बस्ती, उत्तर प्रदेश | विशेष रिपोर्ट
"जहाँ जीवन बचना चाहिए, वहीं हो गई ज़िंदगी की हत्या"
मामले के अनुसार, युवती बीते दिनों से उक्त अस्पताल में इलाजरत थी। लेकिन इसी दौरान अस्पताल परिसर में ही उसके साथ दुष्कर्म की वारदात को अंजाम दिया गया। बाद में युवती की हालत गंभीर हो गई और उसकी मृत्यु हो गई। यह घटना न केवल चिकित्सा संस्थानों की निगरानी व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह लगाती है, बल्कि यह स्पष्ट करती है कि महिलाओं के लिए आज शायद कोई स्थान सुरक्षित नहीं बचा है।
सवाल यह भी है कि एक आम दलित लड़की, जो पहले ही शारीरिक रूप से अस्वस्थ थी, कैसे अस्पताल के अंदर दुराचारियों के निशाने पर आ गई? और वह कौन-से लोग थे, जो अस्पताल के भीतर यह घिनौना कृत्य करके बच निकले?
प्रशासन मौन, सरकार बेबस — जनता का आक्रोश फूट पड़ा
घटना के बाद से न केवल बस्ती जिले में, बल्कि पूरे प्रदेश में आक्रोश का माहौल है। दलित संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसे सत्ता संरक्षित अपराध बताया है और सरकार पर सीधा आरोप लगाया है कि जब पीड़िता का समुदाय राजनीतिक रूप से हाशिए पर हो, तब न्याय की प्रक्रिया भी धीमी पड़ जाती है।
घटना के कई घंटे बीत जाने के बाद भी प्रशासन की ओर से कोई ठोस कार्रवाई या आधिकारिक बयान सामने नहीं आया। जनता का यह गुस्सा स्वाभाविक है — क्या आज उत्तर प्रदेश में न्याय केवल वर्ग, जाति और राजनीतिक प्रभाव के आधार पर तय होता है?
"बुलडोजर राज" की चुप्पी और न्याय की अनसुनी चीख
बीते वर्षों में उत्तर प्रदेश सरकार ने अपराधियों पर "बुलडोजर कार्रवाई" की छवि गढ़ी है। मगर सवाल यह है कि क्या यह बुलडोजर सिर्फ कुछ खास वर्गों या विपक्षी लोगों के लिए ही चलता है?
इस घटना के बाद अब जनता जानना चाहती है कि क्या उस अस्पताल के मालिक, कर्मी या संभावित आरोपियों के घर पर भी बुलडोजर चलेगा?
बुलडोजर का डर अपराधियों में नहीं, बल्कि जनता में फैल रहा है। यह एक खतरनाक संकेत है, जो लोकतंत्र के न्याय तंत्र को भय के शासन में तब्दील कर सकता है।
सत्ता की चुप्पी के बीच दलित चेतना की गर्जना
इस घटना ने सामाजिक और जातीय न्याय की चर्चा को फिर से केंद्र में ला खड़ा किया है। भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आज़ाद ने इस मामले को लेकर सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि “अब वक्त आ गया है कि ऐसी घटनाओं पर सिर्फ संवेदना नहीं, कार्रवाई हो। हम चुप नहीं बैठेंगे। हर बहन-बेटी के साथ न्याय के लिए संघर्ष जारी रहेगा।”
वहीं सोशल मीडिया पर #JusticeForDalit, #बस्ती_कांड और #UPWomenSafety जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं। देश के कोने-कोने से लोग न्याय की मांग कर रहे हैं, और यह दबाव दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है।
महिला सुरक्षा के खोखले दावे और गिरता हुआ भरोसा
प्रदेश सरकार बार-बार 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' जैसे नारों को दोहराती रही है, लेकिन ज़मीनी सच्चाई बिल्कुल उलट है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की संख्या लगातार बढ़ रही है। बस्ती की यह घटना बताती है कि नारेबाजी और प्रचार से ज़मीनी हकीकत नहीं बदलती।
अगर एक लड़की अस्पताल में भी सुरक्षित नहीं है, तो क्या यह कहना गलत होगा कि पूरे सिस्टम ने अपनी आंखें मूंद ली हैं?
जनता के सवाल और सत्ता की ज़िम्मेदारी
इस घटना के बाद कुछ बुनियादी सवाल उठ खड़े हुए हैं:
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अस्पताल में एक युवती के साथ दुष्कर्म और हत्या जैसी घटना कैसे संभव हुई?
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क्या राज्य में दलित वर्ग की बेटियों को न्याय मिलना अब भी एक सपना बना रहेगा?
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क्या सरकार सिर्फ धार्मिक और जातीय ध्रुवीकरण में उलझी रहेगी, जबकि बेटियाँ रोज़ अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं?
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क्या बुलडोजर केवल कमज़ोरों के लिए है?
निष्कर्ष: अब खामोशी नहीं, कार्रवाई चाहिए
बस्ती की यह घटना एक चेतावनी है — न केवल सरकार के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए। जब बेटियाँ अस्पतालों में भी सुरक्षित नहीं रहेंगी, तब यह समझना होगा कि हमने समाज के मूलभूत नैतिक तंत्र को खो दिया है। अब वक्त है कि सत्ता जवाबदेह बने, दोषियों को सार्वजनिक रूप से सजा दी जाए, और एक ठोस नीति बने जिसमें जाति, वर्ग, या धर्म के आधार पर न्याय में भेदभाव न हो।
अगर अब भी हम खामोश रहे, तो अगली ममता देवी की चीख हम सबके कानों से टकरा कर इतिहास बन जाएगी — वह इतिहास जो सिर्फ शर्म का कारण होगा।
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