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देवी प्रसाद मिश्र की कुछ कवितायेँ आज के नफरत भरे माहौल में

 देवी प्रसाद मिश्र 







1-कविता 

मुसलमान

कहते हैं वे विपत्ति की तरह आए

कहते हैं वे प्रदूषण की तरह फैले


वे व्याधि थे

ब्राह्मण कहते थे वे मलेच्छ थे


वे मुसलमान थे

उन्होंने अपने घोड़े सिंधु में उतारे


और पुकारते रहे हिंदू! हिंदू!! हिंदू!!!

बड़ी जाति को उन्होंने बड़ा नाम दिया


नदी का नाम दिया

वे हर गहरी और अविरल नदी को


पार करना चाहते थे

वे मुसलमान थे लेकिन वे भी


यदि कबीर की समझदारी का सहारा लिया जाए तो

हिंदुओं की तरह पैदा होते थे


उनके पास बड़ी-बड़ी कहानियाँ थीं

चलने की


ठहरने की

पिटने की


और मृत्यु की

प्रतिपक्षी के ख़ून में घुटनों तक


और अपने ख़ून में कंधों तक

वे डूबे होते थे


उनकी मुट्ठियों में घोड़ों की लगामें

और म्यानों में सभ्यता के


नक़्शे होते थे

न! मृत्यु के लिए नहीं


वे मृत्यु के लिए युद्ध नहीं लड़ते थे

वे मुसलमान थे


वे फ़ारस से आए

तूरान से आए


समरकंद, फ़रग़ना, सीस्तान से आए

तुर्किस्तान से आए


वे बहुत दूर से आए

फिर भी वे पृथ्वी के ही कुछ हिस्सों से आए


वे आए क्योंकि वे आ सकते थे

वे मुसलमान थे


वे मुसलमान थे कि या ख़ुदा उनकी शक्लें

आदमियों से मिलती थीं हूबहू


हूबहू

वे महत्त्वपूर्ण अप्रवासी थे


क्योंकि उनके पास दुख की स्मृतियाँ थीं

वे घोड़ों के साथ सोते थे


और चट्टानों पर वीर्य बिखेर देते थे

निर्माण के लिए वे बेचैन थे


वे मुसलमान थे

यदि सच को सच की तरह कहा जा सकता है


तो सच को सच की तरह सुना जाना चाहिए

कि वे प्रायः इस तरह होते थे


कि प्रायः पता ही नहीं लगता था

कि वे मुसलमान थे या नहीं थे


वे मुसलमान थे

वे न होते तो लखनऊ न होता


आधा इलाहाबाद न होता

मेहराबें न होतीं, गुंबद न होता


आदाब न होता

मीर मक़दूम मोमिन न होते


शबाना न होती

वे न होते तो उपमहाद्वीप के संगीत को सुनने वाला ख़ुसरो न होता


वे न होते तो पूरे देश के ग़ुस्से से बेचैन होने वाला कबीर न होता

वे न होते तो भारतीय उपमहाद्वीप के दुख को कहने वाला ग़ालिब न होता


मुसलमान न होते तो अट्ठारह सौ सत्तावन न होता

वे थे तो चचा हसन थे


वे थे तो पतंगों से रंगीन होते आसमान थे

वे मुसलमान थे


वे मुसलमान थे और हिंदुस्तान में थे

और उनके रिश्तेदार पाकिस्तान में थे


वे सोचते थे कि काश वे एक बार पाकिस्तान जा सकते

वे सोचते थे और सोचकर डरते थे


इमरान ख़ान को देखकर वे ख़ुश होते थे

वे ख़ुश होते थे और ख़ुश होकर डरते थे


वे जितना पी.ए.सी. के सिपाही से डरते थे

उतना ही राम से


वे मुरादाबाद से डरते थे

वे मेरठ से डरते थे


वे भागलपुर से डरते थे

वे अकड़ते थे, लेकिन डरते थे


वे पवित्र रंगों से डरते थे

वे अपने मुसलमान होने से डरते थे


वे फ़िलीस्तीनी नहीं थे, लेकिन अपने घर को लेकर घर में

देश को लेकर देश में


ख़ुद को लेकर आश्वस्त नहीं थे

वे उखड़ा-उखड़ा राग-द्वेष थे


वे मुसलमान थे

वे कपड़े बुनते थे


वे कपड़े सिलते थे

वे ताले बनाते थे


वे बक्से बनाते थे

उनके श्रम की आवाज़ें


पूरे शहर में गूँजती रहती थीं

वे शहर के बाहर रहते थे


वे मुसलमान थे लेकिन दमिश्क उनका शहर नहीं था

वे मुसलमान थे अरब का पेट्रोल उनका नहीं था


वे दज़ला का नहीं यमुना का पानी पीते थे

वे मुसलमान थे


वे मुसलमान थे इसलिए बचके निकलते थे

वे मुसलमान थे इसलिए कुछ कहते थे तो हिचकते थे


देश के ज़्यादातर अख़बार यह कहते थे

