बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव: नीतीश कुमार सरकार का मंत्रिमंडल विस्तार
बिहार की राजनीति में एक बार फिर से महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिला है। चुनावी वर्ष में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया है, जिसमें सात नए मंत्रियों को शामिल किया गया है। ये सभी मंत्री भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के कोटे से हैं। इस विस्तार के बाद बिहार कैबिनेट में बीजेपी के मंत्रियों की संख्या जेडीयू से डेढ़ गुना अधिक हो गई है। यह बदलाव न केवल राज्य की राजनीति में नए समीकरणों को जन्म दे रहा है, बल्कि यह भी संकेत देता है कि क्या बीजेपी अब जेडीयू पर हावी हो रही है?
जातीय समीकरण और राजनीतिक गणित
नए मंत्रियों में जातीय संतुलन का विशेष ध्यान रखा गया है। शामिल किए गए मंत्रियों में तीन पिछड़े, दो अति पिछड़े और दो सवर्ण समुदाय से आते हैं। ये मंत्री निम्नलिखित हैं:
संजय सरावगी (दरभंगा)
सुनील कुमार (बिहारशरीफ)
जिवेश कुमार (जाले)
राजू कुमार सिंह (साहेबगंज)
मोतीलाल प्रसाद (रीगा)
विजय कुमार मंडल (सिकटी)
कृष्ण कुमार मंटू (अमनौर)
बीजेपी ने इस विस्तार के जरिए अपने कोर वोट बैंक को संतुष्ट करने का प्रयास किया है। खासतौर पर वैश्य समुदाय से दो मंत्रियों को जगह दी गई है, जो बीजेपी के मुख्य समर्थक माने जाते हैं। इसके अलावा, मिथिलांचल क्षेत्र को भी इस विस्तार में प्राथमिकता दी गई है। दरभंगा और सीतामढ़ी से तीन मंत्रियों की नियुक्ति की गई, जिन्होंने मैथिली भाषा में शपथ ली और 'पाग' पहनकर मिथिला की सांस्कृतिक पहचान को दर्शाया।
बीजेपी का बढ़ता दबदबा
इस विस्तार के बाद बिहार कैबिनेट में बीजेपी के 21, जेडीयू के 13, 'हम' पार्टी के 1 और 1 निर्दलीय मंत्री शामिल हैं। यह 2005 के बाद पहली बार हुआ है जब एनडीए सरकार में बीजेपी के मंत्रियों की संख्या जेडीयू से अधिक हो गई है। वरिष्ठ पत्रकार दयानंद झा के अनुसार, "बीजेपी अब बिहार में अपनी स्थिति मजबूत कर रही है। मिथिलांचल पर बीजेपी का विशेष ध्यान है, जिसे वह मखाना उद्योग और अन्य विकास योजनाओं के माध्यम से साधने की कोशिश कर रही है।"
जेडीयू की चुप्पी और नीतीश कुमार की रणनीति
इस विस्तार में जेडीयू से किसी नए मंत्री को शामिल नहीं किया गया है। जेडीयू नेताओं ने इस पर खुलकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। पार्टी प्रवक्ता नीरज कुमार ने कहा, "सभी निर्णय राष्ट्रीय अध्यक्ष के अधीन होते हैं। पार्टी हित को ध्यान में रखकर ही फैसला लिया गया है।"
हालांकि, कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह नीतीश कुमार की कमजोर होती पकड़ का संकेत है। वरिष्ठ पत्रकार अरुण श्रीवास्तव के अनुसार, "भागलपुर रैली में नीतीश कुमार की उपस्थिति बहुत फीकी रही, जो उनके गिरते प्रभाव को दर्शाती है।"
नीतीश कुमार की रणनीति: चुनावी सौदेबाजी या मजबूरी?
राजनीतिक विश्लेषक कन्हैया भेलारी का मानना है कि इस मंत्रिमंडल विस्तार के पीछे तीन प्रमुख संकेत छिपे हैं:
नीतीश कुमार अब बीजेपी से अलग नहीं होंगे।
विधानसभा चुनाव समय पर होंगे।
जेडीयू सीट बंटवारे में मजबूत स्थिति में होगी।
नीतीश कुमार को एक 'हार्ड बारगेनर' माना जाता है, जो चुनावी समीकरणों को अपने पक्ष में मोड़ने की कला में माहिर हैं।
जातीय और क्षेत्रीय समीकरणों का संतुलन
मंत्रिमंडल विस्तार में शामिल किए गए नेताओं के जातीय संतुलन पर नजर डालें तो यह स्पष्ट होता है कि बीजेपी ने अपने पारंपरिक वोट बैंक (सवर्ण और वैश्य) के साथ-साथ जेडीयू के लव-कुश (कुर्मी-कुशवाहा) और अति पिछड़ा वर्ग को भी साधने का प्रयास किया है।
भूमिहार: जिवेश कुमार
राजपूत: राजू कुमार सिंह
वैश्य: संजय सरावगी, मोतीलाल प्रसाद
कुर्मी: कृष्ण कुमार मंटू
कुशवाहा: सुनील कुमार
अति पिछड़ा: विजय कुमार मंडल
खासकर, कृष्ण कुमार मंटू की नियुक्ति इस संदर्भ में दिलचस्प है क्योंकि हाल ही में पटना में आयोजित 'कुर्मी एकता रैली' में उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
निष्कर्ष:-
बिहार कैबिनेट विस्तार से यह साफ़ है कि बीजेपी अब राज्य की राजनीति में अपना प्रभाव बढ़ा रही है। जेडीयू के मंत्रियों की संख्या कम होने से नीतीश कुमार की स्थिति पर भी सवाल उठ रहे हैं। आगामी विधानसभा चुनावों में यह जातीय और क्षेत्रीय समीकरण किस प्रकार काम करेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा। फिलहाल, बिहार की राजनीति में बीजेपी का बढ़ता दबदबा और जेडीयू की कमजोर होती स्थिति चर्चा का प्रमुख विषय बनी हुई है।