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बिहार में मतदाता सूची संशोधन पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई: क्या यह लोकतंत्र की मजबूती है या वंचितों की अनदेखी?

  कविता शर्मा  | पत्रकार

बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision - SIR) पर सुप्रीम कोर्ट में आज बहस हो रही है। देश की शीर्ष अदालत यह तय करेगी कि चुनाव आयोग द्वारा 24 जून को शुरू की गई यह प्रक्रिया वोटिंग अधिकार की रक्षा है या लाखों मतदाताओं को सूचि से बाहर करने की रणनीति


🔷 सुप्रीम कोर्ट की बेंच और याचिकाएँ

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और जॉयमाल्य बागची की दो-न्यायाधीशीय पीठ 10 जुलाई को इस मामले में सुनवाई कर रही है, जिसमें अब तक 10 से अधिक याचिकाएँ दायर की जा चुकी हैं — इनमें विपक्षी नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, वकील और नागरिक अधिकार संगठन शामिल हैं।

शामिल याचिकाकर्ता:

  • महुआ मोइत्रा (टीएमसी सांसद)

  • के.सी. वेणुगोपाल (कांग्रेस)

  • मनोज झा (राजद सांसद)

  • योगेंद्र यादव (सामाजिक कार्यकर्ता)

  • अर्शद अजमल, ADR, PUCL

इन सभी ने SIR की प्रक्रिया को तत्काल रोकने की मांग की है।


🔷 याचिकाकर्ताओं के मुख्य तर्क: मतदाता को ही दोषी क्यों?

याचिकाओं में कहा गया है कि:

  • यह प्रक्रिया दलितों, मुसलमानों, प्रवासी मजदूरों और गरीबों को disproportionately target कर रही है।

  • 25 जुलाई तक जो लोग फॉर्म नहीं भर पाएंगे, उनके नाम 1 अगस्त को आने वाली ड्राफ्ट मतदाता सूची में नहीं होंगे।

  • इससे लाखों लोग मतदाता सूची से बाहर हो सकते हैं—वो भी बिना सुनवाई या अपील के अधिकार के।

  • यह प्रक्रिया Representation of the People Act, 1950 और Electors Rules, 1960 के नियमों का स्पष्ट उल्लंघन है।

  • मतदाता को अपनी नागरिकता सिद्ध करनी पड़ रही है, जबकि यह जिम्मेदारी राज्य की है।


🔷 लॉजिकल सवाल: क्या भारत में वोट देना अब प्रमाणपत्र आधारित विशेषाधिकार बन गया है?

भारत का संविधान वयस्क मताधिकार (Universal Adult Franchise) को मौलिक लोकतांत्रिक अधिकार मानता है। परंतु अगर कोई नागरिक — चाहे वह प्रवासी मजदूर हो, महिला हो, या शहरी झुग्गी निवासी — अगर उसके पास पर्याप्त दस्तावेज़ नहीं हैं, तो क्या वह 'ग़ैर मतदाता' मान लिया जाएगा?

क्या राज्य की ज़िम्मेदारी अब नागरिक पर डाल दी गई है?


🔷 वोटर्स की तरफ़ से यह लड़ाई क्यों जायज़ है?

  • 87% लोगों को फॉर्म बाँटे जाने का दावा है, लेकिन क्या उन्हें समझाया गया कि न भरने का परिणाम क्या होगा?

  • बिहार में लाखों ऐसे नागरिक हैं जिनके पास स्थायी पता या दस्तावेज़ नहीं हैं, जैसे दिहाड़ी मजदूर, असंगठित क्षेत्र के श्रमिक, सीमांत किसान, आदिवासी और नवनिर्मित झुग्गियों के निवासी।

  • यह प्रक्रिया उनके लिए एक अदृश्य दरवाज़ा बंद कर रही है, जो उन्हें लोकतंत्र के भीतर बनाए रखने के लिए ज़रूरी था।


🔷 याचिकाओं के समर्थन में जनता की भावना

याचिकाकर्ताओं का कहना है कि:

“यह प्रक्रिया ऐसे समय शुरू की गई है जब बिहार चुनाव सिर पर है, और यह सरकार द्वारा 'साइलेंट डिसइनफ्रैंचाइज़मेंट' (चुपचाप वोटर हटाने) की रणनीति का हिस्सा हो सकती है।”


🔷 चुनाव आयोग का क्या पक्ष है?

  • ECI का कहना है कि SIR एक "नियमित प्रक्रिया" है और इससे मतदाता सूची को शुद्ध और अद्यतन बनाया जा रहा है।

  • 87% फॉर्म वितरित किए जा चुके हैं।

  • आयोग के अनुसार, यह प्रक्रिया सभी नागरिकों के लिए समान है।

परंतु, क्या “समान प्रक्रिया” समान परिस्थितियों में लागू हो रही है? यही सवाल मूल है।


🔷 SIR के पक्ष में याचिका: सुरक्षा बनाम अधिकार

अश्विनी कुमार उपाध्याय ने SIR के पक्ष में याचिका दायर की है, जिसमें कहा गया:

"देश की जनसांख्यिकी में बदलाव अवैध घुसपैठ, मतांतरण और जनसंख्या वृद्धि के कारण आया है। ऐसे में केवल वास्तविक नागरिकों को ही वोट डालने देना चाहिए।"

उनकी यह दलील राष्ट्रवाद और सुरक्षा के आधार पर है। परंतु, क्या इस विचारधारा में नागरिकों की सामाजिक असलियतें जगह पा रही हैं?


🔷 निष्कर्ष: क्या दस्तावेज़ लोकतंत्र का नया आधार हैं?

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट जो भी फैसला देगा, उसका असर केवल बिहार नहीं, पूरे भारत के चुनावी और लोकतांत्रिक ताने-बाने पर पड़ेगा।

यह प्रश्न सिर्फ़ क़ानूनी नहीं है:

यह तय करेगा कि क्या भारत में वोट देना सबका अधिकार है या काग़ज़ों से तय होने वाला विशेषाधिकार?
क्या ग़रीबी, प्रवास या सामाजिक पिछड़ापन अब मतदाता बनने की बाधा बन गया है?
क्या चुनाव आयोग और राज्य सरकार वोटर के पक्ष में खड़े हैं या उससे काग़ज़ी युद्ध लड़वा रहे हैं?

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