Type Here to Get Search Results !

ADS5

ADS2

संभल हिंसा:एसआईटी जांच और सांसद जियाउर्रहमान बर्क से पूछताछ

 संभल में हुई हिंसा और उसके बाद की घटनाओं ने न केवल स्थानीय स्तर पर भय और असमंजस का माहौल पैदा किया है, बल्कि राज्य और देशभर में कानून व्यवस्था की पारदर्शिता और जवाबदेही पर भी गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। इस पूरे मामले में जहाँ पुलिस की भूमिका पर लगातार उंगलियाँ उठ रही हैं, वहीं जनता के एक बड़े वर्ग में यह गहरी धारणा बन चुकी है कि सच्चे दोषियों को बचाने के लिए एक संगठित साजिश रची जा रही है।



हिंसा की पृष्ठभूमि और राजनीतिक आरोप

24 नवंबर 2024 को संभल की जामा मस्जिद में हुए सर्वे के दौरान अचानक फैली हिंसा ने देखते ही देखते पांच युवाओं की जान ले ली। इस घटना के बाद दर्ज की गई एफआईआर (संख्या 335/24) में समाजवादी पार्टी के सांसद जियाउर्रहमान बर्क, विधायक इकबाल महमूद के पुत्र सुहेल इकबाल समेत लगभग 800 अज्ञात व्यक्तियों को नामजद किया गया। खास बात यह है कि इन आरोपों की बुनियाद उस भाषण पर टिकी है, जो कथित रूप से बवाल से दो दिन पहले दिया गया था।

हालांकि, इन आरोपों पर जितनी राजनीतिक प्रतिक्रिया हुई, उससे कहीं अधिक शंकाएं पुलिस की भूमिका को लेकर सामने आई हैं। स्थानीय नागरिकों का कहना है कि जांच प्रक्रिया को एकतरफा ढंग से संचालित किया जा रहा है, और पुलिस खुद को बचाने के लिए तथ्यों को दबा रही है। लोगों के बीच यह विश्वास पनप रहा है कि पुलिस न केवल अपने ऊपर लगे आरोपों को छुपा रही है, बल्कि असल दोषियों को संरक्षण भी दे रही है।


एसआईटी जांच और सांसद से पूछताछ

मामले की गंभीरता को देखते हुए विशेष जांच टीम (SIT) का गठन किया गया। आज यानी 8 अप्रैल 2025 को सपा सांसद जियाउर्रहमान बर्क नखासा थाने में एसआईटी के समक्ष पेश हुए। तकरीबन ढाई घंटे चली पूछताछ के दौरान बर्क ने बार-बार यह दोहराया कि वे कानून और संविधान में पूर्ण विश्वास रखते हैं और जांच में पूरा सहयोग करेंगे। पेशी से पहले उन्होंने प्रेस को संबोधित करते हुए यह भी कहा कि तबीयत ठीक न होने के बावजूद वे उपस्थित हुए ताकि यह संदेश जाए कि वे जांच से भाग नहीं रहे।

एसआईटी ने सांसद को बीएनएसएस की धारा 35 के तहत समन जारी किया था, जो उनके दिल्ली स्थित आवास पर तामील कराया गया था। पूछताछ के दौरान उनसे हिंसा के दिन की गतिविधियों, भाषण की मंशा और अन्य संबंधित पहलुओं पर विस्तृत जानकारी ली गई।


जनता की चुप्पी और डर की मनोदशा

स्थानीय स्तर पर, चाहे वह व्यापारी वर्ग हो, सामाजिक कार्यकर्ता हों या आम नागरिक—सभी का एक स्वर में कहना है कि पाँच निर्दोष युवकों की मृत्यु में "संभल पुलिस की भूमिका संदेह से परे नहीं है।" लोग यह भी कहते हैं कि “हमें पता है कि कौन दोषी है, लेकिन पुलिस के खिलाफ खुलकर बोलने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पा रहा।”

जनता का यह डर यथार्थपरक है। सूत्रों के मुताबिक, जिन्होंने इस मामले में पुलिस के रवैये पर सवाल उठाने की कोशिश की, उन्हें या तो थाने बुलाया गया या परोक्ष रूप से धमकाया गया। यह स्थिति न केवल एक लोकतांत्रिक समाज के लिए चिंताजनक है, बल्कि यह भी संकेत देती है कि "न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता अत्यंत अनिवार्य है।"


पुलिस की अंदरूनी साजिशें और लीपापोती के आरोप

स्थानीय रिपोर्टों और स्वतंत्र पर्यवेक्षकों की मानें तो पुलिस अपनी ही भूमिका को छुपाने के लिए पूरे तंत्र को सक्रिय कर चुकी है। सबूतों को छुपाना, गवाहों को प्रभावित करना, और विपक्षी नेताओं पर झूठे मुकदमे लादना—ये सब कुछ उस साजिश की एक मजबूत कड़ी प्रतीत होती हैं, जो सच्चाई को दबाने के लिए रची गई है।

जनता यह भी मांग कर रही है कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में एक स्वतंत्र जांच करवाई जाए, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि पाँच युवकों की मृत्यु वास्तव में किन परिस्थितियों में हुई और इसके पीछे किन अधिकारियों और व्यक्तियों की जिम्मेदारी बनती है। क्योंकि जिस दिन यह जांच शुरू होगी, जनता का विश्वास है कि कई पुलिस अधिकारी सलाखों के पीछे होंगे।


क्या यह न्याय का समय है या डर का युग?

संभल की गलियों में डर का साया इस कदर फैला हुआ है कि लोग केवल दबे स्वर में सच बोलने की हिम्मत कर पा रहे हैं। “अगर हम खुलकर बोलेंगे, तो अगला नंबर हमारा होगा,” यह वाक्य कई लोगों ने दोहराया। यह डर लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों को गहरे संकट में डालता है। वहीं दूसरी ओर, सत्ता पक्ष और प्रशासनिक अधिकारी इस पूरे प्रकरण को ‘कानूनी प्रक्रिया’ का हिस्सा बताकर शांत बैठे हैं।


निष्कर्ष: न्यायिक हस्तक्षेप समय की मांग

आज जब संसद और विधानसभा में विपक्ष इस मुद्दे को उठाने की कोशिश करता है, तब राज्य सरकार की चुप्पी भी कई संकेत देती है। यह वक्त है जब सुप्रीम कोर्ट को स्वतः संज्ञान लेना चाहिए। स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच ही वह रास्ता है, जिससे न केवल दोषियों को सजा मिलेगी बल्कि जनता का खोया हुआ विश्वास भी बहाल होगा।

यदि यह नहीं हुआ, तो यह मामला भी उन सैकड़ों केसों की तरह इतिहास के पन्नों में दब जाएगा, जहाँ न्याय ‘फाइलों’ में बंद होकर रह गया और पीड़ित परिवारों को केवल आँसू और खामोशी मिली।


यह लेख एक स्वतंत्र पत्रकारिता प्रयास है, जो समाज और व्यवस्था के बीच संतुलन बनाने, न्याय की माँग को स्वर देने और जनता की पीड़ा को शब्दों में ढालने का प्रयास करता है। अगर आप इस लेख से सहमत हैं, तो इसे साझा करें—शायद आपकी आवाज़ किसी की आवाज़ बन जाए।

ये भी पढ़े 

2 -प्रीमियम डोमेन सेल -लिस्टिंग  

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

ADS3

ADS4