✍🏻 Z S Razzaqi | वरिष्ठ पत्रकार
🔴 भूमिका: एक राज्य, एक समुदाय और एक लंबा खौफ़
असम में मुसलमानों के खिलाफ़ जो कुछ हो रहा है, वह केवल एक राज्य की प्रशासनिक कार्यवाही नहीं है, यह पूरे भारत में धार्मिक आधार पर ‘अदृश्य नरसंहार’ जैसी स्थिति का संकेत दे रहा है। बीते कुछ वर्षों में NRC (National Register of Citizens) की आड़ में, और हाल ही के महीनों में अघोषित तरीके से एक विशेष समुदाय — विशेष रूप से बंगाली मूल के मुसलमानों — को उनके घरों, ज़मीनों और पहचान से ही बेदखल किया जा रहा है।
इस लेख में हम तथ्यों, घटनाओं, ज़मीनी सच्चाई और असम की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति का गहराई से विश्लेषण करेंगे, जिससे यह साफ़ हो सके कि यह कोई प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि योजनाबद्ध उत्पीड़न है।
🟠 NRC की पृष्ठभूमि: नागरिकता या भेदभाव का औजार?
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर 2015 में NRC की प्रक्रिया शुरू की गई थी, जिसका उद्देश्य असम में "घुसपैठियों" की पहचान करना था। 2019 में जब इसका अंतिम ड्राफ्ट आया, तो 19 लाख से अधिक लोगों को "नागरिकता सूची" से बाहर कर दिया गया — इनमें लगभग 12 लाख हिंदू और 7 लाख मुसलमान बताए गए।
लेकिन, इस सूची से बाहर होने के बावजूद मुसलमानों के साथ जो व्यवहार किया गया, वह कहीं अधिक कठोर और अपमानजनक रहा है।
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उन्हें 'विदेशी' घोषित कर देने की आशंका
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डिटेंशन सेंटर में बंद करने की धमकी
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और अब हालात यहां तक आ गए हैं कि बिना कोई कानूनी आदेश दिखाए, हज़ारों मुस्लिम परिवारों के घर तोड़े जा रहे हैं।
🔵 अघोषित NRC: नया चेहरा, पुराना ज़हर
बीते कुछ महीनों में असम के विभिन्न जिलों — जैसे दरंग, बरपेटा, बोंगाईगांव, गोलपाड़ा, नागांव और धुबरी — में मुसलमानों के घरों पर बुलडोज़र चलाया गया है। कोई नोटिस नहीं, कोई कोर्ट ऑर्डर नहीं, केवल एक प्रशासनिक बयान कि “यह ज़मीन सरकारी है”।
दरंग जिला 2021: 800 से ज़्यादा मुस्लिम परिवारों के घर गिरा दिए गए। विरोध में एक व्यक्ति मारा गया।
धुबरी जुलाई 2025: लगभग 200 घर तोड़े गए, स्थानीय पत्रकारों को कवरेज से रोका गया।
यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब केंद्र और राज्य की सत्ता में एक ही पार्टी है — जो खुलेआम ‘धर्म आधारित राजनीति’ के लिए कुख्यात है।
⚫ सामाजिक और मानवीय त्रासदी: एक पूरी नस्ल को विस्थापन की ओर धकेला गया
जिन लोगों के घर तोड़े जा रहे हैं, उनमें बड़ी संख्या में छोटे किसान, दिहाड़ी मजदूर, और शिक्षित बेरोज़गार युवा हैं। ये लोग दशकों से उन ज़मीनों पर रह रहे हैं, जिनके बारे में अब दावा किया जा रहा है कि वे "सरकारी ज़मीन" हैं।
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बच्चों की पढ़ाई छूट गई
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महिलाओं की सुरक्षा संकट में
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बुज़ुर्गों की दवाइयाँ और शरण दोनों छिन चुकी हैं
यह एक सामूहिक सामाजिक आपदा है, जो न केवल संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार), बल्कि अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का भी खुला उल्लंघन है।
