🔴 गिरफ्तारी का मामला: सोशल मीडिया टिप्पणी बनी वजह
हरियाणा के सोनिपत की एक स्थानीय अदालत ने 20 मई 2025 को अशोका विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध राजनीति विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. अली खान महमूदाबाद को न्यायिक हिरासत में भेज दिया। यह निर्णय अदालत ने हरियाणा पुलिस की उस याचिका को खारिज करते हुए लिया, जिसमें उनकी सात दिन की अतिरिक्त पुलिस रिमांड मांगी गई थी।
प्रोफेसर महमूदाबाद पर दो अलग-अलग एफआईआर (प्राथमिकी) दर्ज की गई हैं, जो उनके द्वारा सोशल मीडिया पर "ऑपरेशन सिंदूर" पर की गई कथित आपत्तिजनक टिप्पणी से संबंधित हैं। इन एफआईआर को हरियाणा राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष रेनू भाटिया और जटेढ़ी गांव के सरपंच योगेश जटेढ़ी द्वारा दर्ज कराया गया था।
⚖️ अदालत की कार्यवाही: पुलिस की दलीलें, वकीलों की आपत्तियाँ
प्रोफेसर अली खान को गिरफ्तारी के दो दिन बाद सोनिपत के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (JMIC) आज़ाद सिंह की अदालत में पेश किया गया। पुलिस ने तर्क दिया कि महमूदाबाद का पासपोर्ट लखनऊ से जब्त करना बाकी है, जिससे उनके विदेश दौरे की जानकारी मिल सके, और साथ ही सोशल मीडिया पर संवाद व कॉल डिटेल की भी पड़ताल करनी है।
🙅♂️ वकीलों की आपत्ति और अदालत की टिप्पणी
प्रोफेसर के वकीलों — कपिल बल्यान और मोहम्मद चांद हुसैन — ने इस दलील को खारिज करते हुए अदालत को बताया कि पासपोर्ट की सभी विवरण पहले ही पुलिस को सौंप दी गई है, और मूल पासपोर्ट 21 मई शाम 5 बजे तक जांच अधिकारी को सौंप दिया जाएगा।
उन्होंने यह भी बताया कि जब तक मोबाइल और लैपटॉप का फोरेंसिक विश्लेषण पूरा नहीं होता और सोशल मीडिया डाटा की रिपोर्ट नहीं आ जाती, तब तक किसी भी प्रकार की पुलिस रिमांड की आवश्यकता नहीं बनती।
इसके बाद अदालत ने पुलिस की रिमांड याचिका को खारिज करते हुए अली खान महमूदाबाद को 27 मई तक न्यायिक हिरासत में भेज दिया। अब उन्हें अगली सुनवाई में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से पेश किया जाएगा।
📜 एफआईआर का आधार: एक विचारधारा पर हमला या विधिक कार्रवाई?
इन दोनों एफआईआर में लगाए गए आरोप लगभग समान हैं — कि प्रोफेसर ने सोशल मीडिया पर ऐसा बयान दिया है जिससे “सांप्रदायिक भावना भड़क सकती है” और “राष्ट्रीय सुरक्षा या सामाजिक सद्भाव पर असर पड़ सकता है।” हालांकि, अब तक किसी प्रत्यक्ष हिंसा या सार्वजनिक उपद्रव का प्रमाण सामने नहीं आया है।
यह सवाल लगातार उठ रहा है कि क्या ये एफआईआर वास्तव में कानून व्यवस्था की रक्षा के लिए की गई हैं या फिर यह वैचारिक असहमति को दबाने का प्रयास है?
🧑⚖️ कानूनी विश्लेषण: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम सार्वजनिक सुरक्षा
संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है, लेकिन यह अधिकार यथोचित प्रतिबंधों के अधीन है — जैसे कि राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता, या नैतिकता।
महमूदाबाद के समर्थकों का दावा है कि उनकी टिप्पणी एक राजनीतिक विश्लेषण थी, न कि भड़काऊ वक्तव्य। उनका कहना है कि उनके साथ जो हुआ है वह बौद्धिक स्वतंत्रता पर सीधा हमला है।
✊ नागरिक अधिकार मंच का विरोध: सोनिपत से लखनऊ तक गूंज
महमूदाबाद की गिरफ्तारी के विरोध में "नागरिक अधिकार मंच, सोनिपत" द्वारा छोटू राम धर्मशाला में एक विरोध बैठक का आयोजन किया गया। बैठक की अध्यक्षता श्रद्धानंद सोलंकी ने की, और मंच के सदस्यों ने सरकार पर "मौलिक अधिकारों के हनन" का आरोप लगाया।
📜 ज्ञापन सौंपा गया
प्रदर्शनकारियों ने जिलाधिकारी को ज्ञापन सौंपते हुए मांग की कि:
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एफआईआर को तत्काल निरस्त किया जाए
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प्रोफेसर महमूदाबाद को बिना शर्त रिहा किया जाए
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बौद्धिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए सख्त कदम उठाए जाएँ
मंच के संयोजक अधिवक्ता कपिल बल्यान ने कहा कि यह सिर्फ एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि पूरे शैक्षणिक समुदाय और नागरिक समाज का मुद्दा है। उन्होंने यह भी कहा कि यह एक लंबी कानूनी और जन आंदोलन की शुरुआत है।
🏠 लखनऊ की प्रतिक्रिया: 'जानबूझकर निशाना बनाया गया'
लखनऊ में महमूदाबाद के शुभचिंतकों और स्थानीय बुद्धिजीवियों का कहना है कि उनकी गिरफ्तारी राजनीतिक रूप से प्रेरित है। कई सामाजिक संगठनों ने इस घटना को 'चयनात्मक उत्पीड़न' करार देते हुए जल्द से जल्द न्यायिक हस्तक्षेप की मांग की है।
🧑🏫 कौन हैं अली खान महमूदाबाद?
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डॉ. अली खान महमूदाबाद भारत के प्रतिष्ठित अकादमिक और इतिहासकार हैं।
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वे अशोका विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर हैं।
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उन्होंने ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों से शिक्षा प्राप्त की है।
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उनकी विशेषज्ञता भारतीय मुस्लिम राजनीति, राष्ट्रीय आंदोलन, और धर्मनिरपेक्षता जैसे विषयों में है।
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वे द हिंदू, इंडियन एक्सप्रेस, न्यूयॉर्क टाइम्स जैसी अख़बारों में लेख लिखते रहे हैं।
🔍 निष्कर्ष: क्या यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है?
प्रोफेसर अली खान महमूदाबाद की गिरफ्तारी भारतीय लोकतंत्र और शैक्षणिक स्वायत्तता के लिए एक चिंताजनक संकेत मानी जा रही है। जबकि सरकार इसे कानून का पालन बता रही है, वहीं बौद्धिक वर्ग इसे वैचारिक असहमति का दमन कह रहा है।
आने वाले दिनों में यह मामला निश्चित रूप से न केवल न्यायालयों में, बल्कि जनता की अदालत और शैक्षणिक मंचों पर भी चर्चा का विषय बना रहेगा। क्या भारत एक ऐसे लोकतंत्र की ओर बढ़ रहा है जहाँ विचार रखने की आज़ादी राज्य की इच्छा पर निर्भर होगी? या फिर यह एक कानूनी प्रक्रिया है जो समाज में जिम्मेदारीपूर्ण संवाद को सुनिश्चित करने का प्रयास है?
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