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भारत की विदेश नीति 2025: चुनौतियाँ और रणनीतियाँ

 वर्ष 2025 में भारत की विदेश नीति के समक्ष कई महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ उभरकर सामने आई हैं। वैश्विक परिदृश्य में तीव्र परिवर्तन, क्षेत्रीय अस्थिरता और प्रमुख शक्तियों के साथ संबंधों में जटिलता ने भारत के लिए एक संतुलित और सशक्त कूटनीतिक दृष्टिकोण की आवश्यकता को रेखांकित किया है। हालांकि, मोदी सरकार के दस वर्षों के कार्यकाल में विदेश नीति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल करने के दावों के बावजूद, यह स्पष्ट होता जा रहा है कि कई मोर्चों पर यह नीति अपेक्षित परिणाम देने में विफल रही है।


प्रारंभिक वर्षों की विदेश यात्राएँ: अवसर या आडंबर?

मोदी सरकार के शुरुआती वर्षों में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेश यात्राओं पर विशेष जोर दिया। इन यात्राओं का उद्देश्य भारत की वैश्विक स्थिति को मजबूत करना, निवेश को आकर्षित करना और कूटनीतिक संबंधों को नई ऊँचाइयों पर ले जाना था। लेकिन इन यात्राओं के ठोस परिणाम अब भी सवालों के घेरे में हैं। बड़े-बड़े वादों के बावजूद, इनमें से अधिकांश यात्राएँ प्रतीकात्मक साबित हुईं।

विदेश नीति में असफलताएँ: वर्तमान स्थिति

  1. अमेरिका के साथ जटिल संबंध: डोनाल्ड ट्रंप के प्रशासन के दौरान और अब 2025 में, अमेरिका के साथ संबंधों में स्थिरता नहीं आ सकी है। खालिस्तान समर्थक गतिविधियों और एच1-बी वीज़ा नीतियों ने भारत के लिए नई चुनौतियाँ खड़ी की हैं।

  2. रूस के साथ संबंधों में असंतुलन: रूस से तेल आयात और पश्चिमी प्रतिबंधों के बीच संतुलन बनाने में भारत अब तक कोई निर्णायक भूमिका नहीं निभा सका है।

  3. बांग्लादेश और पड़ोसी देशों के साथ संबंध: बांग्लादेश में राजनीतिक अस्थिरता और पाकिस्तान के साथ बढ़ता उसका सहयोग, भारत की प्रभावशाली विदेश नीति की कमी को उजागर करता है।

  4. चीन के साथ तनाव: सीमा विवाद और आर्थिक प्रतिस्पर्धा में कोई ठोस समाधान निकालने में मोदी सरकार विफल रही है।

  5. मध्य पूर्व में अस्थिरता: इसराइल-हमास संघर्ष के चलते भारत की ऊर्जा सुरक्षा पर खतरे बढ़े हैं, लेकिन प्रभावी कूटनीति अब तक देखने को नहीं मिली।

  6. कनाडा के साथ तनावपूर्ण संबंध: खालिस्तानी गतिविधियों के बढ़ने और भारतीय समुदाय के खिलाफ हिंसा के बावजूद, मोदी सरकार कोई ठोस कदम उठाने में असमर्थ रही है।

प्राथमिकताओं का फेरबदल: कूटनीति या आंतरिक राजनीति?

मोदी सरकार की प्राथमिकता विदेश नीति को मजबूत करने से अधिक, आंतरिक राजनीति पर केंद्रित रही है। सरकार ने विकास और आधारभूत ढाँचे को बढ़ावा देने के दावे किए, लेकिन यह स्पष्ट है कि सरकार ने धार्मिक ध्रुवीकरण और नफरत की राजनीति को बढ़ावा देकर अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत करने का प्रयास किया है।

सरकार का ध्यान देश को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करने और बहुसंख्यक समाज को संतुष्ट करने पर अधिक रहा है। इस नीति ने न केवल सामाजिक ताने-बाने को कमजोर किया है, बल्कि भारत की वैश्विक छवि को भी धक्का पहुँचाया है।

10 वर्षों के बाद भी विदेश नीति में वांछित परिणाम नहीं

दस वर्षों के लंबे कार्यकाल के बाद, मोदी सरकार की विदेश नीति की विफलताएँ स्पष्ट हो चुकी हैं। जहाँ शुरुआती वर्षों में विदेश यात्राओं को सरकार की सक्रियता का प्रतीक माना गया था, वहीं अब यह धारणा बन रही है कि यह सक्रियता केवल दिखावे तक सीमित थी।

निष्कर्ष: आगे का रास्ता

इन सभी चुनौतियों के बीच, भारत को विदेश नीति में नए दृष्टिकोण की आवश्यकता है।

  1. सांप्रदायिकता से परे नीति: धार्मिक आधार पर समाज को विभाजित करने के बजाय, समावेशी नीति अपनाना।
  2. व्यावहारिक कूटनीति: विदेश यात्राओं के बजाय ठोस परिणाम देने वाली नीतियों पर ध्यान केंद्रित करना।
  3. सामाजिक और वैश्विक छवि का सुधार: नफरत की राजनीति को समाप्त कर, वैश्विक मंच पर भारत की स्थिति को मजबूत करना।

मोदी सरकार को चाहिए कि वह आंतरिक राजनीति और धार्मिक ध्रुवीकरण से ऊपर उठकर विदेश नीति और विकास को प्राथमिकता दे। तभी भारत आने वाले वर्षों में वैश्विक नेतृत्व की ओर कदम बढ़ा सकेगा।

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