लेखिका – कविता शर्मा | LLB, दिल्ली विश्वविद्यालय | कंटेंट राइटर और डिजिटल मार्केटर
प्रस्तावना: परंपरा की गर्भगृह से वैचारिक मुक्ति तक
मेरा जन्म एक पारंपरिक कश्मीरी ब्राह्मण परिवार में हुआ, जहाँ धर्म, जाति और परंपरा का प्रभाव इतना गहरा था कि बचपन से ही श्रेष्ठता का भाव स्वाभाविक मान लिया गया। धर्म की व्याख्या वहाँ आस्था से अधिक ‘पहचान’ और ‘वर्चस्व’ के दायरे में होती थी। मेरे पिता दिल्ली सिंचाई विभाग में कार्यरत थे, जिनकी नौकरी के चलते वर्ष 2021 में हमारा परिवार दिल्ली स्थानांतरित हुआ।
पर यह बदलाव केवल भौगोलिक नहीं था। दिल्ली की बहुसांस्कृतिक और बहुविचारधारात्मक आबोहवा में मुझे वह भारत दिखा, जो मेरे घर की दीवारों और मीडिया की स्क्रिप्ट से बिल्कुल अलग था। मेरा परिवार हमेशा मुसलमानों, दलितों और अन्य गैर-ब्राह्मण समुदायों के प्रति एक पूर्वाग्रहपूर्ण रवैया रखता था — जिसे मैंने पहले अनजाने में आत्मसात किया, फिर विश्वविद्यालय के गलियारों में जाकर उससे विद्रोह किया।
दिल्ली विश्वविद्यालय: बौद्धिक पुनर्जन्म का केंद्र
कानून की पढ़ाई के दौरान मेरा साक्षात्कार उस भारत से हुआ, जो संविधान की आत्मा में जीवित है — लेकिन ज़मीनी राजनीति और सामाजिक व्यवहार में दम तोड़ता नज़र आता है। मेरे सहपाठी—खासकर दलित, आदिवासी, मुस्लिम, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से आने वाले छात्र—नियमित रूप से अधिकारों के लिए संघर्ष करते दिखाई देते।
उनकी आवाज़ें कभी मीडिया की हेडलाइन्स नहीं बनतीं। वे लोग जो विश्वविद्यालय के ढांचे में हाशिये पर थे, असल में मुझे भारत की सबसे ठोस सच्चाई से अवगत करा रहे थे — कि "बराबरी" सिर्फ एक लिखी हुई बात है, जी हुई नहीं।
विकास: एक नाम, एक विचारधारा
विकास, जो मेरे सीनियर थे, वही मेरे वैचारिक पुनर्जन्म का कारक बने। उनका पहनावा बेहद साधारण, पर सोच अत्यंत विकसित थी। वे खादी पहनते थे, संविधान पढ़ते थे, और सत्ता से सवाल पूछने को कर्तव्य मानते थे। उनके शब्द मेरे भीतर वर्षों से जमी धार्मिक श्रेष्ठता की परतों को धीरे-धीरे गलाने लगे।
उनसे संवाद के बाद मैंने केवल जातिवाद ही नहीं, धार्मिक आडंबर, परंपरा आधारित पितृसत्ता, और 'अपनों' के नाम पर दी जा रही वैचारिक कैद से भी स्वयं को मुक्त किया।
नास्तिकता: मेरा आत्म-चयन, मेरे अनुभवों का निष्कर्ष
विकास आस्तिक थे लेकिन तार्किक। उन्होंने मुझे कभी नास्तिक बनने के लिए प्रेरित नहीं किया, पर उन्होंने मुझे सोचने की स्वतंत्रता दी। मैंने नास्तिकता को चुना — न विद्रोह के रूप में, न विरोध के रूप में, बल्कि एक आत्मान्वेषण की परिणति के रूप में।
मैं धर्मों का सम्मान करती हूँ, उनके सांस्कृतिक पहलुओं को संजोती हूँ, लेकिन किसी चमत्कार, मूर्ति या ईश्वर जैसी अदृश्य शक्ति में विश्वास नहीं करती। मेरे लिए तर्क, अनुभव और मानवीय मूल्य ही मार्गदर्शक सिद्धांत हैं।
राजनीति नहीं, वैचारिक सत्ता की लड़ाई है यह
भारत आज जिस मोड़ पर खड़ा है, वह केवल सरकार बदलने की बात नहीं, यह राष्ट्र की चेतना के अधिग्रहण का मामला है। 2014 में नरेंद्र मोदी को ‘विकास पुरुष’ के रूप में प्रचारित किया गया, पर 2025 में उनकी सरकार एक "आइडियोलॉजिकल हाइब्रिड शासन" बन चुकी है — जिसमें लोकतंत्र, धर्म और मीडिया तीनों का स्वरूप बदल दिया गया है।
विकास की बात पीछे छूट चुकी है। अब राष्ट्रवाद, धार्मिक पहचान, ऐतिहासिक चोट और ‘विचारधारा का शुद्धिकरण’ ही राजनीतिक विमर्श के केंद्र में हैं।
झूठ और भय का निर्माण: एक सदी की स्क्रिप्ट
2014 में कहा गया था:
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"हर नागरिक के खाते में 15 लाख आएंगे"
