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“सच” दिखाने की सज़ा: पत्रकार अजीत अंजुम पर FIR क्यों सवालों के घेरे में है चुनाव आयोग और प्रशासन?

                                  ✍🏻 Z S Razzaqi | अंतरराष्ट्रीय विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार  

भूमिका: जब पत्रकारिता कटघरे में नहीं, सत्ता की नीयत सवालों में हो

भारतीय लोकतंत्र का चौथा स्तंभ – मीडिया – जब सत्ता की खामियों को बेनकाब करता है, तो उसे दबाने के लिए सत्ता तंत्र अक्सर ‘कानून’ का सहारा लेता है। वरिष्ठ पत्रकार अजीत अंजुम पर दर्ज हुई एफआईआर इसी सिलसिले की अगली कड़ी है।

बिहार के बेगूसराय ज़िले में मतदाता सूची में कथित धांधली को उजागर करने की कोशिश करने वाले पत्रकार को “भ्रामक जानकारी फैलाने” और “सांप्रदायिक भावनाएं भड़काने” के आरोप में अपराधी की तरह पेश किया जा रहा है।



क्या है पूरा मामला?

12 जुलाई को अजीत अंजुम ने अपने यूट्यूब चैनल पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने साहेबपुर कमाल विधानसभा क्षेत्र के विशेष मतदाता पुनरीक्षण अभियान (SIR) में गंभीर अनियमितताओं और धांधली के आरोप लगाए।

उनका दावा था कि एक खास वर्ग (संभवत: मुस्लिम मतदाता) को सुनियोजित ढंग से वोटर लिस्ट से हटाया जा रहा है और यह सारा खेल सत्तारूढ़ दल के हित में हो रहा है।

इसके बाद 13 जुलाई को बीएलओ मोहम्मद अंसारुल हक़ की शिकायत पर अजीत अंजुम और उनके साथियों पर एफआईआर दर्ज की गई।


प्रशासन का पक्ष: “जनभावनाएं भड़काने” का आरोप

बिहार प्रशासन ने कहा कि अजीत अंजुम ने –

  • एक विशेष समुदाय को चिन्हित कर उनके निजी दस्तावेज सार्वजनिक किए,

  • समाज में विद्वेष और भेदभाव फैलाने की कोशिश की,

  • एक घंटे तक सरकारी कार्य को बाधित किया।

प्रशासन ने ये भी कहा कि बलिया क्षेत्र में यदि कोई अप्रिय घटना होती है, तो उसकी जिम्मेदारी अजीत अंजुम और उनकी टीम की होगी।


पत्रकार का जवाब: “डराने और चुप कराने की कोशिश”

अजीत अंजुम ने जवाब में लिखा:

“बेगूसराय के एक बीएलओ पर दबाव डालकर मुझ पर FIR कराई गई। एक मुस्लिम बीएलओ को मोहरा बनाया गया। प्रशासन जवाब देने के बजाय डराने की कोशिश कर रहा है। डरूंगा नहीं, सुप्रीम कोर्ट तक लड़ूंगा।”

उन्होंने जनता से अपील करते हुए कहा कि वीडियो को देखें और खुद तय करें कि उसमें ऐसा क्या है जो सांप्रदायिकता फैलाने वाला हो।


सवाल जो जनता पूछ रही है:

  1. क्या पत्रकार को सवाल पूछने की सज़ा दी जा रही है?
    क्या सिर्फ इस वजह से एफआईआर की गई कि उन्होंने चुनाव आयोग और प्रशासन की कार्यशैली पर सवाल उठाए?

  2. क्या बीएलओ की शिकायत स्वतः थी या दबाव में की गई?
    खुद अजीत अंजुम का दावा है कि उस बीएलओ पर दबाव डालकर यह शिकायत कराई गई। यह बेहद गंभीर आरोप है, जो प्रशासनिक प्रक्रिया की निष्पक्षता को कठघरे में खड़ा करता है।

  3. क्या लोकतंत्र में सवाल पूछना अपराध है?
    अगर कोई पत्रकार वोटर लिस्ट में गड़बड़ियों की पड़ताल करता है और वीडियो बनाता है, तो क्या यह ‘जनभावनाएं भड़काना’ कहलाता है?


चुनाव आयोग की चुप्पी: मौन स्वीकृति या संस्थागत पक्षपात?

भारतीय चुनाव आयोग की लगातार आलोचना होती रही है कि वह सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में झुक चुका है।

इस मामले में भी आयोग ने कोई स्पष्ट टिप्पणी नहीं दी। यह चुप्पी कई मायनों में संस्थागत निष्पक्षता पर संदेह खड़ा करती है।


बिहार का संदर्भ: मतदाता सूची और मुस्लिम मतदाता

बिहार के कई जिलों में मुस्लिम बहुल इलाकों में मतदाता सूची से नाम गायब होने की शिकायतें समय-समय पर आती रही हैं।

अजीत अंजुम ने इन्हीं तथ्यों की पड़ताल की कोशिश की थी। अगर प्रशासन इसे ‘सांप्रदायिकता’ बता रहा है, तो क्या इसका अर्थ ये है कि संवेदनशील सवाल पूछना ही सांप्रदायिक हो गया?


विचार: क्या लोकतंत्र अब इतना कमजोर हो गया है?

पत्रकारिता का दायित्व है – सत्ता से सवाल पूछना, जनता के हक़ की लड़ाई लड़ना और लोकतंत्र की निगरानी करना।

अगर ऐसा करने पर पत्रकारों पर एफआईआर होती है, उन्हें धमकाया जाता है, तो यह संकेत है कि भारत में लोकतंत्र सिर्फ काग़ज़ों में रह गया है, ज़मीन पर नहीं।


निष्कर्ष: एक एफआईआर नहीं, एक चेतावनी

यह एफआईआर सिर्फ अजीत अंजुम पर नहीं है – यह चेतावनी है हर उस पत्रकार के लिए जो सत्ता से सवाल पूछता है, जो सच्चाई दिखाने की हिम्मत रखता है।

इस मामले में सिविल सोसायटी, स्वतंत्र पत्रकारों, और आम जनता को चुप नहीं बैठना चाहिए। अगर आज अजीत अंजुम को चुप कराया गया, तो कल सच कहने का अधिकार हम सभी से छिन सकता है।

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