नई दिल्ली | 15 नवंबर 2025 |✍🏻 Z S Razzaqi |वरिष्ठ पत्रकार
चुनाव परिणामों के बाद विपक्ष और कुछ राजनैतिक विश्लेषकों ने बिहार के विधानसभा चुनावों के नतीजों को गम्भीर आरोपों के साथ प्रस्तुत किया — “रची गई साजिश”, “वोट चोरियाँ”, और चुनाव प्रक्रिया में पक्षपात। इसलिए आवश्यक है कि इन दावों, उपलब्ध आंकड़ों और आधिकारिक टिप्पणी का संयोजन कर के एक ठोस, रिसर्च-आधारित और निष्पक्ष विश्लेषण पेश किया जाए। नीचे हम प्रमुख दावों को क्रमवार आगे रख रहे हैं, हर हिस्से के साथ मौजूद सार्वजनिक साक्ष्य, मीडिया रिपोर्टिंग और संभावित वैधानिक/प्रक्रियात्मक विकल्पों का भी उल्लेख है।
1) संक्षिप्त निष्कर्ष (lede)
राजनीतिक परिदृश्य: राष्ट्रीय स्तर पर सत्तारूढ़ गठबंधन NDA ने इस चुनाव में बड़ी जीत दर्ज की — मीडिया रिपोर्टों के अनुसार NDA ने स्पष्ट बहुल्य-आधार पर सफल प्रदर्शन किया, जबकि विपक्ष ने नतीजों को स्वीकार करने के बजाए चुनाव प्रक्रिया और मतदाता सूची (electoral rolls) के डिजिटलीकरण, SIR (Special Intensive Revision) और “डुप्लीकेट/बुल्क वोटरों” के दावों को केंद्र में रखा। विपक्ष के प्रमुख नेतागणों ने चुनाव आयोग पर जांच और जवाबदेही की माँग उठाई।
2) विपक्ष के मुख्य दावे — क्या कहा जा रहा है?
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वोटर-रोल और SIR से छेड़छाड़ — विपक्ष का कहना है कि विशेष रूप से SIR जैसी प्रक्रियाओं के दौरान जो संशोधन हुए, वे व्यवस्थित तरीके से विपक्षी वोटरों को हटाने/बेअसर करने के लिए किए गए। इस दावे को राहुल गांधी समेत कई नेताओं और कार्यकर्ताओं ने उठाया और सामूहिक रूप से “वोट चोरी” के संकेत बताये।
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डुप्लीकेट/फेक वोटर डेटा — कुछ बयान यह दावा करते हैं कि रजिस्टर में डुप्लीकेट प्रविष्टियाँ, नकली/इंटरनेट-सोर्स्ड फोटो वाले खाते और असंगत वोटर-आईडी प्रविष्टियाँ मिलीं — जिसे विपक्ष ने बड़े पैमाने पर हेराफेरी का प्रमाण बताया।काउंटिंग/प्रशासनिक पक्षपात — मतगणना के दौरान अधिकारियों के आचरण, काउंटिंग प्रक्रियाओं में विलंब या आकस्मिक तकनीकी बाधाओं को भी विपक्ष ने संदेहास्पद बताया; कुछ स्थानों पर स्थानीय नेताओं ने गवाह और घटनावलों के आधार पर आपत्तियाँ दर्ज कीं।
नोट: इन दावों का राजनीतिक-प्रेरित संदर्भ स्पष्ट है — चुनाव के बाद आरोप सामान्य हैं — पर निर्णायक साबित करने के लिए कच्चे डेटा, लॉजिकल फॉरेंसिक और आधिकारिक जांच की आवश्यकता होती है।
3) क्या मीडिया और विश्लेषक इन दावों को समर्थन दे रहे हैं?
