1979 से संचालित मुस्लिम लड़कियों के इस स्कूल पर प्रशासनिक कार्रवाई को कोर्ट ने रोका | नागरिक अधिकारों और शिक्षा के संरक्षण की दिशा में एक मिसाल
रिपोर्टिंग: ज़ेड.एस. रज़्ज़ाक़ी | वरिष्ठ विश्लेषक पत्रकार
🔴 भूमिका: एक छोटे स्कूल की बड़ी लड़ाई
उत्तर प्रदेश के संभल ज़िले में स्थित ‘आज़ाद जन्नत निशा स्कूल’ पिछले चार दशकों से शिक्षा का उजाला फैलाने वाला एक महत्वपूर्ण संस्थान रहा है। खास तौर पर मुस्लिम समाज की लड़कियों के लिए यह स्कूल एक उम्मीद की किरण के रूप में कार्य कर रहा है। परंतु हाल के दिनों में यह स्कूल प्रशासनिक दबाव और ज़मीन से जबरन बेदख़ली के ख़तरे का शिकार हो गया।
हालांकि, APCR (Association for Protection of Civil Rights) द्वारा समय पर की गई क़ानूनी कार्रवाई और इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णायक हस्तक्षेप ने न केवल इस स्कूल को राहत दी, बल्कि पूरे प्रदेश में चल रहे अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के लिए एक महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत किया है।
⚖️ मामले की पृष्ठभूमि: 46 वर्षों से संचालित स्कूल को प्रशासन ने बताया ‘अवैध’
‘आज़ाद जन्नत निशा स्कूल’ की स्थापना वर्ष 1979 में की गई थी, और तब से यह संस्थान कानूनी रूप से खरीदी गई ज़मीन पर पंजीकृत व मान्यता प्राप्त रूप में संचालित हो रहा है।
इस स्कूल ने सैकड़ों ग़रीब, पिछड़े और मुस्लिम समुदाय की लड़कियों को शिक्षा देकर उन्हें आत्मनिर्भरता की राह दिखाई है।
लेकिन 2025 में अचानक संभल प्रशासन द्वारा इस स्कूल की ज़मीन को अतिक्रमण करार देते हुए बेदख़ली की नोटिस दी गई, और फिर 12 जून 2025 को बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के स्कूल भवन पर बुलडोज़र चलाने की तैयारी शुरू कर दी गई।
यह पूरी कार्रवाई बिना किसी न्यायिक आदेश, नोटिस, या सुनवाई के की जा रही थी।
🚨 APCR का सक्रिय हस्तक्षेप: क़ानून की ताक़त से रोकी गई मनमानी
जब यह मामला सामने आया, तब APCR (Association for Protection of Civil Rights) ने तत्काल इसे गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन मानते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाख़िल की।
APCR के वरिष्ठ अधिवक्ता ने कोर्ट में दलील दी कि:
“इस स्कूल की ज़मीन न केवल क़ानूनी रूप से स्वामित्व में है, बल्कि यह संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों को प्राप्त शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और संचालित करने के अधिकार का सीधा मामला है।”
🏛️ इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला: क़ानून से ऊपर नहीं है प्रशासन
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रशासन की कार्रवाई पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि:
“बिना due process of law के किसी भी प्रकार की जबरन कार्रवाई — चाहे वह भवन ध्वस्तीकरण हो या ज़मीन खाली कराना — असंवैधानिक और अवैध है।”
कोर्ट ने स्पष्ट निर्देश दिया कि:
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कोई भी तोड़फोड़ या बेदख़ली की कार्रवाई न्यायिक प्रक्रिया के बिना नहीं की जा सकती।
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प्रशासन को कानून के अनुरूप कार्य करना अनिवार्य है।
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याचिकाकर्ता को status quo (यथास्थिति) का संरक्षण प्राप्त रहेगा।
📣 APCR का बयान: ‘यह सिर्फ़ एक स्कूल नहीं, संविधान की जीत है’
APCR के महासचिव ने कोर्ट के फ़ैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा:
“हमारा संघर्ष सिर्फ़ एक इमारत को बचाने का नहीं था, बल्कि उस सांविधानिक मूल अधिकार को सुरक्षित रखने का था जो हर नागरिक को समान अवसर देता है।
यह निर्णय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों के लिए एक ऐतिहासिक सुरक्षा कवच है।”
🏫 ‘आज़ाद जन्नत निशा स्कूल’ की सामाजिक भूमिका: शिक्षा से सामाजिक सशक्तिकरण
इस स्कूल ने विशेषकर पर्दा प्रथा में रहने वाली मुस्लिम लड़कियों को पहली बार स्कूल की चौखट तक पहुँचाया।
सैकड़ों छात्राओं ने यहीं से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर उच्च शिक्षा, सरकारी नौकरियों, मेडिकल, शिक्षक प्रशिक्षण और स्वरोज़गार तक का सफर तय किया।
इस स्कूल का नाम भी अपने आप में प्रगतिशील सोच और स्त्री शिक्षा का प्रतीक है — "आज़ाद जन्नत निशा", एक महिला नाम और स्वतंत्रता की पुकार।
📌 मामले का व्यापक प्रभाव: क़ानून बनाम बुलडोज़र नीति
विशेषज्ञ मानते हैं कि इस प्रकार की घटनाएँ उत्तर प्रदेश में बढ़ती 'बुलडोज़र पॉलिसी' के परिणामस्वरूप सामने आ रही हैं, जिसमें बिना न्यायिक आदेश के संस्थानों को ढहाने का चलन बढ़ा है।
इस केस में हाईकोर्ट का आदेश क़ानून की सर्वोच्चता को पुनः स्थापित करता है और प्रशासनिक तंत्र को यह स्पष्ट करता है कि क़ानून से ऊपर कोई नहीं।
🧾 निष्कर्ष:-
संविधान की रक्षा की दिशा में एक ऐतिहासिक पड़ाव
‘आज़ाद जन्नत निशा स्कूल’ का मामला अब एक स्कूल से कहीं अधिक बन गया है। यह भारतीय न्याय व्यवस्था की उस मूल आत्मा को प्रतिबिंबित करता है जिसमें ग़रीब, वंचित और अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों की रक्षा सर्वोपरि है।
APCR की क़ानूनी तत्परता और इलाहाबाद हाईकोर्ट का विवेकपूर्ण फैसला इस बात का प्रमाण हैं कि जब न्याय और नागरिक चेतना एक साथ खड़ी होती हैं, तो सत्ता की मनमानी पर अंकुश संभव है।
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