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उर्दू ज़बान की अज़मत और उसकी शान पर मुकम्मल तफ़्सीलात

  रिपोर्ट:✍🏻 Z S Razzaqi |वरिष्ठ पत्रकार    

उर्दू की पैदाइश और तहज़ीबी मीरास

"वो इत्र-दान सा लहजा मिरे बुज़ुर्गों का

रची-बसी हुई उर्दू ज़बान की ख़ुश्बू"

उर्दू ज़बान की पैदाइश महज़ एक ज़बान की तख़लीक़ नहीं, बल्कि यह एक पूरी तहज़ीब और तमद्दुन की नशानदेही है। जब हिंदुस्तान में मुख़्तलिफ़ क़ौमें, मज़ाहिब और ज़बानें आपस में राबिता करती रहीं, तो एक नयी ज़बान ने जन्म लिया। यही ज़बान धीरे-धीरे उर्दू के नाम से मशहूर हुई। उर्दू के लफ़्ज़ों में फ़ारसी की नफ़ासत, अरबी की गहराई, तुर्की की शम्सीर जैसी तेज़ी और हिंदवी की सादगी एक साथ नज़र आती है।

उर्दू की पैदाइश फ़क़त अल्फ़ाज़ का इत्तेहाद नहीं, बल्कि दिलों का इत्तेहाद भी है। इस ज़बान ने सैंकड़ों साल तक हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब की हिफ़ाज़त की। यही वजह है कि इसे "ज़बान-ए-तहज़ीब" भी कहा जाता है।


उर्दू की नफ़ासत और लफ़्ज़ों का जादू

उर्दू ज़बान का सबसे बड़ा कमाल उसकी नफ़ासत और मिठास है। इस ज़बान में हर लफ़्ज़ एक मोती की तरह चमकता है और हर जुमला एक नज़्म की तरह बहता है। उर्दू के अल्फ़ाज़ दिल को यूँ छू जाते हैं कि सुनने वाला बे-इख़्तियार कह उठता है: "क्या ख़ूबसूरत ज़बान है!"

इसकी मिठास का आलम यह है कि ग़ुस्से में कही गई बात भी कभी-कभी नर्म और पुर-कशिश मालूम होती है। मोहब्बत, इश्क़, उल्फ़त, वफ़ा, तन्हाई, रुसवाई — हर एहसास के लिए उर्दू के पास ऐसे अल्फ़ाज़ हैं जो सीधे दिल में उतरते हैं।


अदब और शायरी की ज़बान

अगर कहा जाए कि उर्दू की पहचान शायरी है तो ग़लत न होगा। मीर से लेकर ग़ालिब तक, इक़बाल से लेकर फ़ैज़ तक — उर्दू शायरी का हर दौर दुनिया-ए-अदब के लिए एक तोहफ़ा रहा है।

  • मीर तकी मीर ने उर्दू को दर्द और ग़म की शायरी का नया अन्दाज़ दिया।

  • मिर्ज़ा ग़ालिब ने उर्दू ग़ज़ल को फिक्र और फ़लसफ़े की बुलंदियों तक पहुँचाया।

  • अल्लामा इक़बाल ने इस ज़बान के ज़रिये पूरी उम्मत को जागरूक करने का काम किया।

  • फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने इंसाफ़, इनक़लाब और मोहब्बत की आवाज़ को नये रंगों में ढाला।

उर्दू शायरी सिर्फ़ इश्क़ की कहानी नहीं कहती, बल्कि इंसानियत की आवाज़ है। यही वजह है कि इसे "दिलों की ज़बान" कहा जाता है।


उर्दू और तहज़ीब

उर्दू सिर्फ़ अल्फ़ाज़ का मज़मूआ नहीं बल्कि एक पूरी तहज़ीब है। इसके बोलने का अंदाज़, अदब, सलाम-दुआ, महफ़िलों का आहंग — सब कुछ तहज़ीब का आइना है।

