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नई शिक्षा नीति पर संसद में घमासान: क्या बीजेपी डीएमके के जाल में फँस गई?

नई शिक्षा नीति (NEP) को लेकर संसद में हंगामा बढ़ता जा रहा है। केंद्र सरकार और तमिलनाडु की डीएमके सरकार के बीच आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला तेज हो गया है। इस मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और डीएमके के बीच जबरदस्त टकराव देखने को मिला, जिससे संसद में भारी हंगामा हुआ और सदन को स्थगित करना पड़ा। यह विवाद केवल संसद तक सीमित नहीं रहा, बल्कि सोशल मीडिया और राजनीतिक गलियारों में भी इसकी गूँज सुनाई दी।

तमिलनाडु बनाम केंद्र: शिक्षा नीति पर सियासी संग्राम!

संसद में प्रश्नकाल के दौरान केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान और डीएमके सांसदों के बीच तीखी बहस छिड़ गई। प्रधान ने डीएमके सरकार पर छात्रों के भविष्य के साथ राजनीति करने का आरोप लगाया और दावा किया कि तमिलनाडु सरकार राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) को लेकर अपने रुख में यू-टर्न ले रही है। उन्होंने कहा कि डीएमके पहले पीएम-श्री स्कूलों के समर्थन में थी, लेकिन अब वह इसे लेकर विरोध जता रही है।

दूसरी ओर, डीएमके सांसदों ने केंद्र सरकार पर तमिलनाडु के फंड रोकने का आरोप लगाया और दावा किया कि राज्य को जानबूझकर निशाना बनाया जा रहा है। डीएमके सांसद टी. सुमति ने आरोप लगाया कि लगभग 2,000 करोड़ रुपये की राशि, जो तमिलनाडु के लिए आवंटित की गई थी, अन्य राज्यों को ट्रांसफर कर दी गई। उन्होंने इसे ‘सहकारी संघवाद पर कुठाराघात’ करार दिया और पूछा कि क्या केंद्र सरकार राजनीतिक बदले की भावना से काम कर रही है?

स्टालिन का तीखा पलटवार: 'आप राजा नहीं, शब्दों पर लगाम रखें'

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने इस मुद्दे पर केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को आड़े हाथों लिया। उन्होंने सोशल मीडिया पर प्रधान के बयानों को ‘अहंकारी’ बताते हुए कहा, “धर्मेंद्र प्रधान राजा नहीं हैं कि वे तमिलनाडु सरकार और हमारे सांसदों को निर्देश दें। उन्हें अपने शब्दों पर नियंत्रण रखना चाहिए।”

स्टालिन ने दावा किया कि केंद्र सरकार तमिलनाडु की शिक्षा व्यवस्था को कमजोर करने की साजिश रच रही है। उन्होंने यह भी कहा कि उनकी सरकार ने शुरू से ही नई शिक्षा नीति और तीन-भाषा फॉर्मूले का विरोध किया था, और केंद्र सरकार जबरन इसे थोपने की कोशिश कर रही है।

बीजेपी की रणनीति फेल? तमिलनाडु में अलग-थलग पड़ती बीजेपी

बीजेपी नेताओं के भीतर इस बात को लेकर चिंता बढ़ रही है कि डीएमके इस मुद्दे को चुनावी हथियार बनाकर तमिलनाडु में अपनी पकड़ और मजबूत कर सकती है। लोकसभा चुनावों के दौरान बीजेपी ने राज्य में अपनी मौजूदगी बढ़ाने की कोशिश की थी, लेकिन अब यह नया विवाद उसके लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है।

तमिलनाडु में बीजेपी को सहयोगी दलों की तलाश है, लेकिन इस विवाद के चलते उसका काम और कठिन हो सकता है। इस बीच, एआईएडीएमके, जो पहले बीजेपी की सहयोगी रही है, इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हुए है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, “बीजेपी को तमिलनाडु में अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना होगा। हिंदी थोपने की धारणा यहाँ आज भी गहरी है।”

क्या हिंदी विरोध अब भी उतना प्रभावी है? बीजेपी को राहत या नया सिरदर्द?

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि समय के साथ तमिलनाडु में हिंदी विरोधी भावना कम हुई है। आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, जिससे हिंदी विरोध अब उतना प्रभावी नहीं रहा। लेकिन डीएमके इसे चुनावी मुद्दा बनाकर इसका राजनीतिक फायदा उठा सकती है।

एक वरिष्ठ बीजेपी नेता ने कहा, “1947 में, तमिलनाडु में अंग्रेजी जानने वालों की संख्या 4-5% थी, लेकिन अब यह 45% हो चुकी है। ऐसे में हिंदी विरोध पहले जैसा असरदार नहीं रह गया है।” हालांकि, डीएमके का तर्क है कि भाषा का मुद्दा केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अस्मिता का भी है।

आगे क्या? बीजेपी और डीएमके की अगली चाल पर सबकी नजर!

अब यह देखना दिलचस्प होगा कि केंद्र सरकार तमिलनाडु के साथ अपने संबंध सुधारने के लिए क्या कदम उठाती है। क्या बीजेपी इस विवाद से निकलकर राज्य में अपनी पकड़ मजबूत कर पाएगी, या डीएमके इस मुद्दे को भुनाकर बीजेपी को पूरी तरह अलग-थलग कर देगी? इस मुद्दे पर आगे की रणनीति तय करने के लिए दोनों दलों की बैठकें तेज हो गई हैं।

तमिलनाडु में अगले विधानसभा चुनावों से पहले यह मुद्दा कितना बड़ा रूप लेगा, यह आने वाले हफ्तों में साफ हो जाएगा। लेकिन फिलहाल, यह बहस बीजेपी और डीएमके के बीच एक और बड़े राजनीतिक संघर्ष का संकेत दे रही है।

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