रिपोर्ट :जावेद अख्तर
उत्तराखंड के उत्तरकाशी ज़िले के धाराली गांव में हाल ही में आई भयंकर फ्लैश फ्लड और मलबे की तबाही ने एक बार फिर हिमालयी क्षेत्र में अनियंत्रित विकास की पोल खोल दी है। यह त्रासदी उस जगह घटी है जो भागीरथी इको-सेंसिटिव ज़ोन (ESZ) के अंतर्गत आता है – एक ऐसा क्षेत्र जिसे 2012 में गंगा की पारिस्थितिकी और जलग्रहण क्षेत्र की सुरक्षा के लिए अधिसूचित किया गया था।
लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि इस ज़ोन में सरकार और निजी संस्थाओं द्वारा लगातार ईको-नियमों का उल्लंघन, खासकर नदी के किनारों और बाढ़ क्षेत्र में अवैध निर्माण, इस प्राकृतिक आपदा को और भी भयावह बना देता है।
क्या है भागीरथी इको-सेंसिटिव ज़ोन?
यह ज़ोन गंगोत्री से उत्तरकाशी तक 4,157 वर्ग किलोमीटर में फैला है। भागीरथी नदी, जो गंगा की प्रमुख सहायक धारा है, इसी क्षेत्र से बहती है। इस क्षेत्र को पर्यावरणीय दृष्टि से अत्यंत नाज़ुक माना जाता है, इसलिए यहां किसी भी प्रकार का निर्माण या विकास नियंत्रित ढंग से होना चाहिए।
लेकिन चारधाम ऑल वेदर हाईवे परियोजना, जो केंद्र सरकार की प्रमुख योजना है, इसी क्षेत्र से होकर गुजरती है। इस परियोजना को सुप्रीम कोर्ट की अनुमति मिल चुकी है, लेकिन इसके कई खंड विवादों और पर्यावरणीय चेतावनियों के घेरे में हैं।
“प्राकृतिक आपदा को मानव ने विनाश में बदला” – पर्यावरण विशेषज्ञ
गंगा अह्वान संस्था की मल्लिका भानोट, जो ESZ निगरानी समिति की सदस्य हैं, ने कहा:
"यह एक प्राकृतिक घटना थी, जिसे मानव-जनित निर्माण और अनियंत्रित विकास ने आपदा में बदल दिया। यदि ESZ अधिसूचना को गंभीरता से लागू किया जाता, तो बाढ़ क्षेत्रों में निर्माण रोका जा सकता था और इस तरह की तबाही टाली जा सकती थी।"
2024 में उन्होंने जला गांव में एक हेलीपैड के अवैध निर्माण और मनेरी व जामक क्षेत्र में गंगा किनारे बने बहुमंज़िला होटल के निर्माण को भी चिन्हित किया था। ये सभी निर्माण ESZ के नियमों का उल्लंघन करते हैं।
चारधाम परियोजना और पर्यावरणीय अनदेखी
चारधाम मार्ग के धरसू-गंगोत्री खंड, जिसमें धाराली आता है, पर सड़क चौड़ीकरण का कार्य सीमा सड़क संगठन (BRO) द्वारा किया जा रहा है। BRO ने यह दावा किया कि इस परियोजना के लिए अलग से पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) की आवश्यकता नहीं है, जिससे विशेषज्ञों में आक्रोश था।
सुप्रीम कोर्ट की उच्चाधिकार प्राप्त समिति के अध्यक्ष रहे रवि चोपड़ा ने चेताया:
"धरसू से गंगोत्री तक का मार्ग अत्यंत संवेदनशील है। वहां की ढलान लंबे समय से खिसक रही है और इस पर वैज्ञानिक शोध भी हो चुके हैं। हमने सरकार को इस क्षेत्र में सड़क चौड़ीकरण न करने की सलाह दी थी। अगर करना ज़रूरी हो, तो भी केवल कठोर शर्तों के साथ।"
उन्होंने यह भी कहा कि हर्षिल मार्ग की चट्टानें आग्नेयशिला से बनी हैं, जो सड़क चौड़ीकरण के लिए उपयुक्त नहीं हैं। उन्होंने "हाफ टनल" की सलाह दी थी, ताकि पर्वतीय संरचना सुरक्षित रहे।
स्थानीय विरोध और वन विनाश का खतरा
NH-34 के हिना से टेकला तक के बायपास निर्माण का स्थानीय लोगों ने पुरज़ोर विरोध किया है। इस परियोजना के लिए 6,000 देवदार के पेड़ों की कटाई प्रस्तावित है, जिस पर नागरिकों ने सुप्रीम कोर्ट की समिति को भी पत्र लिखकर आपत्ति जताई थी।
आपदा का कारण: क्या बादल फटा या ग्लेशियल झील फूटी?
अभी तक इस विनाशकारी फ्लैश फ्लड के पीछे के कारण स्पष्ट नहीं हैं। भारतीय मौसम विभाग (IMD) के अनुसार, उत्तरकाशी या उसके आसपास के क्षेत्र में अत्यधिक वर्षा नहीं हुई थी – अधिकतम वर्षा 43 मिमी संकरी में दर्ज हुई।
लेकिन केंद्रीय जल आयोग की हिमालयन गंगा डिविजन की रिपोर्ट बताती है कि तीन स्थानों – धाराली, सुखी टॉप (हर्षिल और गंगनानी के बीच) और हर्षिल आर्मी कैंप के पास – बारिश के कारण बाढ़ और मलबे का बहाव हुआ।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) की वरिष्ठ सलाहकार दीपाली जिंदल ने कहा:
"वीडियोज़ देखकर यह मडस्लाइड (कीचड़ की भूस्खलन) जैसा लगता है, जिसमें तेज़ी से कीचड़ और मलबा नीचे की ओर बहता है। यह संभव है कि यह घटना क्लाउडबर्स्ट या ग्लेशियल झील के फूटने से हुई हो, लेकिन यह जांच के बाद ही स्पष्ट होगा।"
निष्कर्ष: हिमालय को बचाने की ज़रूरत
उत्तरकाशी की यह त्रासदी कोई पहली चेतावनी नहीं है। इससे पहले जोषीमठ धंसाव, ऋषिगंगा जलप्रलय और सिल्क्यारा सुरंग हादसा भी विकास और पर्यावरण की अनदेखी का ही नतीजा रहे हैं। हर बार सरकारें राहत पहुंचाने में तो आगे रहती हैं, लेकिन नीति निर्माण और ईको-जोन संरक्षण में विफल दिखती हैं।
यदि सरकार और जनता सच में भविष्य की पीढ़ियों के लिए हिमालय को बचाना चाहते हैं, तो चारधाम परियोजना जैसे विकास कार्यों में पारदर्शिता, वैज्ञानिक सलाह और पर्यावरणीय नियमों का कठोर पालन अनिवार्य है।
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