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कर्बला के शहीद: इमाम हुसैन, हसन और इस्लाम के लिए दी गई अमर कुर्बानियों की दास्तान

✍🏻 Z S Razzaqi | अंतरराष्ट्रीय विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार   

 प्रस्तावना: क्यों कर्बला की कुर्बानी आज भी ज़िंदा है

इस्लामी इतिहास में कर्बला की घटना एक ऐसा लम्हा है जिसे सिर्फ एक युद्ध या एक दर्दनाक घटना कहकर नहीं समझा जा सकता। यह इंसाफ, इबादत, सच्चाई और ज़ालिम हुकूमत के खिलाफ खड़े होने की सबसे बुलंद मिसाल है। इमाम हुसैन (रज़ि.) और उनके साथियों की कुर्बानी ने इस्लाम को वह रूहानी ताक़त दी जिसने उसे हर दौर में ज़िंदा और स्थिर बनाए रखा। यह लेख उस ऐतिहासिक घटनाक्रम और उन महान हस्तियों पर केंद्रित है जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर इंसानियत, इस्लाम और उसूलों की हिफाज़त की।



हजरत अली और फातिमा ज़हरा के दो जन्नती फूल: इमाम हसन और इमाम हुसैन

हज़रत अली (अ.स.) और हज़रत फातिमा (स.अ.) के दो बेटे – इमाम हसन और इमाम हुसैन – नबी-ए-पाक हज़रत मोहम्मद ﷺ के नवासे थे। इन्हें नबी ﷺ ने 'जन्नत के सरदार' कहा। इमाम हसन (अ.स.) ने अपने दौर में अमन और सुलह का रास्ता चुना ताकि मुस्लिम उम्मत को फूट और फसाद से बचाया जा सके, जबकि इमाम हुसैन (अ.स.) ने अन्याय और ज़ालिम यज़ीद की खिलाफत के लिए कर्बला का रास्ता चुना।


खिलाफत से बादशाहत तक: यज़ीद का उत्थान और हुसैनी इनकार

जब हज़रत मुआविया की मौत के बाद यज़ीद गद्दी पर बैठा, तो उसने अपनी हुकूमत को खिलाफत के नाम पर एक वंशवादी बादशाहत बना दिया। यज़ीद का शासन शराब, फसाद, और बेदीन रवैये से भरा हुआ था। उसने तमाम इस्लामी उसूलों की तौहीन की। ऐसे माहौल में इमाम हुसैन से उसकी बैअत (वफादारी की कसम) लेना दरअसल इस्लाम को गिरवी रखने जैसा था।

इमाम हुसैन ने साफ तौर पर कहा:

"मुझ जैसा कोई, यज़ीद जैसे की बैअत नहीं कर सकता।"

यह इनकार सिर्फ एक शख्स का नहीं, बल्कि हक़ और बातिल के बीच एक ऐलान-ए-जंग था।


मदीना से मक्का और फिर कर्बला की ओर सफर

यज़ीद के दवाब और खतरे के कारण इमाम हुसैन ने मदीना छोड़ा और मक्का की ओर रुख किया। मक्का में भी जब खतरा बढ़ा, तो उन्होंने कूफा के मुसलमानों के निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। लेकिन यह दावत धोखे में तब्दील हो गई, और इमाम हुसैन को अपने परिवार और चंद वफादारों के साथ कर्बला के तपते रेगिस्तान में रोक दिया गया।


कर्बला: इंसानियत की सबसे बड़ी कुर्बानी का मैदान

10 मुहर्रम 61 हिजरी: वह तारीख जो रूह को झकझोर देती है

कर्बला में इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों ने तीन दिन की प्यास और भूख के बावजूद यज़ीद की 30,000 फौज के सामने सर झुकाने से इनकार किया। 10 मुहर्रम को एक-एक कर इमाम हुसैन के बेटे अली अकबर, भाई अब्बास, भतीजे क़ासिम, और अंत में खुद इमाम हुसैन शहीद कर दिए गए।

