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भारतीय क्रिकेट में अदृश्य पक्षपात: मुस्लिम खिलाड़ियों की उपेक्षा की कहानी, सरफ़राज़ से शमी तक

 

रिपोर्ट — Z S Razzaqi |एवं वरिष्ठ पत्रकार | विश्लेषणात्मक विशेष लेख | शोध-आधारित अध्ययन


भूमिका: चमकते स्टेडियम के पीछे छिपी एक खामोश असमानता

भारत में क्रिकेट केवल खेल नहीं, एक धर्म है। लेकिन जब यही धर्म धार्मिक भेदभाव से प्रभावित होने लगे, तो सवाल उठना स्वाभाविक है।
बीते कुछ वर्षों में कई उदाहरणों ने यह भावना मज़बूत की है कि भारतीय क्रिकेट में मुस्लिम खिलाड़ियों के साथ अनदेखा और कभी-कभी अनुचित व्यवहार किया जाता है।
चयन, अवसर और प्रतिनिधित्व — ये तीनों मोर्चे ऐसे हैं जहाँ असमानता बार-बार दिखाई देती है।



1. सरफ़राज़ ख़ान: लगातार प्रदर्शन, फिर भी चयन से दूर

घरेलू क्रिकेट में लगातार बेहतरीन प्रदर्शन के बावजूद सरफ़राज़ ख़ान को भारतीय टीम में नियमित मौका नहीं दिया गया।
रणजी ट्रॉफी 2021–22 में उनका औसत 122.75 रहा — यह आंकड़ा किसी भी वर्तमान भारतीय बल्लेबाज़ से बेहतर है।
फिर भी चयनकर्ताओं ने उन्हें टेस्ट टीम में “टीम बैलेंस” या “फिटनेस” के नाम पर शामिल नहीं किया।

तुलना करें:

  • श्रेयस अय्यर को दो साल तक कम औसत के बावजूद निरंतर मौका मिला।

  • सूर्यकुमार यादव को सफेद गेंद के फॉर्म के आधार पर टेस्ट टीम में जगह दी गई।

  • लेकिन सरफ़राज़, जिनके पास लम्बी पारी खेलने की क्षमता है, लगातार उपेक्षित रहे।

कई विश्लेषक यह मानते हैं कि यह सिर्फ क्रिकेटीय निर्णय नहीं, बल्कि एक अवचेतन सामाजिक पूर्वाग्रह का संकेत है।


2. मोहम्मद शमी: फिटनेस बहाना, पर प्रदर्शन सबसे आगे

मोहम्मद शमी भारतीय क्रिकेट के सबसे प्रभावशाली तेज़ गेंदबाज़ों में से एक हैं।
2023 के विश्व कप में उन्होंने 24 विकेट लिए — वह भी केवल 7 मैचों में।
उस प्रदर्शन के बावजूद उन्हें कुछ सीरीज़ से “फिटनेस इश्यूज़” का हवाला देकर बाहर रखा गया।

लेकिन हाल ही में घरेलू क्रिकेट में उन्होंने 8 विकेट लेकर यह साबित कर दिया कि वे अब भी भारत के सर्वश्रेष्ठ बॉलर्स में हैं।
सोशल मीडिया पर लोग पूछने लगे —

“क्या वही फिटनेस मानक बाकी खिलाड़ियों पर भी लागू होते हैं?”

वास्तव में, चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता का अभाव एक बड़ी समस्या बन चुकी है।


3. ऐतिहासिक संदर्भ: जब हर पीढ़ी के मुस्लिम खिलाड़ी उपेक्षित रहे

(a) मंसूर अली ख़ान पटौदी (1960s)

पटौदी जूनियर भारतीय क्रिकेट इतिहास के पहले आधुनिक कप्तानों में से थे।
लेकिन उन्हें लंबे समय तक “अरिस्टोक्रेटिक” और “एटीट्यूड वाला” कहकर आलोचना का सामना करना पड़ा — जबकि वही एटीट्यूड आज विराट कोहली की “आक्रामकता” कहलाता है।

(b) मोहम्मद अजहरूद्दीन (1989–2000)

भारत को तीन लगातार विश्वकप में कप्तानी देने वाले अजहरुद्दीन को मैच फिक्सिंग केस में फँसाकर बाहर किया गया।
बाद में आंध्र हाईकोर्ट ने उन्हें निर्दोष घोषित किया, लेकिन तब तक उनका करियर खत्म हो चुका था।
कई जानकारों का कहना है कि उनके साथ मीडिया ट्रायल और सामाजिक पूर्वाग्रह ने न्यायिक निर्णय से पहले ही उनकी छवि नष्ट कर दी।

(c) इरफ़ान और यूसुफ पठान (2003–2012)

इरफ़ान पठान, जिन्होंने 19 साल की उम्र में टेस्ट हैट्रिक ली, 2007 T20 विश्वकप के हीरो थे, लेकिन कुछ ही वर्षों में टीम से बाहर कर दिए गए।
कोच ग्रेग चैपल के कार्यकाल में कहा गया कि “इरफ़ान अब ऑलराउंडर नहीं रहे”, जबकि आंकड़े उस समय इसका उल्टा दिखाते हैं।

