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The Kashmir Files: की कृत्रिम सफलता के बाद क्यों ध्वस्त हुआ विवेक अग्निहोत्री का करियर

नई दिल्ली। 10 सितंबर 2025:✍🏻 Z S Razzaqi | वरिष्ठ पत्रकार  

 भारतीय सिनेमा में कई नाम ऐसे दर्ज हैं जिन्होंने अपनी क्रिएटिविटी, कथानक और तकनीकी निपुणता से नई ऊँचाइयाँ हासिल कीं। वहीं कुछ नाम ऐसे भी हैं जिन्होंने अपनी सीमित सोच, सतही दृष्टि और नकल-आधारित शिल्प से इंडस्ट्री को पीछे खींचा। विवेक अग्निहोत्री उन्हीं में से एक हैं।

वह पल्लवी जोशी के पति हैं—वही पल्लवी, जो कभी भारत एक खोज जैसे धारावाहिकों में सीता, कन्नगी और शकुंतला जैसी पौराणिक भूमिकाओं के लिए दर्शकों की प्रिय बनी थीं। लेकिन आज, वही पल्लवी अपने पति के करियर के साथ ऐसे बंधी नज़र आती हैं कि मानो मंदोदरी की भूमिका निभा रही हों—एक ऐसे "रावण" के साथ जो न केवल सिनेमाई स्तर पर बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी विनाश का प्रतीक बन चुका है।


शुरुआती असफलताएँ: स्टारकास्ट भी नहीं बचा सकी फिल्में

विवेक अग्निहोत्री का करियर शुरुआत से ही असफलताओं का इतिहास रहा है।

  • उनकी पहली फिल्म चॉकलेट (2005) में अनिल कपूर, इरफ़ान खान और सुनील शेट्टी जैसे बड़े नाम थे। बावजूद इसके फिल्म बुरी तरह पिटी और दर्शकों ने इसे भुला दिया।

  • इसके बाद आई गोल (2007) और बुद्धा इन अ ट्रैफिक जाम (2016) जैसी फिल्में, जिनकी रिलीज़ ही ज़्यादातर लोगों को याद नहीं।

कहानी, संपादन और निर्देशन की इतनी कमजोरी थी कि बड़े सितारे दोबारा उनके साथ काम करने को तैयार नहीं हुए। यही कारण था कि धीरे-धीरे उन्हें छोटे, दोयम दर्जे के कलाकारों पर निर्भर रहना पड़ा।


हताशा और सस्ते सिनेमा की ओर झुकाव

बॉलीवुड में असफलताओं के बाद उन्होंने संवेदनशील सिनेमा या नई प्रयोगधर्मी शैली अपनाने की बजाय आसान रास्ता चुना—नग्नता और सस्ती सनसनीखेज़ी

  • इसका उदाहरण है उनकी फिल्म हेट स्टोरी (2012)
    इसे उन्होंने एरॉटिक-थ्रिलर के नाम पर बेचा, लेकिन फिल्म आलोचकों और दर्शकों दोनों के बीच बुरी तरह नाकाम रही।

हेट स्टोरी से स्पष्ट हो गया कि विवेक के पास न तो कहानी कहने की क्षमता है और न ही कोई मौलिक दृष्टिकोण।


हेट को पूंजी बनाने का सफर

जब सस्ती कामुकता नहीं बिकी, तो विवेक ने नफ़रत और प्रोपेगंडा को अपना नया हथियार बना लिया।

  • ताशकंद फाइल्स (2019) इसका पहला उदाहरण थी। यह फिल्म मित्रोखिन आर्काइव्स से प्रेरित बताई गई, लेकिन इसमें किसी ठोस शोध या जाँच का नामोनिशान नहीं था। प्लॉटलेस, ब्रेनलेस और एजेंडा-चालित यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुँह गिरी।

लेकिन यही फिल्म उन्हें दक्षिणपंथी समूहों और राइट-विंग प्रचार तंत्र का प्रिय बना गई।


कश्मीर फाइल्स: नफ़रत का कारोबार

वास्तविक सफलता विवेक को कश्मीर फाइल्स (2022) से मिली। लेकिन इस सफलता का आधार कला नहीं, बल्कि राजनीतिक-प्रचार, अफवाहें और नफरत थी।

  • फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया गया,

  • सोशल मीडिया पर झूठी खबरें फैलाई गईं कि यह फिल्म ऑस्कर में नॉमिनेट हुई है,

  • और दक्षिणपंथी संगठनों ने इसे "देशभक्ति" के नाम पर प्रचारित किया।

परिणाम: फिल्म ने 200 करोड़ से अधिक कमाए।

मगर आलोचकों के अनुसार यह फिल्म एकतरफ़ा नैरेटिव, सतही कैरेक्टराइजेशन और राजनीतिक एजेंडे से भरी हुई थी।

कई दर्शक जो इसे "देशभक्ति" समझकर गए, वे सिनेमा की गुणवत्ता देखकर इतने निराश हुए कि उन्होंने अग्निहोत्री की अगली फिल्मों से तौबा कर ली।


द वैक्सीन वॉर और बंगाल फाइल्स: फ्लॉप की परंपरा जारी

कश्मीर फाइल्स की कृत्रिम सफलता के बाद आई द वैक्सीन वॉर (2023)

  • फिल्म ने कोविड काल की कहानी बताने का दावा किया, लेकिन यह बोरिंग डॉक्यूड्रामा साबित हुई।

  • बॉक्स ऑफिस पर लगभग अदृश्य रही।

अब उन्होंने बंगाल फाइल्स की घोषणा की है, और जनता से उल्टा गुस्सा कर रहे हैं कि लोग इसे क्यों नहीं देखेंगे। यह गुस्सा असल में उनकी विफलता और दर्शकों की उदासीनता का सबूत है।


विवेक अग्निहोत्री का सिनेमाई शिल्प:

उनकी फिल्मों में कुछ सामान्य खामियाँ बार-बार दिखती हैं:

  1. खराब स्क्रीनप्ले – कहानी हमेशा बिखरी हुई और अनकोहरेन्ट।

  2. व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी का असर – तथ्यात्मक रिसर्च की कमी, झूठे नैरेटिव का दोहराव।

  3. लंबे प्रोपेगंडा मोनोलॉग – पात्र संवाद नहीं करते, बल्कि भाषण देते हैं।

  4. खराब संपादन – दृश्यों का प्रवाह टूटा हुआ और बेमेल।

  5. कॉपीकैट एप्रोच – विदेशी थ्रिलर्स और डॉक्यूमेंट्री की सस्ती नकल।

संक्षेप में, उनकी फिल्में "कैसे फिल्म नहीं बनाई जाए" का क्लासिक उदाहरण हैं।


सिनेमा नहीं, राजनीति उनकी मंज़िल

अगर बारीकी से देखा जाए तो विवेक अग्निहोत्री एक फिल्मकार नहीं, बल्कि एक राजनीतिक प्रोपेगंडिस्ट हैं।

  • उनकी फिल्मों का मकसद मनोरंजन या कला नहीं, बल्कि विभाजन और ध्रुवीकरण है।

  • झूठ, ओवरएक्टिंग, नफ़रत और कच्ची कहानी—ये सब सिनेमा को नहीं, बल्कि राजनीति को ज़्यादा सूट करते हैं।

संभव है कि कल को विवेक पूरी तरह राजनीति में उतरें। क्योंकि जब फिल्में लगातार फ्लॉप होंगी, तो राजनीति ही ऐसे "फेल्ड डायरेक्टर्स" को शरण देती है।


निष्कर्ष: भारतीय सिनेमा के लिए दुर्भाग्य

विवेक अग्निहोत्री और पल्लवी जोशी की जोड़ी भारतीय सिनेमा के लिए किसी काली छाया से कम नहीं।

  • पल्लवी, जो कभी पवित्र और यादगार किरदारों की वजह से सम्मानित थीं, आज विवेक के प्रोपेगंडा-सिनेमा की भागीदार बन गई हैं।

  • विवेक, जिन्होंने बार-बार यह साबित किया है कि उनके पास न तो मौलिकता है, न तकनीकी कौशल

इनकी वजह से भारतीय सिनेमा का स्तर गिरा है। यह जोड़ी नफ़रत और झूठ के सौदागर बन चुकी है।

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