नई दिल्ली: 2020 में हुए भयावह दिल्ली दंगों में कथित रूप से भड़काऊ भाषण देकर हिंसा फैलाने वाले भाजपा नेता कपिल मिश्रा पर FIR दर्ज करने की याचिका को दिल्ली पुलिस ने खारिज कर दिया है। बुधवार को हुई सुनवाई में पुलिस ने अदालत को बताया कि इस मामले की पहले ही गहराई से जांच की जा चुकी है और मिश्रा के खिलाफ कोई भी आपराधिक साक्ष्य नहीं मिला है।
मोहम्मद इलियास की याचिका और अदालत की सुनवाई
यमुना विहार निवासी मोहम्मद इलियास ने दिसंबर 2024 में यह याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने कपिल मिश्रा सहित छह अन्य लोगों के खिलाफ जांच और कानूनी कार्रवाई की मांग की थी। इलियास ने दावा किया कि इन लोगों की भूमिका 2020 में भड़की सांप्रदायिक हिंसा में महत्वपूर्ण थी, जिसमें 53 लोग मारे गए थे और 700 से अधिक लोग घायल हुए थे। इस मामले की सुनवाई अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट वैभव चौहान की अदालत में हुई।
कपिल मिश्रा की भूमिका पर गंभीर आरोप
याचिकाकर्ता इलियास ने अपने बयान में आरोप लगाया कि 23 फरवरी 2020 को उन्होंने कपिल मिश्रा और अन्य को कर्दमपुरी में सड़क अवरुद्ध करते हुए और वहां के रेहड़ी-पटरी वालों के सामान को नष्ट करते हुए देखा था। उन्होंने आगे कहा कि उस समय उत्तर-पूर्व दिल्ली के तत्कालीन डीसीपी और अन्य पुलिस अधिकारी मिश्रा के साथ खड़े थे, जब उन्होंने CAA विरोधी प्रदर्शनकारियों को खुलेआम धमकी दी थी।
इसके अलावा, इलियास ने यह भी आरोप लगाया कि मिश्रा ने अपने समर्थकों को उकसाया, जिससे सांप्रदायिक तनाव बढ़ा और हिंसा भड़की। कई चश्मदीदों और स्वतंत्र रिपोर्टों के अनुसार, मिश्रा के बयान के तुरंत बाद ही उत्तर-पूर्वी दिल्ली में तनाव चरम पर पहुंच गया था।
मिश्रा पर कार्रवाई क्यों नहीं?
दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली दंगों की शुरुआत कपिल मिश्रा के भड़काऊ भाषण के बाद ही हुई थी। रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया कि मिश्रा ने खुलेआम धमकी देते हुए कहा था कि अगर पुलिस ने CAA विरोधी प्रदर्शनकारियों को नहीं हटाया, तो वे खुद सड़कों पर उतरेंगे। उनके इस बयान के तुरंत बाद ही हिंसा भड़क उठी, लेकिन इसके बावजूद, उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की गई।
क्या पुलिस और प्रशासन ने जानबूझकर मिश्रा को बचाया?
कई मानवाधिकार संगठनों और राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पुलिस ने जानबूझकर कपिल मिश्रा के खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं की। यह संदेह इस तथ्य से भी मजबूत होता है कि अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं को मात्र सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर गिरफ्तार किया गया, जबकि मिश्रा के खिलाफ इतने गंभीर आरोप होने के बावजूद, पुलिस ने उनके खिलाफ कोई सख्त कदम नहीं उठाया।
राजनीतिक संरक्षण या न्यायिक चूक?
मिश्रा पर बार-बार आरोप लगने के बावजूद, पुलिस द्वारा उनके खिलाफ कोई ठोस कदम न उठाया जाना कई सवाल खड़े करता है। क्या पुलिस निष्पक्ष जांच करने में विफल रही है, या फिर राजनीतिक दबाव के चलते मिश्रा को सुरक्षा प्रदान की जा रही है? क्या यह मामला सत्ता पक्ष के प्रति न्यायिक प्रणाली की ढिलाई को दर्शाता है? इन सवालों का जवाब अब तक अधर में लटका हुआ है।
दंगा पीड़ितों को न्याय की तलाश
दिल्ली दंगों के पीड़ितों को आज भी न्याय की तलाश है। सैकड़ों परिवार अभी भी अपने खोए हुए प्रियजनों का ग़म मना रहे हैं और कई लोगों की आजीविका तबाह हो चुकी है। लेकिन जब हिंसा भड़काने के आरोपी खुलेआम घूम रहे हों और सत्ताधारी दल के नेताओं का संरक्षण प्राप्त कर रहे हों, तो न्याय की उम्मीद धुंधली होती जाती है।
अब देखना यह होगा कि इस फैसले के खिलाफ कोई नई अपील दायर की जाती है या नहीं। क्या न्यायपालिका इस मामले को फिर से संज्ञान में लेकर निष्पक्ष जांच का आदेश देगी, या फिर इस मामले को भी अन्य राजनीतिक विवादों की तरह भुला दिया जाएगा?
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