✍🏻 Z S Razzaqi | अंतरराष्ट्रीय विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार
भूमिका: वह देश जिसे तुर्कों की बहादुरी का प्रतीक माना गया था
टर्की… एक ऐसा देश, जिसका इतिहास बहादुर सिपाहियों, सल्तनतों और वीरता के किस्सों से भरा पड़ा है। तुर्कों की तलवारें कभी यूरोप की सीमाओं को कंपा देती थीं, तो कभी अरबों की ललकार को चुनौती देती थीं। हाल ही में कुछ वर्षों पूर्व, तुर्की में निर्मित ऐतिहासिक टीवी सीरीज़ 'Diriliş: Ertuğrul' (अर्थात 'एर्तुरुल गाज़ी') ने विश्व भर में धूम मचा दी थी। इसमें तुर्कों की वीरगाथाएं, इस्लामी मूल्यों की रक्षा और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष को glorify किया गया था।
लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि वह सब कुछ आज केवल एक टी.वी शो तक ही सीमित रह गया है। जमीनी सच्चाई में न तुर्कों की वही पुरानी जुर्रत दिखती है और न ही टर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यब एर्दोगान की बयानबाज़ी में कोई हकीकत नजर आती है।
एर्दोगान के धमकी भरे बयानों की हकीकत: क्या टर्की सिर्फ कैमरे के सामने बहादुर है?
ग़ाज़ा में जब भी इज़रायल ने मासूमों पर बमबारी की, टर्की के राष्ट्रपति एर्दोगान ने अक्सर मीडिया में जोशीले और धमकी भरे बयान दिए –
"इज़रायल को इसका अंजाम भुगतना पड़ेगा..."
"हम ग़ाज़ा के साथ हैं..."
"तुर्की चुप नहीं बैठेगा..."
इन बातों से ऐसा लगता था जैसे टर्की की सेनाएं सरहद पर तैनात हैं और अगले पल ही इज़रायल पर हमला बोल देंगी। लेकिन जब वास्तव में युद्ध की आग भड़की, जब ग़ाज़ा जल रहा था, जब बच्चों की लाशें खून में लथपथ सड़क पर पड़ी थीं – तब टर्की की बहादुरी और एर्दोगान की दहाड़ सिर्फ भाषणों तक ही सिमटकर रह गई।
ग़ाज़ा में नरसंहार और इस्लामी देशों की ख़ामोशी
2023 से लेकर अब तक (2025), ग़ाज़ा में इज़रायल द्वारा लगातार मानवाधिकारों का उल्लंघन किया गया है। बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों को निशाना बनाकर बमबारी की गई, जल, भोजन, बिजली और दवा तक बंद कर दी गई – यानी एक सुनियोजित नरसंहार।
हैरानी की बात यह है कि 50 से अधिक मुस्लिम बहुल देशों की इस्लामी दुनिया, जिनमें टर्की, सऊदी अरब, यूएई, मिस्र, पाकिस्तान और मलेशिया जैसे देश शामिल हैं – सिर्फ निंदा तक सीमित रहे। न कोई सेना आगे आई, न कोई सख़्त कूटनीतिक प्रतिबंध, और न ही इज़रायल की कंपनियों पर कोई व्यापारिक रोक।
टर्की की ग़द्दारी: एर्दोगान का दोहरा चरित्र
टर्की के भीतर, इज़रायल की कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां आज भी व्यापार कर रही हैं। एर्दोगान बार-बार बयान देते रहे कि "हम इज़रायल का बहिष्कार करेंगे", लेकिन वास्तव में न तो राजनयिक संबंध तोड़े गए, न व्यापारिक। यहाँ तक कि टर्की के कई बंदरगाहों से इज़रायल के जहाज़ बेरोक-टोक सामान लेकर जाते रहे।
क्या यही वह "सल्तनत" है, जिसका ख्वाब एर्तुरुल की सीरीज़ ने दिखाया था?
क्या यही है वह "ग़ाज़ियों की धरती", जहाँ से एक भी सैनिक ग़ाज़ा की मदद के लिए नहीं भेजा गया?
ईरान ने दिखाया साहस, भले ही अपने स्वार्थ के लिए
जब बात आती है इस्लामी दुनिया में किसी देश की, जिसने थोड़ी बहुत हिम्मत दिखाई, तो वह देश है – ईरान। शिया बहुल इस देश ने न केवल प्रत्यक्ष रूप से इज़रायल के विरुद्ध अपने लड़ाके भेजे, बल्कि कई बार जवाबी हमलों में भी शामिल हुआ। यह बात सच है कि ईरान के अपने हित हैं, और वह हिज़बुल्लाह व हूती जैसे संगठनों के माध्यम से परोक्ष लड़ाई लड़ता है, लेकिन फिर भी उसने "कुछ" किया।
बाकी देशों की तरह वह केवल ट्विटर और संयुक्त राष्ट्र में बयानों तक सीमित नहीं रहा।
यमन, लेबनान और हूती लड़ाकों की जुर्रत: छोटे लेकिन साहसी
लेबनान के हिज़्बुल्लाह और यमन के हूती लड़ाके, जिनके पास न अत्याधुनिक हथियार हैं, न बड़ी सेनाएं – उन्होंने अपने हिस्से की लड़ाई लड़ी। उन्होंने ग़ाज़ा के साथ खड़े होकर सीधे संघर्ष किया। यह वह जज़्बा है, जिसे इतिहास "गोल्डन वर्ड्स" में लिखेगा।
इन छोटे देशों ने बता दिया कि बहादुरी का ताल्लुक देश के आकार या सैनिक बजट से नहीं, बल्कि इरादे और ज़मीर से होता है।
निष्कर्ष: एर्तुरुल की गाथा और वर्तमान की ग़द्दारी का अंतर
"एर्तुरुल गाज़ी" की कहानियों में जो तुर्की दिखाई देता है – निडर, न्यायप्रिय और इस्लामी उसूलों पर चलने वाला – वह सिर्फ एक सीरियल है। वास्तविकता में टर्की, एर्दोगान की नेतृत्व में सिर्फ मंचीय बहादुरी तक सीमित रह गया है। इस्लामी दुनिया की सबसे बड़ी विफलता यह है कि वह आज भी ग़ाज़ा जैसे नरसंहार पर एकजुट नहीं हो सकी।
बच्चे मरते रहे, माँएं बिलखती रहीं, लेकिन तुर्की से लेकर सऊदी तक सभी "संपत्ति, कूटनीति और राजनैतिक संतुलन" को प्राथमिकता देते रहे।
इतिहास किसे याद रखेगा?
इतिहास उन्हें याद रखेगा –
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जो बोले नहीं, बल्कि लड़े।
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जो बयानों से नहीं, कर्मों से सामने आए।
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जो भले छोटे थे, पर साहसी थे।
और इतिहास यह भी याद रखेगा कि कैसे एक समय की "सल्तनत-ए-उस्मानिया" की विरासत को ढोता टर्की, अपने ही इस्लामी भाइयों के नरसंहार पर "गूंगा, बहरा और अंधा" बन गया।