27 अप्रैल 2025 | लखनऊ
जब उत्तर प्रदेश के संभल जैसे मुस्लिम बहुल क्षेत्र में योगी आदित्यनाथ सरकार तीर्थ स्थल विकसित करने के नाम पर एक नई ध्रुवीकरण की राजनीति की पटकथा लिख रही है, वहीं राष्ट्रीय स्तर पर एक और बड़ा, मौन लेकिन गहरा बदलाव आकार ले रहा है — युवा वर्ग का बढ़ता असंतोष।
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संभल: हिंदुत्व की राजनीति का नया केंद्र
मथुरा और वाराणसी में शाही ईदगाह और ज्ञानवापी मस्जिद विवादों के जल्द समाधान की संभावना क्षीण होती देख, भाजपा ने अब संभल को हिंदुत्व की राजनीति का नया केंद्र बनाने का प्रयास तेज कर दिया है। 70 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले संभल में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की संभावना भाजपा के रणनीतिकारों को लुभाती है।
हाल ही में जिलाधिकारी राजेन्द्र पंसिया द्वारा एक ट्रस्ट के गठन की घोषणा, जो जिले के सभी मंदिरों का संरक्षण करेगा, इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यदि संभल को औपचारिक रूप से तीर्थ स्थल घोषित किया जाता है, तो धार्मिक आधार पर अवसंरचना विकास के नाम पर भारी सरकारी निवेश होगा, और सांप्रदायिक विभाजन को और गहरा करने की संभावनाएँ भी बढ़ जाएँगी।
यह सब ऐसे समय हो रहा है जब पिछले साल नवंबर में शाही जामा मस्जिद के बाहर हुई हिंसा ने पहले ही क्षेत्र को संवेदनशील बना दिया था। हिंसा में चार लोगों की मौत के बाद से प्रशासन द्वारा एक के बाद एक पुराने मंदिरों और तीर्थ स्थलों की "खोज" को प्रचारित किया जा रहा है। यह सब एक सुनियोजित रणनीति प्रतीत होती है जहाँ इतिहास को पुनः परिभाषित कर वर्तमान राजनीति को साधने की कोशिश की जा रही है।
नफ़रत, धर्म और सत्ता की राजनीति का सामाजिक परिणाम
2014 से अब तक, भाजपा ने देश के बड़े हिस्से में नफ़रत और धर्म की अफ़ीम चटा कर सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत रखी है। सामाजिक मुद्दे — जैसे महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य — को हाशिये पर डाल दिया गया है। सत्ता की जवाबदेही और सुशासन की अपेक्षा अब एक दुर्लभ अवधारणा बनती जा रही है।
लेकिन राजनीति के इस कृत्रिम निर्माण के पीछे समाज में एक मौन असंतोष भी पल रहा है, विशेषकर उस युवा वर्ग में जो कभी भाजपा की सबसे बड़ी ताकत था।
2014 में जो युवा पहली बार मतदाता बना था, आज वह 35 वर्ष का हो चुका है। अब वह सिर्फ धर्म या भावनाओं की राजनीति से संतुष्ट नहीं है। उसके सामने अपनी नौकरी, अपने बच्चों की शिक्षा, महंगाई से लड़ती जिंदगी और बढ़ती आर्थिक असुरक्षा के कठिन प्रश्न खड़े हो गए हैं।
यह पीढ़ी अब धर्म और नफ़रत के नारों से दीर्घकालीन रूप से जोड़ी नहीं जा सकती। राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने पर केंद्रित प्रश्न उसकी चेतना का हिस्सा बन रहे हैं।
संभावित युवा क्रांति और सत्ता परिवर्तन का संकेत
यदि यह असंतोष यूँ ही बढ़ता रहा, तो आने वाले वर्षों में एक ऐसी सामाजिक क्रांति जन्म ले सकती है, जो श्रीलंका जैसे हालातों की याद दिलाए। जहाँ सत्ता का अति-केंद्रिकरण और जनता की अनदेखी अंततः सत्ता के तख्तापलट का कारण बनी।
भारत का युवा वर्ग भी अगर धर्म और नफ़रत की राजनीति से ऊब कर, ठगा हुआ महसूस करेगा तो वह बदलाव की माँग करेगा। और तब न कोई साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, न कोई भावनात्मक मुद्दा उस बदलाव की बयार को रोक पाएगा।
संभल में हिंदुत्व की राजनीति का यह नया प्रयोग इस व्यापक परिवर्तन की संभावित पूर्वपीठिका बन सकता है — जब जनता यह पूछने लगेगी कि "मंदिर और तीर्थ स्थल तो बन गए, लेकिन हमारे जीवन की बुनियादी समस्याओं का क्या हुआ?"
निष्कर्ष
संभल में चल रही तीर्थ स्थलीकरण की राजनीति और देश भर में बढ़ रहा युवा असंतोष — दोनों ही संकेत करते हैं कि भारतीय लोकतंत्र एक नाजुक मोड़ पर आ पहुँचा है। अगर सत्ता केवल नफ़रत, विभाजन और धर्म की राजनीति से चिपकी रही, और जन सरोकारों को नजरअंदाज करती रही, तो वह दिन दूर नहीं जब बदलाव की आँधी हर कृत्रिम निर्माण को बहा ले जाएगी।
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