हज़रत अब्बास (अलमदार): वफ़ादारी का अलामत

अब्बास इब्ने अली, जिन्हें 'अलमदार' कहा जाता है, इमाम हुसैन के सबसे बहादुर और वफादार भाई थे। उन्होंने फरात नदी से पानी लाने की कोशिश में दोनों हाथ गँवा दिए, लेकिन अलम नहीं गिराया। उनकी शहादत वफ़ा और बहादुरी की मिसाल बन गई।


इमाम हुसैन की आख़िरी नमाज़ और शहादत

जब 10 मुहर्रम का दिन ढल रहा था, इमाम हुसैन ने अल्लाह के सामने आख़िरी नमाज़ अदा की। उन्होंने अपनी तलवार को ज़मीन पर रखा, सज्दा किया, और यज़ीदी फौज ने उन्हें बेरहमी से शहीद कर दिया। उनका सिर काट कर यज़ीद के दरबार में भेजा गया, लेकिन यह सिर झुका नहीं – बल्कि पूरी इंसानियत के लिए उठ खड़ा हुआ।


कर्बला की औरतें: सब्र, इज्जत और आवाज़ की मिसाल

बीबी ज़ैनब: कर्बला के बाद की क्रांति की अगुवा

इमाम हुसैन की बहन ज़ैनब बिन्त अली, जिन्होंने कर्बला के बाद बंदी होकर भी यज़ीद के दरबार में हिम्मत से इस्लाम की सच्चाई और यज़ीद की फरेबी हुकूमत को उजागर किया। उनका यह ऐतिहासिक बयान आज भी ज़ालिम सत्ता के सामने सच्चाई की आवाज़ बनकर गूंजता है।


कर्बला का पैग़ाम: हर युग के लिए एक जिंदा संदेश

  • इंसाफ की राह पर चलने का साहस

  • ज़ुल्म के सामने झुकने से इनकार

  • सच्चाई के लिए जान दे देना, मगर झूठ को मानना नहीं

कर्बला सिर्फ एक दर्दनाक कहानी नहीं, बल्कि एक रूहानी स्कूल है जो हर इंसान को यह सिखाता है कि ज़िंदगी सिर्फ जीने के लिए नहीं, बल्कि उसूलों के लिए जीने और मरने के लिए है।


इमाम हसन की भूमिका: सुलह की राजनीति और उम्मत की हिफाजत

इमाम हसन (अ.स.) ने अपने समय में खून-खराबे को रोकने और उम्मत को फूट से बचाने के लिए मुआविया से एक सुलह की। यह सुलह उन्होंने मजबूरी में नहीं, बल्कि उम्मत की भलाई के लिए की थी। लेकिन यह सुलह भी यज़ीद की बादशाहत को रोक नहीं पाई, जो बाद में इस्लामी उसूलों के लिए खतरा बन गई।


आज का कर्बला: हर दौर में हुसैनी बनना ज़रूरी क्यों है?

कर्बला की तर्ज आज भी जिंदा है। हर वह दौर जब किसी ज़ालिम हुकूमत के खिलाफ आवाज़ उठाई जाती है, हर वह संघर्ष जब किसी मज़लूम को इंसाफ दिलाने की बात होती है – वहां हुसैनी पैग़ाम जिंदा होता है।

भारत में गांधीजी ने कहा था:

"मैंने हुसैन से सीखा कि जुल्म के सामने झुकना गुनाह है।"


दुनिया भर में मनाई जाने वाली 'आशूरा' और इमाम हुसैन की याद

ईरान, इराक, पाकिस्तान, भारत, लेबनान और दुनिया के कई हिस्सों में मुहर्रम के दिनों में इमाम हुसैन की याद में मातम, जुलूस, मज़ालिस और तकरीरें होती हैं। यह सिर्फ धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी चेतना का प्रदर्शन है।


निष्कर्ष: कर्बला हर ज़माने की चेतना है

इमाम हुसैन और उनके साथियों की कुर्बानी केवल 61 हिजरी की घटना नहीं, बल्कि इंसानियत, हिम्मत, उसूलों और सत्य के लिए दी गई एक अमर मिसाल है। कर्बला हमें यह सिखाता है कि चाहे जुल्म कितना ही ताक़तवर क्यों न हो, अंततः जीत सच्चाई की ही होती है।

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