  • सलाम और दुआ: “अस्सलामु अलैकुम” और “ख़ुदा हाफ़िज़” जैसे जुमले सिर्फ़ तहज़ीब नहीं बल्कि दुआ भी हैं।

  • तख़ातुब का अंदाज़: उर्दू में बड़ों के लिए "आप", बच्चों के लिए "तुम", और दोस्तों के लिए "तू" का लुत्फ़ अलग ही है।

  • गुफ़्तगू का शऊर: उर्दू की गुफ़्तगू में अदब, नफ़ासत और नर्मी का रंग हमेशा शामिल रहता है।


उर्दू की आलमी अहमियत

आज उर्दू सिर्फ़ हिंदुस्तान और पाकिस्तान तक महदूद नहीं रही। पूरी दुनिया में उर्दू बोलने और समझने वाले मौजूद हैं। ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, सऊदी अरब, यूएई, क़तर, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के कई मुल्कों में उर्दू के अख़बार, मैगज़ीन, रेडियो चैनल और टीवी प्रोग्राम देखे जा सकते हैं।

यूनेस्को ने भी उर्दू को उन ज़बानों में शुमार किया है जिनकी आलमी अहमियत है। इस ज़बान के लफ़्ज़ फ़िल्मों, गानों, ड्रामों और नाटकों के ज़रिये पूरी दुनिया तक पहुँचे।


उर्दू अदब में ग़ैर-मुस्लिम शायरों की ख़िदमात

जब उर्दू शायरी की बात होती है तो सिर्फ़ मुसलमान शायरों के नाम ही ज़हन में आते हैं। लेकिन हक़ीक़त यह है कि उर्दू की तरक़्क़ी में हिंदू शायरों ने भी बेपनाह हिस्सा लिया है।

  • रघुपति सहाय "फ़िराक़ गोरखपुरी" — जिनकी ग़ज़लें और नज़्में आज भी अदब की बुलंदियों पर हैं।

  • ब्रज नारायण चकबस्त — जिन्होंने उर्दू शायरी में वतनपरस्ती और तरक्क़ीपसंद ख़यालात को जगह दी।

  • पंडित दया शंकर नसिम — "गुलज़ार-ए-नसीम" उनकी मशहूर मसनवी है जो उर्दू अदब का क़ीमती हिस्सा है।

  • लालचंद फ़लक, तिलकचंद महरूम, श्याम नारायण कैफ़, रतननाथ सरशार — जिन्होंने उर्दू नज़्म, ग़ज़ल और अफ़साने में गहरा असर छोड़ा।

  • जगन्नाथ आज़ाद — जिन्होंने पाकिस्तान का पहला क़ौमी तराना लिखा और उर्दू शायरी में अहम मक़ाम पाया।

  • राम प्रसाद बिस्मिल — जिनकी शायरी ने आज़ादी की जद्दोजहद में जज़्बा जगाया।

  • चंद्र भान "ख़याल", मुनव्वर लक्ष्मी नारायण, गोपीनाथ अमीन, कन्हैया लाल कपूर — ये सब नाम उर्दू की आलमी विरासत का हिस्सा हैं।

उर्दू और हिन्दुस्तानी सियासत

हिंदुस्तान की आज़ादी की जद्दोजहद में उर्दू ने बेहद अहम किरदार अदा किया। सर सय्यद अहमद ख़ाँ की तहरीरों से लेकर मौलाना आज़ाद के ख़ुतबात तक — हर जगह उर्दू ही की गूंज थी। "इंक़लाब ज़िंदाबाद", "सरफ़रोशी की तमन्ना", "सारे जहाँ से अच्छा" — ये सब उर्दू की ही सौग़ातें हैं।


उर्दू की तालीमी और इल्मी अहमियत

उर्दू सिर्फ़ अदब और शायरी की ज़बान नहीं बल्कि तालीम और इल्म की ज़बान भी रही है। दिल्ली, लखनऊ, हैदराबाद और लाहौर जैसे मराकिज़ में सदियों तक इल्म-ओ-फ़लसफ़ा, तिब्ब (मेडिकल साइंस), हिसाब (मैथमैटिक्स), और फ़लसफ़ी किताबें उर्दू में लिखी और पढ़ी जाती रहीं।

