रिपोर्ट: विशेष संवाददाता | दिनांक: 6 अप्रैल 2025 | स्थान: संभल, उत्तर प्रदेश
🕌 प्रस्तावना: धार्मिक स्थल से सियासी अखाड़ा बनने तक की कहानी
उत्तर प्रदेश के संभल जिले में स्थित ऐतिहासिक शाही जामा मस्जिद बीते कुछ समय से साजिशों, अफवाहों, प्रशासनिक दबाव और मीडिया ट्रायल के चक्रव्यूह में घिरी हुई है। 24 नवंबर 2024 को इस मस्जिद के बाहर हुई हिंसा को आधार बनाकर स्थानीय प्रशासन और पुलिस ने जिस प्रकार से एकतरफा कार्रवाई की है, उसने न केवल स्थानीय मुस्लिम समुदाय में भय का माहौल बना दिया है, बल्कि देशभर में अल्पसंख्यकों के बीच न्यायिक व्यवस्था पर अविश्वास की भावना को जन्म दिया है।
⚠️ विवाद की पृष्ठभूमि: धार्मिक दावे से उत्पन्न हुआ तनाव
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19 नवंबर 2024 को हिंदू पक्ष द्वारा चंदौसी सिविल कोर्ट में यह दावा किया गया कि शाही जामा मस्जिद श्री हरिहर मंदिर है।
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उसी शाम पहला चरण का सर्वे मस्जिद में किया गया।
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24 नवंबर को दूसरे चरण के सर्वे के दौरान भारी संख्या में लोग मस्जिद के बाहर एकत्र हुए।
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पुलिस और प्रशासन की लापरवाही व उत्तेजक रवैये के चलते पथराव और फायरिंग की घटनाएं हुईं, जिसमें चार नागरिकों की मौत हो गई और कई घायल हुए।
🧩 प्रमुख आरोप: एकतरफा कार्रवाई और साजिश की पटकथा
संभल पुलिस द्वारा जामा मस्जिद इंतजामिया कमेटी के अध्यक्ष जफर अली एडवोकेट को मुख्य षड्यंत्रकर्ता बताते हुए गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस के अनुसार:
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उन्हें सर्वे की सूचना 23 नवंबर को गोपनीय रूप से दी गई थी।
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उन्होंने कथित रूप से यह सूचना सार्वजनिक की और कई लोगों को फोन एवं मैसेज भेजे।
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रात 12 बजे मस्जिद कमेटी के कैशियर सुहैल खान के घर एक बैठक आयोजित की गई।
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इसी रात जफर अली की सांसद ज़िया उर रहमान बर्क से चार बार व्हाट्सएप पर बातचीत हुई।
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पुलिस का दावा है कि सांसद ने उन्हें सर्वे रोकने का निर्देश दिया और कथित रूप से कहा — "जामा मस्जिद हमारी है, और हमारी ही रहेगी। सर्वे होने पर हमारी कौम हम पर थूकेगी।"
इसके आधार पर जफर अली पर धारा 307 (हत्या की कोशिश), धारा 120B (षड्यंत्र) समेत कई गंभीर धाराओं में मुकदमा दर्ज किया गया और उन्हें जेल भेज दिया गया।
📉 न्याय का संतुलन टूटा: पुलिस की भूमिका सवालों के घेरे में
पुलिस कार्रवाई में कई असंगतियाँ और पूर्वाग्रह देखने को मिले हैं:
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अब तक केवल मुस्लिम समुदाय से 79 लोगों की गिरफ्तारी, जिनमें तीन महिलाएँ भी शामिल हैं।
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जफर अली की नियमित ज़मानत याचिका खारिज कर दी गई, जबकि FIR और साक्ष्य पूरी तरह से पुलिस के कथन पर आधारित हैं।
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SIT द्वारा पूछताछ भी पुलिस थ्योरी पर केंद्रित, कोई स्वतंत्र जांच अधिकारी नामित नहीं किया गया।
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किसी हिन्दू संगठन या व्यक्ति के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई, जबकि तनाव का मूल स्रोत धार्मिक दावा और विवादित सर्वे था।
📺 मीडिया की भूमिका: खबर कम, एजेंडा ज़्यादा
इस पूरे घटनाक्रम में कुछ मीडिया संस्थानों द्वारा पुलिस के दावे को बिना किसी स्वतंत्र पुष्टि के 'सच' मानकर जिस तरह प्रचारित किया गया, वह भारतीय पत्रकारिता के लिए एक काला अध्याय बनता जा रहा है:
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बिना किसी साक्ष्य के जफर अली और बर्क के बीच हुई कथित बातचीत को प्रमुख हेडलाइन बनाया गया।
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बैठकों को ‘षड्यंत्र’ की मीटिंग करार दिया गया, जबकि कोई ठोस रिकॉर्ड या ऑडियो सामने नहीं आया।
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भीड़ को “मॉब” और “आतंकवादी तत्व” कह कर प्रचारित किया गया, जिससे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को हवा मिली।
✊ मुस्लिम समाज की माँगें: न्याय, जवाबदेही और संविधान की रक्षा
स्थानीय मुस्लिम समाज, वकील संघ, सामाजिक कार्यकर्ता और कई पूर्व न्यायविद अब इस पूरे मामले को लेकर संगठित हो रहे हैं और निम्नलिखित माँगें रख रहे हैं:
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सुप्रीम कोर्ट इस मामले का स्वतः संज्ञान ले और उच्च स्तरीय न्यायिक जांच का आदेश दे।
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संभल पुलिस प्रशासन के कार्यों की स्वतंत्र जांच हो।
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पुलिस विभाग में शामिल उन अधिकारियों का तत्काल ट्रांसफर हो जो इस साजिश में शामिल हैं या पक्षपात कर रहे हैं।
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जफर अली एडवोकेट समेत सभी निर्दोषों की शीघ्र रिहाई हो।
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मीडिया संस्थानों द्वारा फैलाए गए झूठे और भ्रामक समाचारों की प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा जाँच हो।
🧭 निष्कर्ष:
यह सिर्फ संभल नहीं, पूरे भारत की न्याय व्यवस्था की अग्निपरीक्षा है
अब ज़रूरत है एक निष्पक्ष, पारदर्शी और जवाबदेह न्याय प्रक्रिया की। सुप्रीम कोर्ट, मानवाधिकार आयोग और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया को इसमें हस्तक्षेप कर लोकतंत्र और न्याय का संतुलन बहाल करना चाहिए।