ग़ज़ा के लोग आज एक ऐतिहासिक और कठिन निर्णय के मोड़ पर खड़े हैं। क्या वे अपने उजड़े घरों को फिर से बसाने के लिए संघर्ष करें या अपने परिवार और बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए हमेशा के लिए कहीं और चले जाएं? यह सवाल न केवल ग़ज़ा के नागरिकों के लिए बल्कि पूरे अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए बहस का एक अहम मुद्दा बन गया है। ग़ज़ा की स्थिति अब वैश्विक चर्चा का केंद्र बन चुकी है, जहां दुनिया के बड़े नेता इस बात पर विचार कर रहे हैं कि यहां के नागरिकों का भविष्य क्या होगा।
जबालिया: एक उजड़ा शहर जो फिर से सांस लेने की कोशिश कर रहा है
ग़ज़ा का जबालिया कैंप, जो कभी घनी आबादी वाला इलाका हुआ करता था, अब एक बर्बाद नगर में बदल चुका है। यदि इसे ऊपर से देखा जाए, तो यह किसी भयंकर परमाणु हमले के बाद के दृश्य जैसा प्रतीत होता है। चारों ओर मलबे का अंबार है, टूटी-फूटी इमारतें हवा में झूल रही हैं, और कुछ इमारतें अजीब कोणों पर खड़ी हुई हैं, मानो वे किसी भी क्षण गिर पड़ेंगी।
और फिर भी, इन सभी तबाहियों के बीच जीवन धीरे-धीरे अपनी जगह बना रहा है। ड्रोन कैमरों से ली गई तस्वीरों में दिखता है कि मलबे के बीच छोटे-छोटे तंबू लगाए जा रहे हैं, जहां बेघर हुए लोग शरण ले रहे हैं। टूटी हुई सड़कों के किनारे अस्थायी बाजार फिर से लगने लगे हैं। बच्चे अपने उजड़े हुए घरों के छतों से फिसलकर खेल रहे हैं। यह सब इस बात का संकेत है कि तबाही के बावजूद, इंसान की जिजीविषा उसे जीने का रास्ता दिखाती है।
टूटे हुए घर, लेकिन न टूटने वाला जज़्बा
नबील, जबालिया के उन लोगों में से एक हैं जो वापस लौटे हैं। उनका चार मंज़िला घर किसी चमत्कार से अब भी खड़ा है, लेकिन उसमें न खिड़कियाँ बची हैं, न दरवाजे, और न ही कई जगहों पर दीवारें। फिर भी, वह और उनका परिवार इसे रहने लायक बनाने की कोशिश में जुटे हुए हैं। उन्होंने लकड़ी के पट्टों से अस्थायी बालकनी बना ली है और प्लास्टिक की चादरों से टेंट बनाकर खुद को सर्दी और बारिश से बचाने का प्रयास कर रहे हैं।
नबील मलबे के समुद्र को देखते हुए कहते हैं, "वे चाहते हैं कि हम इसे बिना दोबारा बनाए छोड़ दें? यह संभव नहीं है। हमें इसे अपने बच्चों के लिए फिर से खड़ा करना ही होगा।"
खाने के लिए, नबील सीढ़ियों पर एक छोटा सा चूल्हा जलाते हैं और उसमें कार्डबोर्ड के टुकड़ों से आग जलाकर भोजन पकाने की कोशिश करते हैं। यह संघर्ष उनकी रोज़मर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुका है।
जिंदगी की मुश्किलें और टूटते सपने
लैला अहमद ओकाशा, जो उसी इमारत में रहती हैं, अब बिना पानी और बिजली के गुज़ारा कर रही हैं। उनका सिंक सूखा पड़ा है और नल महीनों से पानी देना बंद कर चुका है। वह कहती हैं, "अगर हमें पानी चाहिए, तो हमें बहुत दूर जाना पड़ता है और बाल्टियों में भरकर लाना पड़ता है।"
जब वह अपने घर लौटीं और उसकी दुर्दशा देखी, तो उनकी आँखों में आँसू भर आए। वे इज़राइल और हमास दोनों को इस विनाश के लिए ज़िम्मेदार ठहराती हैं।
"हम पहले एक सम्मानजनक और आरामदायक जीवन जी रहे थे। अब हमारा सब कुछ चला गया है," वह दुखी स्वर में कहती हैं।
युद्ध की शुरुआत और जबालिया का विनाश