आज भी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, उस्मानिया यूनिवर्सिटी, और लखनऊ यूनिवर्सिटी में उर्दू का दफ़्तर-ए-इल्म ज़िंदा है।


उर्दू की मौजूदा चुनौतियाँ

बावजूद इसके कि उर्दू इतनी पुर-असर ज़बान है, आज यह चुनौतियों से दो-चार है।

  1. तालीमी निज़ाम में उर्दू को पीछे धकेल दिया गया है।

  2. नयी नस्ल उर्दू पढ़ने और लिखने से दूर होती जा रही है।

  3. डिजिटल और टेक्नोलॉजी की दुनिया में उर्दू का कंटेंट कम है।

लेकिन यह भी सच है कि हालिया दौर में सोशल मीडिया, वेबसाइट्स, ई-पब्लिशिंग और यूट्यूब जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स ने उर्दू को फिर से ज़िंदा किया है। अब नौजवान ब्लॉगिंग और डिजिटल कंटेंट के ज़रिये उर्दू को नई ज़िंदगी दे रहे हैं।


उर्दू की फ़ित्रती ख़ूबी: मोहब्बत की ज़बान

उर्दू की असल पहचान उसकी मोहब्बत है। यह ज़बान तख़सीम नहीं करती, बल्कि जोड़ती है। यही वजह है कि यह हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब का सबसे बड़ा प्रतीक बनी।

उर्दू में मोहब्बत का इज़हार करने का अपना ही अंदाज़ है:

  • "आपकी याद आती है" — इसमें तड़प भी है और मोहब्बत भी।

  • "दिल लग जाता है" — इसमें सादगी भी है और गहराई भी।

  • "वफ़ा निभाते हैं" — इसमें वादा भी है और अमल भी।


उर्दू और फ़िल्मी दुनिया

बॉलीवुड और हिंदुस्तानी फ़िल्म इंडस्ट्री का 80% असर उर्दू ज़बान का नतीजा है। "मुग़ल-ए-आज़म" से लेकर "शोले" और "दीवार" तक, फ़िल्मी डायलॉग्स का जादू उर्दू की बदौलत है। "मदर इंडिया", "पाकीज़ा", "उमराव जान" जैसी फ़िल्में उर्दू की तासीर से ही अमर हुईं।


नतीजा: उर्दू की अज़मत और हमारी ज़िम्मेदारी

उर्दू ज़बान एक ऐसी नायाब दौलत है जो हमें हमारे अतीत, हमारी तहज़ीब, और हमारी पहचान से जोड़ती है। इसकी मिठास, नफ़ासत, और मोहब्बत दुनिया की किसी भी ज़बान से कम नहीं।

सलीक़े से हवाओं में जो ख़ुशबू घोल सकते हैं

अभी कुछ लोग बाक़ी हैं जो उर्दू बोल सकते हैं

हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम उर्दू को सिर्फ़ अदब और शायरी तक महदूद न रखें बल्कि इसे तालीम, टेक्नोलॉजी, और आलमी सतह पर फैलाएँ। हमें चाहिए कि अपने बच्चों को उर्दू पढ़ाएँ, उर्दू किताबें दिलवाएँ, और डिजिटल दुनिया में उर्दू कंटेंट को बढ़ाएँ।

अशोक साहिल जी  लिखते हैं 

उर्दू के चंद लफ़्ज़ हैं जब से ज़बान पर

तहज़ीब मेहरबाँ है मिरे ख़ानदान पर

क्योंकि जब तक उर्दू ज़िंदा है, हमारी तहज़ीब, हमारी मोहब्बत, और हमारी पहचान ज़िंदा रहेगी।

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1 -हिंदी उर्दू शायरी 

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