🟥 राजनीतिक चुप्पी और धर्म आधारित 'अंक बढ़ाने' की होड़
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि असम में मुसलमानों को लेकर ज़्यादातर राजनीतिक दल ‘संवेदनशील’ होने के बजाय ‘राजनीतिक रूप से लाभकारी मौन’ धारण करते हैं।
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सत्ताधारी दल इसे ‘भूमि संरक्षण और घुसपैठ रोकने’ की कार्रवाई कहता है
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विपक्ष केवल बयानबाज़ी करता है, लेकिन संसद या अदालत में ठोस कदम नहीं उठाता
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राज्य पुलिस और प्रशासनिक अफ़सर ‘अंकाें’ की दौड़ में धर्म के आधार पर टारगेटिंग करते हैं
यानी एक तरफ़ मुसलमानों के घर जलाए जा रहे हैं, दूसरी तरफ़ राजनेता अपने आकाओं को खुश करने में व्यस्त हैं।
🟡 मीडिया की भूमिका: आँखें मूंदे एकतरफा नैरेटिव
भारत की मुख्यधारा की मीडिया ने इस पूरी घटना को या तो नज़रअंदाज़ किया है या फिर सरकारी भोंपू की तरह इसे “अवैध अतिक्रमण हटाओ अभियान” बता दिया है।
कुछ स्वतंत्र पत्रकारों और असम के स्थानीय मुस्लिम पत्रकारों ने अपनी जान जोखिम में डालकर इन घटनाओं की तस्वीरें, वीडियो और शोकगाथाएँ साझा की हैं — लेकिन उन्हें धमकियाँ, मुकदमे और गिरफ़्तारियों का सामना करना पड़ रहा है।
🟢 क़ानूनी सवाल: क्या यह सब संवैधानिक है?
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क्या बिना अदालत के आदेश के किसी का घर तोड़ा जा सकता है?
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क्या कोई सरकार केवल धर्म देखकर ज़मीन का दावा कर सकती है?
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क्या न्यायिक प्रक्रिया के बिना किसी को ‘घुसपैठिया’ घोषित किया जा सकता है?
उत्तर है — नहीं।
लेकिन असम में ऐसा हो रहा है, और अदालतें अधिकांश मामलों में मूकदर्शक बनी हुई हैं।
⚫ निष्कर्ष: यह केवल असम नहीं, यह एक चेतावनी है
आज अगर असम में मुसलमानों को ‘सरकारी ज़मीन पर घुसपैठिया’ बताकर घर से निकाला जा सकता है, तो कल किसी और राज्य में किसी और समुदाय के साथ ऐसा ही होगा।
यह केवल NRC की बात नहीं है — यह एक सुनियोजित वैचारिक एजेंडा है, जो मुसलमानों को नागरिकता, ज़मीन, शिक्षा, स्वास्थ्य और मानवीय गरिमा से वंचित कर देना चाहता है।
आज अगर असम के मुसलमान अकेले खड़े हैं, तो कल हम सब अकेले होंगे। यह सिर्फ़ एक राज्य या एक समुदाय का मामला नहीं, बल्कि भारत के संविधान, इंसानियत और लोकतंत्र के भविष्य पर सीधा हमला है।
हम सभी की यह नैतिक और सामाजिक ज़िम्मेदारी बनती है कि इस अन्याय के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करें।
मानवाधिकार संगठनों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं (जैसे UNHRC, Amnesty International, Human Rights Watch) को विस्तृत रिपोर्ट भेजी जानी चाहिए ताकि दुनिया को असम में हो रहे इस ‘संवैधानिक नरसंहार’ की सच्चाई मालूम हो।
जिस तरह मणिपुर में सांप्रदायिक और जातीय आग को हवा दी गई थी, उसी रणनीति को अब असम में दोहराया जा रहा है। पहले पूर्वोत्तर को जलाया गया, अब असम की बारी है।
यदि आज असम के मुसलमानों की आवाज़ को हम अनसुना करेंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी चुप्पी इस देश की सबसे बड़ी कमजोरी बन जाएगी।