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प्रो. पाउलो के सवालों की गंभीरता और भारत की विदेश नीति की असहज सच्चाई

  ✍🏻 Z S Razzaqi | अंतरराष्ट्रीय विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार  

🔷 प्रस्तावना: सवाल तीखे हैं, पर क्या ग़लत हैं?

ब्राज़ील के मशहूर अर्थशास्त्री और ब्रिक्स न्यू डेवलपमेंट बैंक के पूर्व वाइस प्रेसिडेंट प्रोफेसर पाउलो नोगिरो बातिस्ता ने भारत की विदेश नीति को लेकर जो सवाल उठाए हैं, वे भावनात्मक प्रतिक्रियाओं से ज़्यादा तथ्यों और परिस्थितियों पर आधारित विश्लेषण हैं। उन्होंने सीधे कहा:

“भारत ब्रिक्स के भीतर ट्रोजन हॉर्स है। मोदी सरकार इज़राइल जैसे युद्धरत देश का खुला समर्थन कैसे कर सकती है?”


यह बयान सोशल मीडिया पर भले ही सनसनी बना हो, लेकिन इससे ज़्यादा ज़रूरी यह है कि इन सवालों के पार्श्व में छिपी सच्चाइयों पर गौर किया जाए। क्या भारत वाकई अमेरिकी हितों के दबाव में ब्रिक्स को भीतर से कमजोर कर रहा है? क्या भारत की विदेश नीति अवसरवादी हो चली है?

इन सवालों को देशभक्ति या आक्रोश के तराजू पर नहीं, तथ्यों और कूटनीतिक यथार्थ के आधार पर तौलने की ज़रूरत है।


🔷 पहला सवाल: इज़राइल जैसे राष्ट्र के साथ भारत की गाढ़ी दोस्ती – क्या वाजिब है?

प्रो. पाउलो का सबसे मुखर प्रश्न था कि जब ग़ज़ा में खुलेआम बमबारी और नागरिक हत्याएँ हो रही हैं, तब भारत इज़राइल की राजनीतिक, सैन्य और कूटनीतिक तौर पर कैसे खुलकर हिमायत कर सकता है?

यह सवाल सिर्फ ब्रिक्स के संदर्भ में नहीं, भारत की नैतिक वैधता और मानवीय दृष्टिकोण पर भी प्रहार करता है।

🔹 भारत की स्थिति:

भारत हमेशा से "आतंकवाद के ख़िलाफ़ सख़्ती" और "मानवीयता के प्रति सहानुभूति" की दो नावों पर सवार रहा है।

  • भारत ग़ज़ा की स्थिति पर ब्रिक्स में हल्की-सी निंदा तो करता है,

  • लेकिन एससीओ जैसे मंचों पर इज़राइल की आलोचना से बचता है।

क्या यह स्पष्ट नीति है? या कूटनीतिक दुविधा? यही पाउलो का मूल बिंदु है — और यह सवाल पूरी तरह तार्किक है।


🔷 दूसरा सवाल: क्या भारत ब्रिक्स में एक “अमेरिकी एजेंट” की तरह कार्य कर रहा है?

ट्रोजन हॉर्स की उपमा यूँ ही नहीं दी गई। ब्रिक्स, जहां डॉलर के प्रभुत्व को चुनौती देने की बात हो रही है, वहां भारत ने स्पष्ट किया कि वह साझा मुद्रा का पक्षधर नहीं है

🔹 भारत की स्थिति:

  • भारत चीन की युआन प्रधानता से असहज है।

  • अमेरिका से भारत को रक्षा, तकनीक और खुफिया सहयोग मिल रहा है।

  • लेकिन अमेरिका जब ब्रिक्स पर 10% टैरिफ की धमकी देता है, तो भारत खुलकर विरोध भी नहीं करता।

क्या यह द्वैध नीति नहीं है? क्या यह ब्रिक्स की भावना के साथ छल नहीं है?
प्रो. पाउलो का यह प्रश्न किसी भी रणनीतिक विश्लेषक को असहज कर सकता है।


🔷 तीसरा सवाल: भारत जब क्वॉड और ब्रिक्स दोनों में है, तो उसकी प्राथमिकता क्या है?

