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2008 मालेगांव ब्लास्ट केस: 17 साल बाद सभी आरोपी बरी, क्या यह न्याय है या देरी से हुआ अन्याय?


प्रकाशन तिथि: 31 जुलाई 2025 ✍🏻 Z S Razzaqi | वरिष्ठ पत्रकार  

“इंसाफ में देरी भी अन्याय है। और जब इंसाफ पूरी तरह न मिले, तो वह समाज के लिए सबसे घातक ज़हर बन जाता है। यही वह ज़हर है जो नागरिकों के मन में असंतोष, अविश्वास और विद्रोह की भावना भरता है।”

🔹 मालेगांव धमाका: एक संक्षिप्त पृष्ठभूमि

29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के मालेगांव शहर में एक भीषण धमाका हुआ, जिसमें 10 लोगों की जान चली गई और 100 से ज्यादा लोग घायल हुए। इस बम विस्फोट ने न सिर्फ स्थानीय आबादी को झकझोर दिया, बल्कि पूरे देश में धार्मिक तनाव और सियासी बहसों को जन्म दिया।

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धमाके के बाद मोटरसाइकिल में बम लगाने की बात सामने आई, और प्रारंभिक जांच में इसके तार हिंदू दक्षिणपंथी संगठनों से जोड़े गए। इसी के तहत प्रज्ञा सिंह ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित, और पांच अन्य लोगों को आरोपी बनाया गया।


🔹 आरोपियों के खिलाफ जांच की पूरी समयरेखा

वर्षमहत्वपूर्ण घटनाक्रम
2008मालेगांव में धमाका, ATS ने केस दर्ज किया
2009पहली चार्जशीट दाखिल, MCOCA की धाराएं जोड़ी गईं
2011गृह मंत्रालय ने जांच NIA को सौंपी
2016NIA ने दूसरी चार्जशीट में MCOCA हटाया
2017अदालत ने UAPA समेत IPC की धाराओं के तहत आरोप तय किए
202531 जुलाई को विशेष अदालत ने सभी आरोपियों को बरी किया

🔹 कोर्ट के फैसले में क्या कहा गया?

मुंबई स्थित विशेष एनआईए कोर्ट के न्यायाधीश ए.के. लाहोटी ने अपने फैसले में स्पष्ट कहा कि अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने में असफल रहा।

फैसले की मुख्य बातें:

  • प्रज्ञा ठाकुर जिस मोटरसाइकिल से धमाका हुआ, उसका उनसे कोई सबंध साबित नहीं हुआ।

  • लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित के द्वारा RDX लाने या बम बनाने का कोई सबूत अदालत को नहीं मिला।

  • यह साबित नहीं हुआ कि अभिनव भारत संगठन ने अपने फंड का उपयोग इस धमाके में किया।

  • UAPA जैसे सख्त कानूनों की धाराएं इस केस पर लागू नहीं होतीं।

कोर्ट ने विशेष रूप से यह कहा कि प्रज्ञा ठाकुर धमाके से दो वर्ष पूर्व ही संन्यास ले चुकी थीं, और वे सांसारिक गतिविधियों से विरक्त हो चुकी थीं। अतः उनके खिलाफ षड्यंत्र में शामिल होने का आरोप कमजोर पड़ता है।


🔹 17 साल लंबा इंतजार: क्या यह न्याय है?

17 वर्षों तक मुकदमे झेलने के बाद सभी आरोपी बरी हो गए, लेकिन सवाल अब भी हवा में तैर रहा है –
क्या न्याय में इतनी देरी खुद अन्याय नहीं है?

“Justice delayed is justice denied.”
"देर से मिला इंसाफ, इंसाफ के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा करता है।"

अगर आरोपी निर्दोष थे, तो क्या उन्हें 17 सालों तक जेलों, मानसिक तनाव और सामाजिक बहिष्कार की यातना से गुजरना चाहिए था?
और यदि वे दोषी होते, तो क्या यह देरी न्याय व्यवस्था की विफलता नहीं मानी जाती?


🔹 पीड़ितों और समाज के लिए क्या मायने रखता है यह फैसला?

धमाके में मारे गए 10 निर्दोष नागरिकों के परिजनों को आज भी न तो पूरी सच्चाई का पता चला और न ही उन्हें संतोषजनक न्याय मिला।
वहीं, आरोपी पक्ष का तर्क है कि उन्हें राजनीतिक कारणों से फंसाया गया था, और अब अदालत के फैसले से उनकी सम्मान की पुनर्प्राप्ति हुई है।

परंतु इस पूरे घटनाक्रम से आम नागरिकों के मन में जो सबसे बड़ी चिंता है, वह यह है:

क्या हमारी जांच एजेंसियाँ और न्याय प्रणाली स्वतंत्र और निष्पक्ष हैं?


🔹 क्या राजनीतिक और वैचारिक पहचान न्याय में हस्तक्षेप करती है?

इस केस के दौरान बार-बार आरोप लगे कि इस केस में कुछ राजनीतिक चेहरों को बदनाम करने के लिए तथ्यों को तोड़ा-मरोड़ा गया। कई गवाहों ने अदालत में यह भी कहा कि उनसे दबाव डालकर नाम लिए गए

यह एक गंभीर प्रश्न है कि क्या भारत की आतंकवाद निरोधक जांच एजेंसियाँ भी राजनीतिक एजेंडे के शिकार हो सकती हैं?



🔹 निष्कर्ष: न्याय या नाइंसाफी का चक्र?
2008 से 2025 तक चले इस मुकदमे ने भारतीय न्याय व्यवस्था के तीन मूल स्तंभों पर गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं:

जांच एजेंसियों की निष्पक्षता
न्याय प्रक्रिया की गति और पारदर्शिता
समाज और पीड़ितों का विश्वास
समय पर मिला न्याय लोकतंत्र की नींव है।
यदि निर्दोष को 17 सालों तक मानसिक और सामाजिक यातना दी जाए, तो वह भी अपराध जैसा ही है।
और यदि अपराधी साक्ष्यों के अभाव में छूट जाएं, तो यह समाज के लिए और भी घातक है।

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