✍🏻 Z S Razzaqi |वरिष्ठ पत्रकार
नई दिल्ली | सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को बिहार में आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र चल रही विशेष तीव्र पुनरीक्षण प्रक्रिया (Special Intensive Revision - SIR) के संबंध में चुनाव आयोग (ECI) से आग्रह किया कि आधार कार्ड, राशन कार्ड और EPIC (मतदाता पहचान पत्र) को मतदाता पहचान के वैध दस्तावेजों के रूप में स्वीकार करने पर विचार किया जाए।
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति जॉयमाल्य बागची की खंडपीठ ने SIR प्रक्रिया पर रोक लगाने से इनकार किया, लेकिन आयोग से बार-बार यह पूछा कि जब आधार को कई जगहों पर कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त है, तो उसे पहचान प्रमाण के रूप में क्यों नहीं स्वीकार किया जा रहा?
अंततः सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रक्रिया पर कोई अंतरिम रोक नहीं लगाई, लेकिन स्पष्ट किया कि यदि ECI आधार, राशन कार्ड और EPIC को वैध दस्तावेज़ों की सूची में शामिल नहीं करता है, तो उसे इसके पीछे का उचित कारण प्रस्तुत करना होगा।
🧾 सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी:
"चुनाव आयोग ने हमें बताया है कि मतदाता सत्यापन के लिए 11 दस्तावेज़ों की सूची है, जो अंतिम नहीं है। न्याय के हित में यह उचित होगा कि आधार कार्ड, EPIC कार्ड और राशन कार्ड को इस सूची में शामिल किया जाए। हालांकि अंतिम निर्णय चुनाव आयोग का होगा, लेकिन यदि वह इन दस्तावेज़ों को शामिल नहीं करता है, तो उसे उसका कारण बताना होगा।"
🔍 पृष्ठभूमि:
24 जून 2025 को चुनाव आयोग ने बिहार में विशेष तीव्र पुनरीक्षण (SIR) की घोषणा की थी, जिसमें 2003 की मतदाता सूची में दर्ज न होने वाले मतदाताओं को नागरिकता प्रमाण के रूप में दस्तावेज प्रस्तुत करने को कहा गया। दिसंबर 2004 के बाद जन्मे व्यक्तियों को माता-पिता के नागरिकता दस्तावेज भी देने होंगे। यदि कोई माता-पिता विदेशी नागरिक हैं, तो उनके पासपोर्ट और वीजा की प्रति भी अनिवार्य है।
इस आदेश को चुनौती देते हुए कई राजनीतिक दलों और गैर सरकारी संगठनों (NGOs) ने सुप्रीम कोर्ट में याचिकाएं दाखिल कीं। प्रमुख याचिकाकर्ताओं में Association for Democratic Reforms (ADR), महुआ मोइत्रा, मनोज झा, योगेन्द्र यादव, सुप्रिया सुले, केसी वेणुगोपाल, डी. राजा और अन्य नेता शामिल हैं।
⚖️ याचिकाकर्ताओं की आपत्तियाँ:
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यह आदेश अत्यधिक कठोर और गरीब, ग्रामीण और अनपढ़ मतदाताओं के लिए अव्यावहारिक है, जो अक्सर पर्याप्त दस्तावेज़ नहीं रखते।
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आदेश संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21, 325 और 326 का उल्लंघन करता है।
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यह Representation of the People Act, 1950 की भावना के खिलाफ है।
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मतदाता सूची का पुनरीक्षण केवल विशेष कारणों के आधार पर ही किया जा सकता है, जिसकी इस आदेश में कोई स्पष्टता नहीं है।
🧑⚖️ सुनवाई के दौरान कोर्ट की प्रमुख टिप्पणियाँ:
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"यह पूरी प्रक्रिया पहचान को लेकर है, तो फिर आधार को क्यों नहीं माना जा रहा?" – न्यायमूर्ति बागची
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"मैं खुद भी इतने दस्तावेज़ इतने कम समय में नहीं दिखा सकता।" – न्यायमूर्ति धूलिया
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"अगर मैं जाति प्रमाण पत्र के लिए आधार दिखा सकता हूं, तो यह दस्तावेज़ यहां मान्य क्यों नहीं?" – पीठ का सवाल
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"यह केवल मतदाता सूची का मुद्दा नहीं, बल्कि लोकतंत्र की जड़ से जुड़ा मामला है।"
🧾 तीन मुख्य प्रश्न जो कोर्ट ने तय किए:
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ECI की शक्तियाँ – क्या आयोग को यह प्रक्रिया संचालित करने का अधिकार है?
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प्रक्रिया – इस अधिकार को लागू करने की प्रक्रिया कैसी होनी चाहिए?
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समयसीमा – क्या चुनाव से ठीक पहले यह प्रक्रिया उचित है?
🧑⚖️ याचिकाकर्ताओं के तर्क:
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वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल: "ECI को यह तय करने का कोई अधिकार नहीं है कि कौन नागरिक है और कौन नहीं। यह कार्य नागरिकता प्राधिकरण का है, न कि चुनाव आयोग का।"
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अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी: "यह पूरी प्रक्रिया एक छलावा है, जिसका उद्देश्य लाखों मतदाताओं को मताधिकार से वंचित करना है।"
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गोपाल शंकरनारायणन: "2003 को आधार बनाना मनमाना और भेदभावपूर्ण है। जो लोग उसमें नहीं थे, उनके लिए माता-पिता के दस्तावेज़ मांगना अवैधानिक है।"
🧾 चुनाव आयोग का पक्ष:
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वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी: "हमारा उद्देश्य नागरिकों और गैर-नागरिकों में अंतर करना है ताकि केवल पात्र मतदाता ही सूची में रहें।"
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"हम किसी धर्म, जाति या वर्ग के आधार पर भेदभाव नहीं करते। सभी नागरिकों को मतदाता बनने का समान अधिकार है।"
🔚 अगली सुनवाई की तिथि:
28 जुलाई 2025 को इस मामले की अगली सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में होगी, और उससे पहले ECI को 21 जुलाई तक अपना जवाब दाखिल करना है।
🔎 निष्कर्ष:-
बिहार में मतदाता सूची की विशेष समीक्षा को लेकर उठे विवाद ने चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता, नागरिकता की परिभाषा और आधार जैसे पहचान दस्तावेज़ों की वैधता पर गहन सवाल खड़े किए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कोई सीधी रोक नहीं लगाई है, लेकिन यह स्पष्ट कर दिया है कि ECI को अपनी प्रक्रिया और फैसलों को तार्किक और पारदर्शी तरीके से स्पष्ट करना होगा। आने वाले दिनों में यह मामला भारतीय लोकतंत्र और मतदाता अधिकारों को लेकर एक मील का पत्थर साबित हो सकता है।
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