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"हर साल 2 करोड़ नौकरियाँ दी जाएंगी"
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"विदेशों से काला धन आएगा"
2025 तक इनमें से एक भी वादा पूर्णतः या आंशिक रूप से नहीं निभाया गया। इसके विपरीत जनता को "मुस्लिम खतरे", "लव जिहाद", "गौ-रक्षा", "राम मंदिर" जैसे मुद्दों में उलझा दिया गया।
ED, CBI और NIA: अब जांच नहीं, दमन के औजार
मोदी सरकार के शासनकाल में केंद्रीय जांच एजेंसियों का दुरुपयोग अपने चरम पर है।
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2014 से अब तक प्रवर्तन निदेशालय ने विपक्ष के 200+ नेताओं पर केस दर्ज किए।
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इनमें भाजपा से केवल 1% से भी कम आरोपी हैं।
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केवल 2% मामलों में ही आरोप सिद्ध हुए हैं।
यह सच्चाई दर्शाती है कि जांच अब ‘न्याय’ का नहीं, ‘प्रतिशोध’ का औजार बन चुकी है।
विकास बनाम विनाश: 11 साल की कठोर सच्चाई
वादा | हकीकत |
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रोजगार | बेरोजगारी दर 8% पार; ग्रामीण बेरोजगारी 10% से अधिक |
महंगाई | गैस ₹1200+, दाल ₹180+, दूध ₹70+ |
शिक्षा | बजट में 20% कटौती; विश्वविद्यालयों में भगवा एजेंडा |
MSP | कोई वैधानिक गारंटी नहीं; किसानों की आत्महत्या जारी |
स्वास्थ्य | डॉक्टर-जनसंख्या अनुपात बदतर; सरकारी अस्पतालों में किल्लत |
विदेश नीति: अब संवाद नहीं, सिर्फ़ सेल्फी डिप्लोमेसी
मोदी सरकार की विदेश नीति “फोटो-ऑप्टिक्स” तक सीमित रह गई है।
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अमेरिका, यूरोप, अरब देश अब भारत को “धार्मिक असहिष्णुता की प्रयोगशाला” मानने लगे हैं।
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चीन ने लद्दाख की जमीन पर कब्जा कर लिया, लेकिन सरकार ने संसद में कहा — "कोई घुसा ही नहीं"।
विदेश नीति अब नेहरू की 'गुटनिरपेक्षता' नहीं, मोदी की 'अहंकार कूटनीति' बन चुकी है।
लोकतंत्र की आत्मा घायल: अभिव्यक्ति, बहस और विरोध का हनन
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न्यायपालिका राजनीतिक दबाव में है
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विपक्षी नेता जेलों में हैं
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मीडिया ‘गोदी मीडिया’ बन चुका है
राज्य प्रायोजित प्रतिशोध: मुसलमानों के खिलाफ बुलडोज़र नीति
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और असम जैसे राज्यों में मुसलमानों की संपत्तियों को बगैर किसी न्यायिक आदेश के नष्ट किया जा रहा है। "मुल्लों को टाइट किया" जैसे जुमले सोशल मीडिया पर गर्व के साथ बोले जाते हैं।
यह कोई सामान्य प्रशासनिक कार्रवाई नहीं — यह राज्य प्रायोजित प्रतिशोध है, जिसे न्यायपालिका मौन समर्थन दे रही है।
बड़ी लूट: जब पूंजीपति सत्ता के संरक्षक बन जाएं
क्या यह शासन है? या कॉरपोरेट संरक्षित भगोड़ा मेला?
जनता की बेहोशी: नफरत का नशा और भूलती चेतना
हर चुनाव से पहले नया नारा आता है:
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“राम मंदिर बना देंगे”
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“जनसंख्या नियंत्रण कानून लाएँगे”
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“काशी-मथुरा लेंगे”
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“लव जिहाद रोकेंगे”
और जनता हर बार उसी अफ़ीम को पीकर मतदान कर देती है।
यह सामूहिक चेतना का हरण है, जिसमें आत्मघात को राष्ट्रभक्ति समझा जाता है।