✍🏻 Z S Razzaqi | वरिष्ठ पत्रकार
भारत में ‘विकास’ एक ऐसा शब्द बन चुका है, जिसका अर्थ अलग-अलग तबकों के लिए अलग हो गया है। सत्ता पक्ष के लिए विकास बहुचर्चित परियोजनाओं, चमचमाते एक्सप्रेसवे और ऊंची-ऊंची मूर्तियों तक सीमित है, जबकि आम आदमी के लिए यह रोज़गार, रोटी, मकान और सम्मानजनक जीवन की मांग है। 2014 से अब तक केंद्र सरकार द्वारा किए गए कई दावों, वादों और योजनाओं की आज वास्तविकता से टकरा कर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं।
1. “जहां झुग्गी, वहां मकान”: वादा या जुमला?
प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत “जहां झुग्गी, वहां मकान” जैसे नारे को जिस उम्मीद और भरोसे के साथ प्रचारित किया गया था, वह अब उजड़े हुए घरों, टूटी उम्मीदों और हताश नागरिकों की कहानियों में तब्दील हो चुका है।
पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली, भोपाल, मुंबई, अहमदाबाद और अन्य शहरों में कई झुग्गी बस्तियों को उजाड़ा गया, यह कहकर कि ये ‘अवैध’ हैं, जबकि इनमें रहने वाले लोग दशकों से वहीँ रह रहे थे, सरकारी काग़ज़ात में ‘निर्बल वर्ग’ के पात्र थे, और नियमित बिजली-पानी कनेक्शन भी रखते थे।
वहीं दूसरी ओर, भाजपा कार्यालयों, बड़े उद्योगपतियों को ज़मीन आवंटन, तथा मॉल्स और कॉरपोरेट परियोजनाओं को दी जाने वाली भूमि के मामले में ‘नियम’ अक्सर एक औपचारिकता मात्र रह जाते हैं।
2. लोकतंत्र में अविश्वास प्रस्ताव और जनता का समर्थन
जब किसी भी सरकार की कार्यप्रणाली पर जनता का भरोसा टूटता है, तब लोकतंत्र की आत्मा संसद में अविश्वास प्रस्ताव की माँग से जीवित होती है। आज जब बेरोज़गारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, और जवाबदेही का संकट सिर चढ़कर बोल रहा है, तो विपक्षी दलों के लिए यह समय जनमत को संसद में आवाज़ देने का है।
भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में अगर लोकसभा में विपक्ष के पास पर्याप्त संख्या में सांसद हैं, तो वे सरकार के खिलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव ला सकते हैं। यदि सरकार यह विश्वास मत हार जाती है, तो या तो उसे इस्तीफा देना होगा, या फिर संसद को भंग कर पुनः चुनाव कराना होगा।
3. कालेधन, नोटबंदी और ईमानदारी का नैरेटिव
8 नवम्बर 2016 को जब प्रधानमंत्री ने देशभर में नोटबंदी की घोषणा की, तो उसे ‘कालेधन पर प्रहार’, ‘आतंकवाद की रीढ़ तोड़ने’ और ‘डिजिटल भारत’ की शुरुआत बताया गया। परंतु 8 साल बाद भी न तो कालाधन वापस आया, न ही नकली करेंसी पूरी तरह खत्म हुई।
इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम ने इस सरकार के नैतिक दावे की नींव ही हिला दी। RTI और सुप्रीम कोर्ट में हुए खुलासों से यह सामने आया कि इस स्कीम के तहत भारी-भरकम ‘गोपनीय चंदा’ सत्तारूढ़ पार्टी को मिला, जो लोकतंत्र में पारदर्शिता की हत्या जैसा था।
PM CARES फंड की पारदर्शिता, EPFO फंड के बड़े उद्योगपतियों को आवंटन और बुज़ुर्गों को न्यूनतम पेंशन देने में विफलता जैसे प्रश्न अब गंभीर जनविरोध का कारण बन रहे हैं।
4. विकास बनाम विनाश: हादसों की श्रृंखला
2014 के बाद से कई बड़े हादसे हुए जिनमें सरकार की जवाबदेही और प्रशासनिक लापरवाही सामने आई:
-
उड़ीसा, बालासोर रेल हादसा (2023): 275 मौतें
-
गुजरात मोरबी पुल हादसा: 132 मौतें
-
हाथरस धार्मिक कार्यक्रम हादसा: 122 मौतें
-
बिहार और गुजरात में ज़हरीली शराब: 116 से ज़्यादा मौतें
इन सभी घटनाओं ने शासन की संवेदनशीलता, सुरक्षा व्यवस्था और प्राथमिकता पर सवाल खड़े किए हैं।
5. जब लोकतंत्र पर प्रश्नचिन्ह लगे हों
देश में हालिया घटनाओं ने यह भी दर्शाया है कि कानून व्यवस्था और संवैधानिक संस्थाएं किस तरह दबाव और राजनीतिक हस्तक्षेप में काम कर रही हैं। विपक्षी नेताओं के खिलाफ़ कार्रवाई, मीडिया की निष्पक्षता पर प्रश्न और संसद में सीमित बहस का माहौल लोकतंत्र को कमजोर कर रहा है।
6. भावनात्मक पक्ष: एक घर उजड़ना क्या होता है?
कोई सरकारी आंकड़ा उस दर्द को नहीं नाप सकता जब एक मेहनतकश इंसान का सालों से बसाया हुआ घर उजाड़ दिया जाता है। जिस परिवार ने रोज़ रोटी से लेकर बच्चों की पढ़ाई तक की योजना एक छोटे-से घर के आसपास बनाई हो, वह उजाड़े जाने पर केवल छत ही नहीं खोता — वह आत्मसम्मान, सामाजिक सुरक्षा और भविष्य की नींव भी खो देता है।
निष्कर्ष: देश का असली मालिक कौन?
जब संसद के उच्च पदों पर बैठे लोग कहते हैं कि संसद सर्वोच्च है, तब यह नहीं भूलना चाहिए कि संसद का मालिक ‘जनता’ है। यदि जनता की मूलभूत आवश्यकताओं, संवैधानिक अधिकारों और गरिमा की अनदेखी की जाती है, तो लोकतंत्र महज़ एक ढांचा बनकर रह जाएगा।
ये भी पढ़े
2 -प्रीमियम डोमेन सेल -लिस्टिंग