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जातीय न्याय की लड़ाई में राहुल गांधी सबसे आगे: हिम्मत, हक़ और हक़ीक़त की आवाज़ बने विपक्ष के नेता

नई दिल्ली से —

भारतीय राजनीति के इस दौर में जब सामाजिक न्याय की बहस फिर से सियासी गलियारों में गूंज रही है, तब कांग्रेस नेता और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने जातीय जनगणना को लेकर एक सधा हुआ, मगर तीखा संदेश दिया है। उन्होंने केंद्र सरकार के इस निर्णय को ‘जनता के दबाव का परिणाम’ बताते हुए एक ओर तो इसका स्वागत किया, वहीं दूसरी ओर सवाल भी दागा—"समयसीमा क्या है?"


राहुल गांधी ने क्यों कहा — ‘पहला कदम है, मंज़िल नहीं’

राहुल गांधी के बयान में स्पष्ट रूप से यह संकेत था कि उन्हें केंद्र के इस कदम पर पूर्ण भरोसा नहीं है। उन्होंने कहा, “हम जातीय जनगणना का स्वागत करते हैं, मगर यह जानना ज़रूरी है कि इसमें कितना समय लगेगा। यह पहला कदम है… इसके बाद असली लड़ाई शुरू होगी।”

उनकी यह बात दरअसल सरकार के पुराने रुख पर एक टिप्पणी भी थी, जो अक्सर यह कहती रही कि जातीय आंकड़े जुटाना तकनीकी रूप से जटिल है। लेकिन अब जब चुनाव समीप हैं, और सामाजिक न्याय की लहर दोबारा उफान पर है, तो जातीय गणना की घोषणा को कांग्रेस "जन-चेतना की जीत" के रूप में पेश कर रही है।

तेलंगाना बनाम बिहार मॉडल: राहुल की रणनीतिक तुलना

राहुल गांधी ने तेलंगाना और बिहार के दो जातीय सर्वेक्षण मॉडलों की तुलना करते हुए यह बताने की कोशिश की कि नीयत और नीति में अंतर कैसे होता है। उन्होंने साफ कहा, “तेलंगाना मॉडल में पारदर्शिता और भागीदारी ज़्यादा रही है। बिहार में जो किया गया, उसकी अपनी राजनीतिक सीमाएं थीं। हमें बताइए, आप कौन-सा मॉडल अपनाने जा रहे हैं?”

यह सवाल सिर्फ तकनीकी नहीं था। यह दरअसल एक चुनौती थी—केंद्र सरकार की मंशा पर सवाल उठाने की कोशिश।

आरक्षण की ‘50% दीवार’ पर सीधा प्रहार

राहुल गांधी ने एक बार फिर अपनी पुरानी बात को दोहराया—"हमने संसद में कहा था कि जातीय जनगणना होनी चाहिए, और 50% आरक्षण की कृत्रिम सीमा को हटाना चाहिए।" उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पूर्व टिप्पणी को भी याद दिलाया, जिसमें उन्होंने कहा था कि देश में केवल चार जातियाँ हैं।

इस ‘चार जातियों’ वाली टिप्पणी पर राहुल का तंज असल में समाज की विविधता को नज़रअंदाज़ करने की मानसिकता पर करारा प्रहार था। एक वरिष्ठ पत्रकार के नज़रिए से देखें तो यह एक ऐसे राजनीतिक नैरेटिव का निर्माण है, जिसमें कांग्रेस खुद को सामाजिक न्याय की ‘नई धुरी’ के रूप में स्थापित करना चाहती है।

‘सिर्फ आरक्षण नहीं, भागीदारी की बात होनी चाहिए’

राहुल गांधी ने इस विमर्श को सिर्फ आरक्षण तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने इसे ओबीसी, दलित, आदिवासी और सामाजिक रूप से वंचित तबकों की ‘सार्थक भागीदारी’ से जोड़ा। यह बात अहम है—क्योंकि यह एक व्यापक विकास मॉडल की ओर संकेत करती है।

उनके शब्दों में—“जातीय जनगणना केवल आंकड़े जुटाने का काम नहीं है। यह पूछने का काम है कि इस देश के फैसलों में, संस्थानों में, नौकरियों में—वंचित तबकों की असल भागीदारी कितनी है?”

यह बात किसी भी समाजशास्त्री या गंभीर राजनीतिक विश्लेषक के लिए बेहद अर्थपूर्ण है। यह एक राजनीतिक दल के घोषणापत्र से कहीं आगे की बात है—एक नया विमर्श गढ़ने की कोशिश।

निजी शिक्षा संस्थानों में आरक्षण पर उठाई मांग

कांग्रेस नेता ने संविधान के अनुच्छेद 15(5) का हवाला देते हुए निजी शिक्षा संस्थानों में आरक्षण लागू करने की मांग उठाई। उनका कहना था कि "यह पहले से ही कानून है, सिर्फ इच्छाशक्ति की जरूरत है।" यह बात ऐसे वक्त में कही गई जब उच्च शिक्षा संस्थानों में निजीकरण तेजी से बढ़ रहा है।

निष्कर्ष: यह राजनीति है, सिर्फ गणना नहीं

राहुल गांधी का यह पूरा बयान और उसका तर्कशास्त्र यह दिखाता है कि कांग्रेस अब ‘सिर्फ विपक्ष की भूमिका’ में नहीं रहना चाहती। वह नीति निर्माण की बहस में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने की कोशिश कर रही है।

यह एक साधारण प्रेस स्टेटमेंट नहीं था—यह एक राजनीतिक संदेश था, एक वैचारिक लड़ाई की दस्तक। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि राहुल गांधी ने इस बार किसी नारों में नहीं, बल्कि नीति के तथ्यों और संवैधानिक विकल्पों के आधार पर बात रखी।

अब देखना यह है कि केंद्र सरकार इस ‘पहले कदम’ को मंज़िल की ओर ले जाने का साहस दिखा पाती है या नहीं।

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