कि मुसलमान के कारण ही कर्फ़्यू लगते हैं


कर्फ़्यू लगते थे और एक के बाद दूसरे हादसे की

ख़बरें आती थीं


उनकी औरतें

बिना दहाड़ मारे पछाड़ें खाती थीं


बच्चे दीवारों से चिपके रहते थे

वे मुसलमान थे


वे मुसलमान थे इसलिए

जंग लगे तालों की तरह वे खुलते नहीं थे


वे अगर पाँच बार नमाज़ पढ़ते थे

तो उससे कई गुना ज़्यादा बार


सिर पटकते थे

वे मुसलमान थे


वे पूछना चाहते थे कि इस लालक़िले का हम क्या करें

वे पूछना चाहते थे कि इस हुमायूँ के मक़बरे का हम क्या करें


हम क्या करें इस मस्जिद का जिसका नाम

क़ुव्वत-उल-इस्लाम है


इस्लाम की ताक़त है

अदरक की तरह वे बहुत कड़वे थे


वे मुसलमान थे

वे सोचते थे कि कहीं और चले जाएँ


लेकिन नहीं जा सकते थे

वे सोचते थे यहीं रह जाएँ


तो नहीं रह सकते थे

वे आधा ज़िबह बकरे की तरह तकलीफ़ के झटके महसूस करते थे


वे मुसलमान थे इसलिए

तूफ़ान में फँसे जहाज़ के मुसाफ़िरों की तरह


एक दूसरे को भींचे रहते थे

कुछ लोगों ने यह बहस चलाई थी कि


उन्हें फेंका जाए तो

किस समुद्र में फेंका जाए


बहस यह थी

कि उन्हें धकेला जाए


तो किस पहाड़ से धकेला जाए

वे मुसलमान थे लेकिन वे चींटियाँ नहीं थे


वे मुसलमान थे वे चूज़े नहीं थे

सावधान!


सिंधु के दक्षिण में

सैंकड़ों सालों की नागरिकता के बाद


मिट्टी के ढेले नहीं थे वे

वे चट्टान और ऊन की तरह सच थे


वे सिंधु और हिंदुकुश की तरह सच थे

सच को जिस तरह भी समझा जा सकता हो


उस तरह वे सच थे

वे सभ्यता का अनिवार्य नियम थे


वे मुसलमान थे अफ़वाह नहीं थे

वे मुसलमान थे


वे मुसलमान थे

वे मुसलमान थे



2-कविता 

अगर हमने तय किया होता कि हम नहीं जाएँगे

अगर हमने तय किया होता कि हम वापस नहीं जाएँगे


तो हम पूछते कि देश के विभाजन के समय जैसे इस पलायन में

कौन किस देश से निकल रहा था और किस देश की तरफ़ जा रहा था


हैव और हैवनॉट्स के हैबतनाक मंज़र में।

तब हम पूछते कि हम युद्ध के हताहत शरणार्थी थे


या स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का वादा करने वाली

संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकता।


तब हम पूछते कि सौ करोड़ और पाँच सौ करोड़ के

प्रतिष्ठान और स्थापत्य की रक्षा के लिए हमें


गार्ड और गेटकीपर के तौर पर एक दिन के लिए

दो और तीन सौ रुपए क्यों दिए जाते थे।


अगर हमने तय किया होता कि हम नहीं जाएँगे तो हम बताते

कि मेज़ पर किताब रखकर पढ़ने से कम बड़ा काम नहीं है मेज़ बनाना।


तब हम पूछते कि सिर पर ईंट ढोना

एक अच्छे घर में रहने की हक़दारी और दावेदारी


को किस तरह कम कर देता है।

तब हम बताते कि शहर की रौशनी को ठीक करने के बाद


अपने घर के अँधेरे में लौटते हुए

हमारा दिल कितना फटता था


और यही लगता था कि सारे शहर की बत्ती की सप्लाई प्लास से काट दें।

तब हम बताते कि घर लौटकर टी.वी. पर हम


अंगिया चोली वाला भोजपुरी गाना या सपना चौधरी की कमर नहीं देखना चाहते थे

हम भोजपुरी और हरियाणवी में देखना चाहते थे सलीम लंगड़े पे मत रो


तब हम बताते कि चैनलों और अख़बारों में प्रियंका-जोनास, शिल्पा शेट्टी-राज कुंद्रा, सोनम कपूर-आनंद आहूजा की निस्सार पेड इंस्टाग्राम प्रेम-कथाओं और तैमूर, रूही और यश की आभिजात्य मासूमियत से हम ऊबे हुए हैं। और क्यों लापता हैं नीम के नीचे खलिहान में किए गए हमारे प्रेम के वृत्तांत और काजल लगे धूल में सने हमारे बच्चों की दरिद्र अबोधताओं के काले-साँवले विवरण, घेरती जाती इस चमकीली गिरावट में।