यूसुफ पठान, जो IPL के पहले दशक के सबसे विस्फोटक बल्लेबाज़ों में थे, उन्हें भी चयन में लगातार दरकिनार किया गया।

(d) परवेज़ रसूल और शाहबाज़ नदीम

दोनों घरेलू क्रिकेट के दिग्गज हैं, लेकिन उन्हें सिर्फ प्रतीकात्मक अवसर दिए गए — मानो “टोकन मुस्लिम प्रतिनिधित्व” के लिए चयन किया गया हो।


4. प्रणालीगत असमानता और चयन की राजनीति

भारतीय क्रिकेट चयन का ढांचा बीसीसीआई (BCCI) के नियंत्रण में है।
लेकिन चयन प्रक्रिया अक्सर अस्पष्ट और बिना जवाबदेही के होती है।
विशेषज्ञों के अनुसार, चयन में तीन प्रमुख प्रवृत्तियाँ बार-बार दिखती हैं —

  1. लॉबीकल्चर:
    कुछ शहरों और राज्यों (जैसे मुंबई, दिल्ली, चेन्नई) के खिलाड़ियों को लगातार प्राथमिकता।

  2. ब्रांड वैल्यू बनाम परफ़ॉर्मेंस:
    जिन खिलाड़ियों की सोशल मीडिया मौजूदगी और विज्ञापन मूल्य अधिक है, उन्हें ज़्यादा अवसर।

  3. सांस्कृतिक-धार्मिक पूर्वाग्रह:
    धार्मिक पहचान के कारण खिलाड़ियों के “पब्लिक परसेप्शन” को प्रभावित किया जाता है —
    जैसे मोहम्मद शमी को 2021 में पाकिस्तान के खिलाफ हार के बाद “देशद्रोही” कहा गया, जबकि पूरी टीम सामूहिक रूप से ज़िम्मेदार थी।


5. सोशल मीडिया और सांप्रदायिक नैरेटिव

भारत में क्रिकेट केवल खेल नहीं, बल्कि राष्ट्रवाद की एक मंचीय अभिव्यक्ति बन चुका है।
जब भी कोई मुस्लिम खिलाड़ी गलती करता है — उसे “टीम इंडिया” का हिस्सा नहीं, बल्कि “दूसरे समुदाय” का प्रतीक बना दिया जाता है।
2021 T20 विश्वकप के बाद शमी को ऑनलाइन ट्रोल किया गया; विराट कोहली ने जब उनका समर्थन किया तो उन्हें भी “एंटी-नेशनल” कह दिया गया।

यह दर्शाता है कि क्रिकेट का माहौल धीरे-धीरे सांप्रदायिक विभाजन का शिकार होता जा रहा है।


6. विदेशों में स्थिति: तुलना से सीख

  • इंग्लैंड: वहाँ मोईन अली और आदिल रशीद जैसे मुस्लिम खिलाड़ियों को धर्म के साथ पेशेवर सम्मान मिला।
    मोईन अली ने हज के लिए ब्रेक लिया, और बोर्ड ने पूरी तरह सहयोग किया।

  • दक्षिण अफ्रीका: रंगभेद के इतिहास के बावजूद, वहाँ अब कोटा सिस्टम के ज़रिए विविधता को बढ़ावा दिया जा रहा है।

भारत जैसे बहुलतावादी देश में ऐसा कोई ढांचा नहीं है जो प्रतिनिधित्व की समानता सुनिश्चित करे।


7. प्रतिभा बनाम पूर्वाग्रह: आंकड़े क्या कहते हैं

खिलाड़ीप्रमुख उपलब्धिकारण बताकर बाहर
सरफ़राज़ ख़ानरणजी औसत 70+फिटनेस / टीम कॉम्बिनेशन
मोहम्मद शमी8 विकेट हालिया मैचफिटनेस
इरफ़ान पठानसबसे तेज़ 100 विकेटफॉर्म
अजहरुद्दीन3 WC कप्तानियाँफिक्सिंग आरोप
यूसुफ पठानIPL स्ट्राइक रेट 150+फॉर्म
परवेज़ रसूल300+ रणजी विकेटसिलेक्शन पॉलिसी

8. निष्कर्ष: भारत को अपने क्रिकेट का आत्ममंथन चाहिए

भारत के क्रिकेट बोर्ड और समाज दोनों को यह समझना होगा कि खेल तभी न्यायपूर्ण हो सकता है जब अवसर निष्पक्ष हों
सरफ़राज़ ख़ान और मोहम्मद शमी केवल खिलाड़ी नहीं — वे इस व्यवस्था के मौन साक्षी हैं, जो बताती है कि टैलेंट से बड़ा धर्म हो गया है

जब तक चयन और प्रशंसा दोनों “नाम” देखकर नहीं बल्कि “काम” देखकर नहीं होंगे, तब तक भारतीय क्रिकेट की आत्मा अधूरी रहेगी।

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