दैनिक जागरण – एक ऐसा नाम जिसे कभी हिंदी पट्टी की सबसे विश्वसनीय आवाज़ माना जाता था, अब उसी अख़बार के एक वरिष्ठ पत्रकार पर हमला उसी विचारधारा के समर्थकों द्वारा किया गया, जिसका वर्षों से वह अख़बार प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन करता रहा है।
कठुआ में क्या हुआ?
घटना जम्मू-कश्मीर के कठुआ ज़िले की है। 58 वर्षीय वरिष्ठ पत्रकार राकेश शर्मा, जो दैनिक जागरण के स्थानीय संस्करण से जुड़े हैं, पर भाजपा कार्यकर्ताओं ने बर्बर हमला किया। उनका ‘अपराध’ सिर्फ इतना था कि उन्होंने भाजपा नेताओं से एक सीधा सवाल पूछ लिया — “हर बार पाकिस्तान के पुतले जलाने के अलावा, क्या सुरक्षा में चूक की जिम्मेदारी तय नहीं होनी चाहिए?”
यह सवाल पहलगाम आतंकी हमले के बाद किया गया था, जिसमें 26 निर्दोष नागरिकों की मौत हो चुकी है।
सवाल पूछना ‘राष्ट्रविरोधी’ कैसे बन गया?
शर्मा द्वारा सवाल पूछने भर से ही एक भाजपा कार्यकर्ता, हिमांशु शर्मा, भड़क गया और उन्हें ‘पाकिस्तान की भाषा बोलने वाला पत्रकार’ कहकर उकसाया। इसके बाद, भाजपा समर्थकों की भीड़ ने उन्हें घेर लिया, लात-घूंसे मारे और दौड़ा-दौड़ाकर पीटा। वायरल वीडियो में साफ देखा जा सकता है कि किस तरह एक पत्रकार, जो खुद नफरत भरी रिपोर्टिंग का हिस्सा रहा है, अब उसी नफरत का शिकार हो रहा है।
विडंबना की परतें
यह महज़ एक हमला नहीं, बल्कि मीडिया और सत्ता के रिश्तों का आईना है। सालों से जिस अख़बार पर ‘ग़ोदी मीडिया’ होने के आरोप लगते रहे — जो सत्ताधारी दल के हर कदम को राष्ट्रवाद की चाशनी में लपेटकर परोसता रहा — अब उसी संस्थान का पत्रकार "देशद्रोही" करार दे दिया गया, सिर्फ एक सवाल पूछने पर।
“हमें सबक सिखाना था” – क्या यह साजिश थी?
राकेश शर्मा का दावा है कि यह हमला पूर्व नियोजित था। दो हफ्ते पहले भी उन्होंने एक भाजपा नेता के “पाकिस्तान को सबक सिखाने” वाले बयान पर सवाल उठाया था। उस समय उनका कैमरा बंद करवा दिया गया था। वे कहते हैं – “वह मुझे सबक सिखाना चाहता था… और सिखा भी दिया।”
दैनिक जागरण की ‘चुप्पी’ और सीमित कवरेज
इस घटना की सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि खुद दैनिक जागरण ने अपने जम्मू-कश्मीर और राष्ट्रीय संस्करणों में इस खबर को पूरी तरह से नजरअंदाज़ किया। केवल कठुआ के सिटी सप्लीमेंट में एक छोटी-सी खबर छपी — शीर्षक था: “कठुआ में दैनिक जागरण कर्मी पर हमला” — बिना किसी संदर्भ, बिना किसी विश्लेषण के।
पत्रकारों का विरोध और भाजपा की ढुलमुल प्रतिक्रिया
हमले के विरोध में 30 से अधिक पत्रकारों ने काली पट्टियाँ बाँधकर शहीदी चौक पर प्रदर्शन किया और भाजपा की कवरेज का बहिष्कार करने की घोषणा की। जबकि भाजपा विधायक देवेंद्र मनियाल और राजीव जसरोटिया घटना के समय मौके पर मौजूद थे, उन्होंने तुरंत हस्तक्षेप नहीं किया। बाद में औपचारिक “निंदा” ज़रूर की, लेकिन कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई।
क्या यही है भारत में प्रेस की आज़ादी की तस्वीर?
यह मामला सिर्फ राकेश शर्मा का नहीं है। यह एक प्रतीक है – उस गिरावट का जिसमें पत्रकारिता सत्ता की कठपुतली बनकर रह गई है, और जब कभी कोई अपने मालिक की परछाईं से निकलने की कोशिश करता है, तो उसे भीड़ की हिंसा का शिकार होना पड़ता है।
निष्कर्ष:
“जो बोया है, वही काटना पड़ेगा” — यह कहावत इस पूरे प्रकरण पर पूरी तरह सटीक बैठती है। वर्षों तक सत्ता की सेवा में झुकी पत्रकारिता ने जो ज़हर बोया, वही आज उनके अपने लोगों को निगलने लगा है। यह घटना हमें चेतावनी देती है — कि अगर पत्रकारिता को सचमुच लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बनाए रखना है, तो उसे नफ़रत नहीं, सवालों की ज़मीन पर खड़ा करना होगा।
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