✍️ विशेष रिपोर्ट — मॉर्निंग दिल्ली न्यूज़ एजेंसी
भूमिका: सरकार के डिजिटल भारत में आमजन की पीड़ा
"डिजिटल इंडिया" और "न्यू इंडिया" जैसे भव्य नारे आज भारतीय राजनीति और प्रशासन के केंद्र में हैं। लेकिन जब ज़मीन पर आम नागरिक के अनुभव को देखा जाए तो तस्वीर बेहद तकलीफ़देह है। हमारी न्यूज़ एजेंसी Morning Dilli को लगातार आम लोगों की ईमेल्स और शिकायतें मिल रही हैं — और एक अहम मुद्दा इन दिनों है जन सेवा केंद्रों पर आधार कार्ड रजिस्ट्रेशन में आ रही गंभीर बाधाएँ।
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क्या है समस्या?
दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों से बड़ी संख्या में शिकायतें मिल रही हैं कि:
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नए आधार कार्ड विशेषकर बच्चों के आधार रजिस्ट्रेशन जन सेवा केंद्रों पर नहीं हो पा रहे हैं।
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किसी भी केंद्र द्वारा रजिस्ट्रेशन प्रयास करते ही उसका पोर्टल बंद कर दिया जाता है, जो कई दिनों या हफ्तों तक चालू नहीं होता।
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लोगों को मजबूरन जिला मुख्यालय या नगर के बड़े सेंटरों पर ऑनलाइन अपॉइंटमेंट लेकर जाना पड़ता है।
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मज़दूर, ग्रामीण और निर्धन तबका जो डिजिटल साक्षर नहीं है, वह सबसे ज्यादा परेशान है।
एक आम नागरिक की पीड़ा: मेहनत की दिहाड़ी और वक़्त दोनों की बलि
रामप्रसाद, एक ईंट-भट्ठा मज़दूर हैं, जो उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले से ताल्लुक रखते हैं। उनका कहना है:
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"हमारे तीन साल के बेटे का आधार कार्ड बनवाना था। गांव के सेवा केंद्र पर गए तो कहा पोर्टल बंद है। ज़िला मुख्यालय जाना पड़ा – 50 किलोमीटर दूर। किराया, खाना, और अपॉइंटमेंट के इंतज़ार में दिन भर की दिहाड़ी भी गई और आधार भी नहीं बना।"
उनकी कहानी अकेली नहीं है। हजारों मज़दूर और ग़रीब परिवार आज यही यातना झेल रहे हैं।
सरकार की ओर से उठाए गए कदम: न के बराबर सुधार
सरकार ने आधार रजिस्ट्रेशन के लिए कई "यूआईडीएआई-मान्यता प्राप्त केंद्र" तो खोले, लेकिन:
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इनका संचालन प्राइवेट एजेंसियों के हाथों में सौंप दिया गया।
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सेवा केंद्रों के पास मशीनें पुरानी, पोर्टल अस्थिर और स्टाफ प्रशिक्षित नहीं हैं।
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छोटे केंद्रों को रजिस्ट्रेशन से वंचित कर देने से केंद्र और कॉर्पोरेट के हित में डिजिटल सेवा का केंद्रीकरण हो गया है।
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दूर-दराज़ के इलाकों में एक सेंटर के लिए सैकड़ों किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है, जो गरीबों के लिए एक यातना से कम नहीं।
प्रश्न उठते हैं:
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क्या यह डिजिटल इंडिया है?
जहाँ गरीब को 50 किलोमीटर दूर जाकर आधार कार्ड बनवाना पड़े? -
क्या सेवा केंद्रों को जानबूझकर कमजोर बनाया गया है?
ताकि अधिक शुल्क लेने वाले प्राइवेट केंद्रों और कॉर्पोरेट ऑपरेटरों को बढ़ावा दिया जा सके? -
बच्चों के आधार में देरी का मतलब क्या है?
सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं, स्कूल एडमिशन में दिक्कत, और पहचान संकट।
आधार न बनने के गंभीर परिणाम
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पोषण योजनाएँ (आंगनवाड़ी, मिड-डे मील) में आधार अनिवार्य होने से बच्चे लाभ से वंचित हो रहे हैं।
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श्रमिकों की बीमा, पीएम श्रम योगी योजना, राशन कार्ड, उज्जवला योजना जैसे लाभ रुक गए हैं।
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स्कूलों में एडमिशन से लेकर बैंक अकाउंट और मोबाइल सिम तक सब कुछ आधार से जुड़ा है — और इसके अभाव में नागरिक प्रशासनिक रूप से अदृश्य हो जाता है।
वैकल्पिक उपाय क्यों नहीं?
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ऑफलाइन फॉर्म जमा करके बाद में बायोमेट्रिक अपॉइंटमेंट की व्यवस्था क्यों नहीं की जाती?
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मोबाइल आधार केंद्र, जो कभी चलन में थे, अब क्यों बंद हैं?
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गांव स्तर पर पंचायत या स्कूल में कैम्प क्यों नहीं लगाए जाते?
ये सारे उपाय सरकारी इच्छा शक्ति के अभाव में दम तोड़ चुके हैं।
गहराई से देखें तो ये समस्या एक नीति विफलता है
सरकार की डिजिटल नीतियाँ शहरी, तकनीकी और आर्थिक रूप से सक्षम वर्ग को केंद्र में रखती हैं, जबकि गरीब, ग्रामीण, अशिक्षित और तकनीक से दूर नागरिक व्यवस्था के हाशिये पर धकेले जा रहे हैं।
यह स्थिति डिजिटल असमानता को बढ़ा रही है — एक नया डिजिटल वर्गभेद।
निष्कर्ष: डिजिटल भारत में हाशिए पर आम नागरिक
जब आधार जैसे बुनियादी दस्तावेज़ के लिए एक गरीब मज़दूर को अपनी दिहाड़ी, समय और ऊर्जा गंवानी पड़े, तो यह किसी लोकतांत्रिक देश में एक गंभीर प्रशासनिक असफलता है। सरकार को तुरंत:
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जन सेवा केंद्रों को तकनीकी रूप से सशक्त बनाना चाहिए,
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पोर्टल फ्रीज़िंग की समस्या का समाधान निकालना चाहिए,
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बच्चों के आधार के लिए अलग और सरल नीति बनानी चाहिए,
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और डिजिटल इंडिया का असली लाभ आमजन तक पहुंचाना चाहिए।
आपकी आवाज़ — सरकार तक
हमारी न्यूज़ एजेंसी Morning Dilli इस मुद्दे को लगातार ट्रैक कर रही है। यदि आपके पास कोई अनुभव, शिकायत या सुझाव हो, तो हमें ईमेल करें: morningdillicom@gmail.com
आपकी एक आवाज़ सिस्टम को जगाने का कारण बन सकती है।
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