हम अपने चीथड़ों से चमकते परिधानों को लज्जित कर देते।


हम सरकार को अनफ़्रेंड कर देते।

हम अमिताभ बच्चन से कहते


कि सत्ता की थाली मत बजाओ

बाजा मत बनो, अकबर बनो, कैंड़ेदार इलाहाबादी बनो


इलाहाबादी असहमति की अकड़, मनहूसियत और मातम।

तब हम नितिन गडकरी से कहते कि चचा,


यह सावरकर मार्ग हमें हमारे विनाश की तरफ़ ले जाता है

हम नहीं जाने वाले इस हेडगेवार पथ पर।


अगर हमने तय किया होता कि हम गाँव नहीं जाएँगे तो हम बताते कि हमारे बच्चे स्कूल जा सकते हैं, हमारी पत्नी कहानी पढ़ सकती है, हम छुट्टी ले सकते हैं और हम यमुना के तट पर पिकनिक के लिए जा सकते हैं; अगर उसके काले जल से शाखाई हिंदुत्व के घोटाले की बू न आ रही हो तो।

अगर हमने तय किया होता कि नहीं जाएँगे हम तब हम यह गाना गाते :


भूख ज़्यादा है

मगर पैसे नहीं हैं


सभ्यता हमने बनाई

खिड़कियाँ की साफ़ हमने


की तुम्हारी बदतमीज़ी माफ़ हमने

जान लो ऐसे नहीं वैसे नहीं हैं


भूख ज़्यादा है मगर पैसे नहीं हैं

डस्टबिन हमने हटाए


वह वजह क्या जो हमें कमतर दिखाए

क्यों लगे बे, आदमी जैसे नहीं हैं


भूख ज़्यादा है मगर पैसे नहीं हैं

अगर हमने तय किया होता कि हम नहीं जाएँगे तो हम पूछते कि क्यों


अख़बार बाँटने वाले के घर का चूल्हा जल जाए तो ग़नीमत

जबकि ख़बर का धंधा करने वाला अरबों के धंधे में लिथड़ा होता है


और रोज़ थोड़ा-थोड़ा धीमा-धीमा देश जलाने का काम करता रहता है।

अगर हमने तय किया होता कि हम नहीं जाएँगे तो हम नोबेल पाने वाले अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी से पूछते कि सारे मामले को जो है सो है और थोड़ा-बहुत रद्दोबदल वाले अंदाज़ में ही क्यों देखते हो; क्यों सही बात नहीं कहते कि यह ढाँचा खो चुका है अपनी वैधता।


कविताएँ लिखनी चाहिए


जैसा कि एक कवि कहता है कि मातृभाषा में ही लिखी जा सकती है कविता

तो मातृभाषा को याद रखने के लिए लिखी जानी चाहिए कविता


और इसलिए भी कि यह समझ धुँधली न हो

कि पिता पहला तानाशाह होते हैं


और जैसा कि मैं कह गया हूँ माँएँ पहला कम्युनिस्ट

पड़ोसियों ने फ़ासिस्ट न होने की गारंटी कभी नहीं दी


इलाहाबाद से दिल्ली के सफ़र के शुरू में

एक आदमी ने सीट को एक्सचेंज करने का प्रस्ताव रखा


फिर उसने कहा कि और क्या एक्सचेंज किया जा सकता है

मैंने कहा कि मैं किसी को अपना कोहराम नहीं देने वाला


जाते-जाते वह कह गया कि झूठ पर फ़िल्म बनाने के बहुत पैसे मिलते हैं

मैंने ग़ायब होने के पहले कहा


कि जो संरक्षण संविधान में कवि को मिलना चाहिए था वह गाय को मिल गया

पान खाते हुए वह हँस पड़ा और उसका सारा थूक मेरे मुँह पर पड़ गया


कविताएँ लिखनी चाहिए ताकि कवि नैतिक अल्पसंख्यक न रह जाएँ

कविताएँ लिखी जानी चाहिए ताकि मुक्केबाज़ के तौर पर मोहम्मद अली की याद रहे


और देश के तौर पर वियतनाम की

और बसने के लिए फ़िलिस्तीन से बेहतर कोई देश न लगे


और वेमुला होना सबसे ज़्यादा मनुष्य होना लगे

कविताएँ लिखनी चाहिए क्योंकि ऋतुओं और बहनों के बग़ल से गुज़रने को


कविताएँ ही रजिस्टर करती हैं और पत्तों और आदमी के गिरने को

कविताएँ लिखी जानी चाहिए क्योंकि कवि ही करते हैं वापस पुरस्कार


और उन्हें ही आती है अख़लाक़ पर कविताएँ लिखते हुए रो पड़ने की अप्रतिम कला




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