अक्टूबर 2023 में जब युद्ध शुरू हुआ, तो इज़राइली सरकार ने उत्तरी ग़ज़ा के नागरिकों, जिनमें जबालिया के निवासी भी शामिल थे, को दक्षिण की ओर जाने की चेतावनी दी थी। लाखों लोगों ने इस चेतावनी को माना और सुरक्षित ठिकानों की ओर रवाना हुए, लेकिन कुछ लोगों ने वहां रहने का फैसला किया, यह सोचकर कि वे युद्ध को झेल लेंगे।
लैला और उनके पति मरवान भी ऐसे ही लोगों में शामिल थे। उन्होंने जबालिया में ही रहने की ठानी, लेकिन जब इज़राइली सेना ने फिर से हमला किया और दावा किया कि हमास ने इस इलाके में अपनी सैन्य ताकत को पुनर्गठित कर लिया है, तब उन्हें मजबूरी में भागना पड़ा। दो महीने तक पास के शाती कैंप में रहने के बाद, जब वे लौटे, तो उन्होंने पाया कि जबालिया अब पहले जैसा नहीं रहा।
"जब मैंने देखा कि हमारा शहर पूरी तरह बर्बाद हो चुका है, तो मेरा यहां रुकने का मन ही नहीं किया," मरवान कहते हैं। "पहले मैं यहां बहुत खुश था, लेकिन अब यह जगह नरक बन चुकी है। अगर मुझे कहीं जाने का मौका मिला, तो मैं एक मिनट भी यहां नहीं ठहरूंगा।"
ग़ज़ा के भविष्य को लेकर अंतरराष्ट्रीय बहस
अब सवाल यह उठ रहा है कि ग़ज़ा के नागरिकों को क्या करना चाहिए? उनका भविष्य क्या होगा? यह मुद्दा अब वैश्विक राजनीति का केंद्र बन चुका है।
फरवरी में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सुझाव दिया था कि अमेरिका को ग़ज़ा का नियंत्रण अपने हाथ में ले लेना चाहिए और लगभग 20 लाख फ़लस्तीनियों को स्थायी रूप से बाहर कर देना चाहिए।
इस प्रस्ताव ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हंगामा खड़ा कर दिया। अरब देशों ने इस विचार को सख्ती से खारिज कर दिया और मिस्र ने इस पर चर्चा के लिए एक आपातकालीन बैठक बुलाई।
मिस्र द्वारा पेश किए गए प्रस्ताव में साफ़ कहा गया कि ग़ज़ा के नागरिकों को वहीं रहना चाहिए और इस क्षेत्र का पुनर्निर्माण किया जाना चाहिए।
लैला ट्रंप के इस प्रस्ताव पर गुस्से में कहती हैं, "अगर ट्रंप चाहते हैं कि हम यहां से निकल जाएं, तो मैं और मजबूती से यहीं रहूंगी। मैं अपनी मर्ज़ी से कहीं जाऊंगी, किसी के कहने पर नहीं।"
ग़ज़ा में जीवन की जिजीविषा
कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने इस मुश्किल दौर में भी हार नहीं मानी। सना अबू इशबक, जो शादी के कपड़ों की डिज़ाइनर हैं, ने दो साल पहले अपना व्यवसाय शुरू किया था, लेकिन युद्ध के कारण उन्हें भागना पड़ा।
जैसे ही युद्धविराम हुआ, वह वापस लौट आईं और अपने परिवार के साथ अपने दुकान को फिर से ठीक करने में जुट गईं। अब वह फिर से अपने व्यवसाय को जीवित करने की कोशिश कर रही हैं।
"मैं जबालिया कैंप से कभी नहीं जाऊंगी, जब तक मेरी जान है," वह दृढ़ता से कहती हैं।
लेकिन जब वे अगली पीढ़ी के बारे में सोचती हैं, तो उनका स्वर बदल जाता है। लैला अपनी पोती की ओर इशारा करते हुए कहती हैं, "उसे अपना नाम लिखना तक नहीं आता, क्योंकि ग़ज़ा में अब कोई शिक्षा नहीं बची है।"
निष्कर्ष: ग़ज़ा का भविष्य क्या होगा?
ग़ज़ा के लोग आज जीवन और भविष्य के दोराहे पर खड़े हैं। वे अपने बर्बाद घरों को फिर से बसाने का सपना देख रहे हैं, लेकिन सुरक्षा, शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी ने उनके फैसले को कठिन बना दिया है।
वैश्विक नेता इस मुद्दे पर बहस कर रहे हैं, लेकिन असली सवाल यही है: क्या ग़ज़ा के नागरिक अपने घरों को छोड़ देंगे या फिर संघर्ष करके अपने उजड़े हुए शहर को फिर से बसाएंगे? केवल समय ही इस सवाल का जवाब दे सकता है।
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