलता भी रही है। रोमांस से लेकर सामाजिक-नाटक, मसाला-एक्शन से लेकर सूक्ष्म आर्ट-हाउस, हर शैली ने समय-समय पर परिपक्वता और नवाचार दिखाया। यही वजह है कि भारतीय सिनेमा बार-बार स्वयं का पुनर्निर्माण करते हुए दर्शकों के बदलते स्वाद के साथ चल पाता है।

निर्देशकों और अभिनेताओं का योगदान — संक्षेप में

हर युग के निर्देशकों और अभिनेताओं ने सिनेमा को अलग रंग दिया। कुछ नाम जिन्होंने पहचान बनाई — उनके अलग-अलग दृष्टिकोण, अभिनेताओं की शैली और कथा-उपयोग का विशिष्ट योगदान रहा।

 किसी भी बड़े आंदोलन के बिना फिल्म का इतिहास अधूरा है: प्रयोगशील निर्देशकों ने शैलियों को मोड़ा, और सितारों ने दर्शक हृदय को लंबे समय तक बांधा रखा। साथ ही, तकनीक और सिनेमाटोग्राफी के विकास ने भी फिल्मों के दृश्य-शब्द को समृद्ध किया।

संगीत और गीतकार — बॉलीवुड की आत्मा

यदि बॉलीवुड की आत्मा का कोई रूप बताना हो, तो वह संगीत और गीतों के रूप में झलकता है। गीत फिल्म की पहचान बनते रहे — वे समाज की संवेदनाओं, प्रेम की परिभाषा और व्यक्तियों के मन की आवाज़ रहे।

 गीतकारों और संगीतकारों ने गीतों को सिर्फ़ मनोरंजन का जरिया नहीं बनाया, बल्कि उन्हें भावों, भाषाई सौंदर्य और कविता के स्तर तक उठाया। उस परंपरा ने ही बॉलीवुड को विशिष्ट पहचान दी — जहाँ एक गीत आज भी पीढ़ियों के बीच संवाद करता है।

हिट गीतकारों और उनके चर्चित गीत — एक समेकित परिचय

यहाँ कुछ प्रमुख गीतकारों के नाम और उनके द्वारा लिखे हुए कुछ बेहद लोकप्रिय गीतों के उदहारण दिए जा रहे हैं — यह सूची संपूर्ण नहीं, पर इन जोड़ों ने हिन्दी फिल्म-गीतों पर अमिट छाप छोड़ी है:

  • साहिर लुधियानवी — "जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं" (प्य़ासा) और "ये दुनिया अगर मिल भी जाए" — साहिर की शायरी और सामाजिक तीव्रता उनके गीतों में साफ़ झलकती है।

  • शैलेन्द्र — "आवारा हूँ" (आवारा) — शैलेन्द्र की सादगी और जन-भावना ने कई गीतों को जीवंत किया।

  • शकील बदायुनी — "चौदहवीं का चाँद हो" — इस गीत की शायरी का नाजुक और शॉपिंग-घने अंदाज़ शकील की पहचान रही।

  • हसरत जयपुरी — "ज़िंदगी एक सफर है सुहाना" — हसरत की नर्म, सधे हुए और सहज बोलों वाली शायरी ने कई हिट गीत दिए।

  • गुलज़ार — "तेरे बिना ज़िन्दगी से" (आँधी) और "तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी" (मासूम) — गुलज़ार की भाषा सूक्ष्म, रंगीन और अर्थ से भरपूर रहती है।

  • जावेद अख्तर — "एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा" — जावेद अख्तर के बोलों में आधुनिक कवित्त्ता और सुबोध भाव दोनों मिलते हैं।

  • जावेद अख्तर के समकालीन (और अलग तरह के) गीतकारों के साथ—मजरूह सुल्तानपुरी, आनंद बक्षी जैसे कवियों ने भी बहुत से लोकप्रिय गीत दिए; उदाहरण स्वरूप मजनूँ माज़रों में दर्ज अनेक गीत मजरूह जी के हैं, और आनंद बक्षी ने बहु-संख्यक फिल्मों के लिए गीत लिखे जिनमें कई पीढ़ियों ने दिल लगाया।

बॉलीवुड का व्यावसायिक मॉडल और तकनीकी विकास

फिल्म बनाना अब पहले जैसा नहीं रहा — स्टूडियो व्यवस्था से स्वतंत्र निर्माण, वितरण पद्धति में बहुगुणा बदलाव और मल्टीप्लेक्स-ओटीटी युग ने पूरी इकोनॉमी बदल दी है। तकनीकी बदलाव—रंगीन फिल्म से डिजिटल, सीमित उपकरणों से हाई-एंड कैमरा, पारंपरिक सेट से लोकेशन-शूटिंग और अब वीएफएक्स—इन सबने फिल्म निर्माण के स्तर और संभावनाओं को नया आकार दिया है। साथ ही, संगीत रेकॉर्डिंग, साउंड डिज़ाइन और पोस्ट-प्रोडक्शन के क्षेत्र में भी पेशेवर मानक कायम हुए हैं।

समकालीन चुनौतियाँ और अवसर

बॉलीवुड को आने वाले समय में कई चुनौतियों का सामना करना है — गुणवत्तापूर्ण स्क्रिप्ट्स की कमी, तमाम सांस्कृतिक संवेदनाओं के बीच संतुलन, और ग्लोबल ऑडियंस के लिए प्रासंगिकता।

 पर अवसर भी उतने ही हैं: क्षेत्रीय सिनेमाओं के साथ सहयोग, ओटीटी पर व्यापक दर्शक-क्षेत्र, अंतरराष्ट्रीय फेस्टिवल्स पर मान्यता और नई तकनीकों के साथ प्रयोग। यदि कथा-लेखन और निर्माताओं की रुचि गुणवत्ता-पक्ष को अपनाए तो बॉलीवुड फिर से नई ऊँचाइयों तक जा सकता है।

निष्कर्ष:-

 एक जीवंत और बदलता हुआ आकाश

बॉलीवुड का सफर कभी सीधी रेखा नहीं रहा — वह उतार-चढ़ाव, प्रयोग, परम्परा और नवाचार का मिश्रण रहा है। दादासाहेब फाल्के से शुरू होकर स्वर्ण युग, मसाला युग और आज के डिजिटल-समकाल तक का यह बदलता चेहरा दर्शाता है कि सिनेमा सिर्फ़ कला या व्यवसाय नहीं — यह हमारी सामूहिक आत्मा का दर्पण भी है। गीतकारों के भाव, निर्देशकों की दृष्टि, कलाकारों की ऊर्जा और तकनीक का विकास — इन सबका संगम ही बॉलीवुड की पहचान है। आने वाले वर्षों में कथाओं की नई जटिलता, संगीत के नये प्रयोग और वैश्विक दर्शक-बेस इसे और समृद्ध बनाएंगे — पर जो चीज़ इसे हमेशा अलहदा रखेगी, वह है उसकी गहराई में छुपी इंसानियत और गीतों की मादकता।




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