क्वॉड को चीन विरोधी गुट माना जाता है, और ब्रिक्स में चीन केंद्रीय भूमिका में है। ऐसे में एक ही समय में दोनों गुटों में बने रहना भारत की सामर्थ्य है या रणनीतिक अस्थिरता?

🔹 भारत की स्थिति:

भारत इसे “मल्टी-एलाइंमेंट” कहता है — यानी जहाँ-जहाँ ज़रूरत, वहाँ-वहाँ रिश्ते।
परंतु क्या ये रिश्ते टिकाऊ हैं? क्या भारत किसी भी गुट में विश्वसनीय भागीदार की तरह दिख रहा है?

ब्रिक्स के बयान में भारत का समर्थन तब आता है जब उसमें पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का भी उल्लेख हो। लेकिन एससीओ में जब ऐसा नहीं होता, भारत किनारा कर लेता है।

यह व्यवहार दिखावटी सहमति का उदाहरण बन सकता है।


🔷 चौथा सवाल: क्या भारत केवल “अपना हित” देख रहा है?

भारत के पूर्व राजदूत जावेद अशरफ़ और विशेषज्ञ डॉ. अपराजिता पांडे दोनों इस बात पर ज़ोर देते हैं कि:

“भारत न अमेरिका का पिछलग्गू है, न चीन का। भारत की विदेश नीति सिर्फ़ अपने हितों के अनुसार चलती है।”

यह तर्क अपने आप में प्रैक्टिकल और यथार्थवादी है, लेकिन जब आप ब्रिक्स जैसे साझे आदर्शों वाले मंच पर होते हैं, तो सिर्फ़ अपना हित देखने की नीति विश्वसनीयता पर सवाल खड़े कर सकती है।


🔷 आखिरी सवाल: क्या भारत अमेरिका के ‘प्रोजेक्ट सुपरपावर’ का हिस्सा है?

थिंक टैंक कार्नेगी के विश्लेषक एश्ली जे टेलिस ने स्पष्ट किया है कि अमेरिका भारत को एक वैश्विक शक्ति के रूप में विकसित करना चाहता रहा है:

  • परमाणु समझौता, रक्षा सहयोग, तकनीकी ट्रांसफर आदि इसके उदाहरण हैं।

  • लेकिन वह यह भी कहते हैं कि भारत की “महारणनीति” अमेरिका की उम्मीदों को लगातार झटका देती रही है।

यानी अमेरिका को भी भारत पर वही संदेह है जो पाउलो ने ब्रिक्स में जताया — कि भारत किसी का नहीं, केवल अपना है।


🔷 निष्कर्ष: सवाल कड़वे हैं, पर ज़रूरी हैं

प्रोफेसर पाउलो का भारत को "ट्रोजन हॉर्स" कहना भले ही राजनयिक दृष्टिकोण से अतिशय प्रतीत हो, लेकिन उनके उठाए गए सवाल किसी भी राष्ट्र को आत्मविश्लेषण के लिए बाध्य कर सकते हैं।

भारत की विदेश नीति अगर वास्तव में “सिर्फ़ अपने हित” तक सीमित है, तो उसे विश्व मंचों पर स्पष्ट और स्थिर नीतियों के साथ सामने आना होगा, नहीं तो ‘दो नावों’ की यह कूटनीति न ब्रिक्स को मजबूत करेगी, न क्वॉड में सम्मान दिलाएगी।


📝 अंतिम पंक्तियाँ

भारत की विदेश नीति आज न तो आदर्शवाद पर खड़ी है, न ही शुद्ध यथार्थ पर। यह एक असहज संतुलन का नाम है।
ऐसे में प्रो. पाउलो के उठाए गए सवाल हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं —

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