कुछ स्वतंत्र टिप्पणीकारों और विश्लेषकों ने खुलकर सवाल उठाये — उदाहरण के लिए आर्थिक तथा संचार-विशेषज्ञों के बीच भी चुनाव आयोग के निर्णयों और मतदाता-सूची के कार्यान्वयन पर तीखी बहस हुई। Nirmala Sitharaman के पति और अर्थशास्त्र-विशेषज्ञ परकला प्रभाकर जैसे समीक्षक भी सार्वजनिक रूप से शंकाएँ व्यक्त करते दिखे — जिससे राजनीतिक चर्चा और तेज हुई। वहीं मुख्यधारा मीडिया के कई प्रतिष्ठित आरक्षण/विश्लेषण ने NDA की सीट-वृद्धि और वोट-शेयर के रुझानों पर रिपोर्टिंग जारी रखी, तथा चुनाव आयोग और सरकार की व्याख्याओं को भी जगह दी गई।
4) उपलब्ध आंकड़ों पर एक नज़र (जो सार्वजनिक हैं)
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वोट शेयर और सीट वृद्धि: मीडिया-रिपोर्टों ने NDA/बीजेपी ब्लॉक का सीटों में उल्लेखनीय उछाल रेकॉर्ड किया — यह तथ्य चुनाव प्रक्रिया के परिणाम हैं और इन पर मीडिया-स्रोतों ने संख्यात्मक रिपोर्ट दी। (यहां FT, Business Standard वगैरह के लाइव अपडेट महत्वपूर्ण स्रोत रहे)।टर्न-आउट और असामान्य छलाँगें: विपक्ष ने कहा कि कुछ इलाकों में वोट प्रतिशत अचानक बढ़े — ऐसी घटनाएँ असाधारण हैं पर इन्हें पहचानने के लिए ज़िला/विधानसभा-स्तर के कच्चे वोटिंग-टेबल की तुलना करनी होगी (जिसके लिए ECI के अधिकारिक विवरण, form-wise डेटा और पार्टी-स्तरीय प्रतिलिपियाँ जरुरी)।
5) तकनीकी और प्रक्रियात्मक कारण जिनकी जाँच होनी चाहिए
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SIR (Special Intensive Revision) — क्या SIR के दौरान वैध वोटरों का हटना/संशोधन हुआ? नियम क्या थे और किस हद तक उनका अनुपालन दिखता है? (दस्तावेज़ीकरण और नोटिस-रिकॉर्ड महत्वपूर्ण होंगे)।
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मतदाता-सूची की गुणवत्ता — डुप्लीकेट, मृत व्यक्तियों के नाम, या बाहरी फोटो-इमेज का दावाबलिफ़िकेशन जरूरी। यह सत्यापित किया जा सकता है यदि ECI या राज्य आयोग ने फाइल-लेवल लॉग जारी किया हो।
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EVM/VVPAT और काउंटिंग लॉग — मशीन/वोट-रोलिंग की विश्वसनीयता की जाँच के लिए VVPAT-slips की क्रॉस-वेरिफिकेशन और काउंटिंग-हॉल के CCTV/लॉग महत्वपूर्ण सबूत होंगे।
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प्रशासनिक गवर्नेंस — काउंटिंग सेंटरों में अधिकारियों के आदेश, विलंब के कारण और किसी भी तरह के अप्रत्याशित तकनीकी दोष का लॉग।
इन सभी पॉइंट्स पर पारदर्शिता तभी बनेगी जब चुनाव आयोग/राज्य प्रशासन संबंधित लॉग, नोटिस और कच्चे डेटा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराएं या स्वतंत्र न्यायिक/निगरानी जांच की अनुमति दें।
6) क्या ये आरोप साबित हो सकते हैं? — कानूनी और व्यावहारिक बाधाएँ
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सबूत की मांग: राजनैतिक आरोपों को अदालत या चुनाव आयोग में साबित करने के लिए ठोस डिजिटल/दस्तावेजी सबूत चाहिए — सिर्फ़ आकस्मिक आँकड़े या सोशल-मीडिया क्लिप काफी नहीं।
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जल्दी चली सुनवाई की आवश्यकता: चुनावी नतीजों पर चुनौती के लिए समय-बद्ध प्रक्रियाएँ होती हैं; कतिपय दावे प्रमाण के अनुरूप न्यायिक समीक्षा मांगते हैं।
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स्वतंत्र फॉरेंसिक ऑडिट: यदि विपक्ष वास्तविक-रूप से साबित करना चाहता है, तो मशीन/डेटा ऑडिट, VVPAT परीक्षण और मतदाता-रोल फॉरेंसिक की माँग करनी होगी — और यह तभी प्रभावी होगा जब नेशनल/स्टेट विजिलेंस संस्थान या मान्यता प्राप्त स्वतंत्र संस्थाएँ शामिल हों।
7) निष्कर्ष और आगे का रास्ता
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राजनीतिक असंतोष पारदर्शिता माँगता है — विपक्ष के आरोपों को मिटाने/सत्यापित करने का उचित तरीका है चुनाव आयोग द्वारा विस्तृत खुलासा: SIR के नोटिस-लॉग, वोटर-रोल-चेंज-लॉग, काउंटिंग-हॉल CCTV और VVPAT-ऑडिट रिपोर्टों का सार्वजनिक वितरण। यदि आयोग इसे प्रदान करता है तो आरोपों की स्वतः जाँच हो सकती है।कठोर, शीघ्र और स्वतंत्र जाँच — आरोप गंभीर हैं; राजनीतिक स्थिरता और जन-विश्वास बनाए रखने के लिए तटस्थ न्यायिक या तकनीकी ऑडिट की मांग राजनीतिक रूप से जायज़ दिखती है।
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जनहित में पारदर्शिता बढ़ाएँ — अगले चरणों में सरकार, आयोग और विपक्ष को मिलकर तथ्य-आधारित मंच बनाना चाहिए — ताकि सोशल-मीडिया-आधारित आरोपों के बजाय कड़े, दस्तावेजी निष्कर्ष सामने आएँ।
