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मद्रास हाईकोर्ट ने पलटा बरी का फ़ैसला: एल.के. आडवाणी पर बम हमले की साज़िश में आरोपी मोहम्मद हनीफ़ फिर से दोषी करार

 

2011 की रथ यात्रा साज़िश केस में बड़ा मोड़, हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट का फैसला किया ख़ारिज

चेन्नई, 24 अक्टूबर 2025 |कविता शर्मा  | पत्रकार  

मद्रास हाईकोर्ट की मदुरै बेंच ने 2011 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वरिष्ठ नेता और पूर्व गृह मंत्री एल.के. आडवाणी की रथ यात्रा के दौरान कथित बम हमले की साज़िश से जुड़े एक अहम मामले में बड़ा निर्णय सुनाया है। अदालत ने निचली अदालत द्वारा दिए गए आरोपी मोहम्मद हनीफ़ उर्फ़ तेनकासी हनीफ़ की बरी का आदेश रद्द कर दिया है।

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यह फैसला जस्टिस पी. वेलमुरुगन और जस्टिस एल. विक्टोरिया गौरी की खंडपीठ ने सुनाया। अदालत ने माना कि ट्रायल कोर्ट ने जिन विसंगतियों (contradictions) के आधार पर आरोपी को बरी किया था, वे “गंभीर नहीं बल्कि मामूली” थीं, जो अभियोजन के पूरे केस को कमजोर नहीं करतीं।


मामले की पृष्ठभूमि: 2011 की रथ यात्रा में बम लगाने की योजना

मामला वर्ष 2011 का है, जब पूर्व गृह मंत्री एल.के. आडवाणी की रथ यात्रा मदुरै से गुज़रने वाली थी। आरोप था कि मोहम्मद हनीफ़ ने इस यात्रा के दौरान एक बम धमाका करने की साज़िश रची थी। पुलिस ने जांच के बाद उसके खिलाफ मामला दर्ज किया था।

जब मामला अदालत में लंबित था, तब हनीफ़ फरार हो गया, जिसके बाद अदालत ने उसके खिलाफ ग़ैर-जमानती वारंट (NBW) जारी किया।

स्पेशल इन्वेस्टिगेशन डिवीजन (CB-CID) के उप-अधीक्षक के नेतृत्व में एक टीम ने जब आरोपी को बटलागुंडु इलाके में पकड़ने की कोशिश की, तो उसने पुलिस अधिकारी की हत्या का प्रयास किया। हालांकि, अधिकारी बाल-बाल बच गए और पुलिस ने आरोपी को घेरकर गिरफ़्तार किया।


ट्रायल कोर्ट का फैसला और हाईकोर्ट की आपत्ति

दिंडीगुल सेशंस कोर्ट ने ट्रायल के बाद आरोपी को बरी कर दिया था। अदालत ने कई प्रक्रियागत कमियों का हवाला दिया था, जैसे—

  • जांच की सीडी फ़ाइल पेश नहीं की गई,

  • टोल रिकॉर्ड और यात्रा से जुड़े दस्तावेज़ पेश नहीं किए गए,

  • उस व्यक्ति की गवाही नहीं ली गई जिससे आरोपी ने कथित विस्फोटक सामग्री ली थी,

  • और अभियोजन पक्ष की तरफ़ से स्वतंत्र (independent) गवाहों की कमी बताई गई।

लेकिन हाईकोर्ट ने इन दलीलों को कमजोर ठहराते हुए कहा कि —

“ये विसंगतियाँ केवल मामूली हैं और अभियोजन की जड़ तक नहीं जातीं। पुलिस और राजस्व विभाग के अधिकारी भी भरोसेमंद गवाह हैं। यदि उनके बयान विश्वसनीय लगते हैं, तो अदालत उन्हें खारिज नहीं कर सकती।”


गोपनीय कार्रवाई को लेकर अदालत का तर्क

हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की इस दलील को भी खारिज कर दिया कि पुलिस ने स्थानीय थाने को पूर्व सूचना नहीं दी थी।
न्यायालय ने कहा कि —

“ऐसे मामलों में, जहाँ कोई आरोपी फरार है और गिरफ्तारी का अभियान चलाया जा रहा है, पुलिस से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह पहले से सूचना दे। गोपनीयता बनाए रखना स्वाभाविक और आवश्यक है, वरना आरोपी भाग सकता था।”


स्वतंत्र गवाहों की अनुपस्थिति पर हाईकोर्ट की राय

अदालत ने स्पष्ट किया कि इस प्रकार के संवेदनशील मामलों में पूरी तरह स्वतंत्र गवाहों की उम्मीद नहीं की जा सकती।

“केवल इसलिए कि गवाह पुलिस या सरकारी विभाग से हैं, उनकी गवाही को खारिज नहीं किया जा सकता, जब तक कि उनके बयान अविश्वसनीय साबित न हों,” अदालत ने कहा।


आरोप और कानूनी धाराएँ

मोहम्मद हनीफ़ पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 353 (सरकारी कर्मचारी पर हमला), 307 (हत्या का प्रयास), और 153(A) (साम्प्रदायिक द्वेष फैलाना) के तहत आरोप लगे थे।
इसके अलावा, उस पर गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 की धारा 16(1)(b) और Explosive Substances (Amendment) Act, 2001 की धाराएँ भी लागू की गई थीं।


CB-CID की अपील और अदालत का अंतिम निर्णय

CB-CID ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को चुनौती देते हुए कहा कि अभियोजन की ओर से पर्याप्त सबूत मौजूद हैं।
हाईकोर्ट ने इस दलील से सहमति जताई और कहा कि—

“अभियोजन के साक्ष्य विश्वसनीय हैं, और जो त्रुटियाँ बताई गईं वे तकनीकी हैं, जो मामले की मूल सच्चाई को प्रभावित नहीं करतीं।”

अंततः अदालत ने आरोपी की बरी को रद्द करते हुए CB-CID की अपील मंज़ूर कर ली।
अब अदालत 28 अक्टूबर 2025 को सज़ा (sentence) पर सुनवाई करेगी।


कानूनी पक्ष और अधिवक्ता

  • याचिकाकर्ता (राज्य पक्ष) की ओर से: एडिशनल पब्लिक प्रॉसीक्यूटर टी. सेंथिल कुमार

  • प्रतिवादी (आरोपी) की ओर से: वरिष्ठ अधिवक्ता एस.एम.ए. जिन्ना

  • केस शीर्षक: The State v. Mohammed Hanifa @ Tenkasi Hanifa

  • Citation: 2025 LiveLaw (Mad) 372

  • केस नंबर: Crl.A (MD) No.475 of 2019


निष्कर्ष:-

मद्रास हाईकोर्ट का यह फैसला एक बार फिर यह दर्शाता है कि जब मामला राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद या बम धमाकों की साज़िश से जुड़ा हो, तो अदालतें तकनीकी खामियों से ज़्यादा सबूतों की विश्वसनीयता को तरजीह देती हैं।

यह निर्णय न केवल पुलिस और जांच एजेंसियों को मज़बूती देता है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि भारत की न्यायिक प्रणाली ऐसी गंभीर साज़िशों में लिप्त अपराधियों को कानूनी तकनीकीताओं के सहारे छूटने नहीं देगी।

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