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सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: गवर्नर किसी भी बिल को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते, उसे विधानसभा को लौटाना अनिवार्य

 नई दिल्ली | 20 नवंबर 2025 |✍🏻 Z S Razzaqi |वरिष्ठ पत्रकार

एक महत्वपूर्ण संवैधानिक व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के माध्यम से आए Presidential Reference पर अपना विस्तृत मत जारी किया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी भी राज्यपाल के पास यह अधिकार नहीं है कि वह किसी बिल को “अनिश्चितकाल तक” रोककर रखे, बिना उसे संबंधित राज्य विधानसभा को वापस भेजे।

यह फैसला भारतीय संघीय ढांचे, विधायी प्रक्रिया और राज्यों की स्वायत्तता पर गहरा प्रभाव डालने वाला माना जा रहा है।


मुख्य निर्णय: Article 200 के तहत गवर्नर के पास केवल तीन विकल्प

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारतीय संविधान के Article 200 में गवर्नर को केवल तीन ही विकल्प दिए गए हैं—

  1. बिल को अपनी मंज़ूरी देना (Assent)

  2. बिल को राष्ट्रपति के पास आरक्षित करना (Reserve for President)

  3. मंज़ूरी रोककर बिल को विधानसभा को टिप्पणियों सहित वापस भेजना (Return for reconsideration)

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि—

“Withhold Assent” का अर्थ केवल एक ही हो सकता है: बिल को वापस भेजना।

इसे एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता कि गवर्नर बिल को रोककर महीनों या वर्षों तक दबाकर रखें।


अगर 'सिर्फ रोकने' की अनुमति दी जाए तो मनी बिल भी रोक सकता गवर्नर

कोर्ट ने कहा कि संविधान में Money Bill को वापस न भेज पाने का स्पष्ट प्रावधान है।
यानी—

  • मनी बिल पर गवर्नर या तो मंज़ूरी देंगे

  • या उसे राष्ट्रपति के पास भेजेंगे

लेकिन यदि “withholding assent” को एक चौथे स्वतंत्र अधिकार की तरह पढ़ा जाए, तो इससे मनी बिल भी रोका जा सकेगा, जो संवैधानिक तर्क और संरचना के विरुद्ध है।

कोर्ट ने टिप्पणी की—

“ऐसी व्याख्या संविधान में निहित वित्तीय और विधायी व्यवस्था को असंतुलित कर देगी।”


केंद्र का दावा खारिज: बिल लौटाना चौथा विकल्प नहीं

केंद्र सरकार ने दलील दी कि बिल को लौटाना एक “अतिरिक्त चौथा विकल्प” है, क्योंकि यह मुख्य प्रावधान नहीं, बल्कि केवल पहले प्रावधान (First Proviso) में दिया गया है।

लेकिन संविधान पीठ ने कहा कि—

पहला प्रावधान Article 200 का ही अभिन्न हिस्सा है।

इसलिए गवर्नर यदि मंज़ूरी रोकना चाहते हैं, तो उन्हें बिल को विधानसभा को टिप्पणियों सहित वापस भेजना ही होगा।

और एक बार जब विधानसभा बिल को पुनः पारित कर दे—

“गवर्नर दोबारा मंज़ूरी रोक नहीं सकते।”


संघवाद की भावना को ठेस पहुंचाने वाली व्याख्या खारिज

पीठ ने कड़े शब्दों में कहा कि—

  • यदि गवर्नर के पास बिल को अनिश्चितकाल तक रोकने का विकल्प हो,

  • और विधानसभा उसे पुनः न बुला सके,

  • तो यह संविधान द्वारा संरक्षित संघीय ढांचे और राज्यों के अधिकारों का हनन होगा।

कोर्ट ने कहा—

“यह राज्य विधायिकाओं की शक्तियों के अवमूल्यन के समान होगा और संघवाद के मूल ढांचे को कमजोर करेगा।”


“संवैधानिक संवाद” अनिवार्य है – सुप्रीम कोर्ट

Article 200 का पहला प्रावधान विधानसभा और गवर्नर के बीच एक “संवैधानिक संवाद” स्थापित करता है।

कोर्ट ने कहा—

जहाँ दो व्याख्याएँ संभव हों, वहाँ ऐसी व्याख्या चुनी जानी चाहिए जो संवाद, पारदर्शिता और संस्थागत सामंजस्य को बढ़ावा दे।

इसलिए वह व्याख्या स्वीकार नहीं की जा सकती जो—

  • गवर्नर को बिल रोककर रखने की असीमित शक्ति दे

  • और संस्कृति-सम्मत संवाद को समाप्त कर दे

कोर्ट का निष्कर्ष—

“संवैधानिक संरचना के अनुरूप वही व्याख्या होगी जो संवाद पर आधारित हो, न कि एकतरफा अवरोध पर।”


फैसले का व्यापक असर

इस निर्णय से—

  • राज्यों के विधायी अधिकार मजबूत होंगे

  • गवर्नरों की भूमिका अधिक जवाबदेह होगी

  • विधायी प्रक्रिया में पारदर्शिता बढ़ेगी

  • केंद्र–राज्य संबंधों में संतुलन और स्पष्टता आएगी

देश के विभिन्न राज्यों में हाल के वर्षों में कई बिलों को गवर्नरों द्वारा लंबे समय तक रोके जाने के विवाद ने इस फैसले को और अधिक महत्वपूर्ण बना दिया है।


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