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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी: गहराई से आलोचनात्मक विश्लेषण (2014–2025)

17 सितंबर 2025:✍🏻 Z S Razzaqi | अंतरराष्ट्रीय विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार  

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कार्यकाल भारतीय राजनीति के इतिहास में सबसे चर्चित और विवादित अध्यायों में से एक रहा है। देशभर में करोड़ों समर्थकों ने उन्हें विकास पुरुष, राष्ट्रवाद का प्रतीक और भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक सेनानी माना। वहीं विपक्षी दल, आलोचक और स्वतंत्र विश्लेषक उन्हें अधिनायकवादी प्रवृत्ति, जनविरोधी नीतियों और लोकतंत्र के कमजोर पड़ने का मुख्य कारण मानते हैं। आइए विस्तार से उनके कार्यकाल के तमाम पहलुओं का गहराई से विश्लेषण करें।


1. आर्थिक नीति: विकास या असंतुलन?

📊 सार्वजनिक ऋण का विस्फोट

भारत का सार्वजनिक ऋण 2014 में लगभग ₹55 लाख करोड़ था, जो 2025 तक बढ़कर ₹205 लाख करोड़ से अधिक हो गया है। इसका प्रतिव्यक्ति ऋण भार ₹1.5 लाख तक पहुंच गया है। सरकार का तर्क रहा कि यह निवेश विकास को गति देने के लिए आवश्यक था, लेकिन आलोचक इसे अव्यवस्थित खर्च और असंतुलित बजट नीति का परिणाम मानते हैं। विशेष रूप से COVID-19 राहत पैकेज ने आर्थिक ढांचे पर बोझ डाला।

💰 नोटबंदी (Demonetisation) – एक भयानक भूल?

8 नवंबर 2016 को ₹500 और ₹1000 नोटों का अचानक बंद होना, सरकार द्वारा भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ उठाया गया एक बड़ा कदम था। लेकिन परिणाम ने चौंका दिया। RBI की रिपोर्ट के अनुसार, 99% से अधिक नोट वापस आ गए, जिससे काले धन का सफाया नहीं हो सका। इसके उलटे, लाखों छोटे व्यापारी और मजदूर बेरोजगार हो गए। अनौपचारिक अर्थव्यवस्था चरमरा गई और GDP पर प्रतिकूल असर पड़ा।

🧾 वस्तु एवं सेवा कर (GST) का जटिल कार्यान्वयन

GST को ‘एक राष्ट्र, एक कर’ नीति के रूप में लागू किया गया, जिसका उद्देश्य कर प्रणाली को सरल बनाना था। हालांकि, शुरुआती वर्षों में तकनीकी खामियों, जटिल स्लैब संरचना, और छोटे व्यापारियों पर अनुपालन का बोझ बन गया। आलोचक बताते हैं कि योजना की तैयारियों में भारी कमी थी, जबकि समर्थक इसे दीर्घकालिक सुधार मानते हैं। आज भी छोटे उद्योग कठिनाई का सामना कर रहे हैं।


2. क्रोनी कैपिटलिज़्म: उद्योगपतियों के साथ गहरे रिश्ते

प्रधानमंत्री मोदी और उद्योगपति गौतम अडानी, मुकेश अंबानी के बीच घनिष्ठ संबंध विवादित मुद्दा बन चुके हैं। हिंडनबर्ग रिसर्च और कई वित्तीय विश्लेषण रिपोर्ट्स में यह कहा गया कि अडानी समूह ने सरकारी अनुबंधों और नीति निर्णयों से अत्यधिक लाभ उठाया।

  • अडानी समूह की तेजी से संपत्ति वृद्धि: 2014 से अब तक अडानी ग्रुप की संपत्ति में कई गुना वृद्धि दर्ज की गई। आलोचक तर्क देते हैं कि यह सरकारी नीतियों के पक्षपात का परिणाम है।

  • सरकारी संसाधनों की बिक्री: रक्षा, ऊर्जा और संचार क्षेत्रों में निजीकरण ने उद्योगपतियों को अरबों डॉलर के सौदे दिलाए। कई विश्लेषकों ने इसे 'लूट' बताया।

सरकार ने इन आरोपों को खारिज किया है, पर स्वतंत्र जांच की मांग लगातार उठती रही है।


3. विवादास्पद बयान और राजनीतिक संस्कृति का पतन

प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिगत हमलों से भरी बयानबाजी राजनीतिक शिष्टाचार पर प्रश्नचिह्न लगाती है।

  • "दीदी ओ दीदी" वाला टिप्पणी, जो ममता बनर्जी को मजाक में उड़ाने के लिए इस्तेमाल हुआ।

  • सोनिया गांधी को 'जर्सी गाय' कहना।

  • राहुल गांधी पर 'हाइब्रिड बछड़ा' टिप्पणी।

  • शशि थरूर की पत्नी को '50 करोड़ की गर्लफ्रेंड' बताना।

इन बयानों ने आलोचकों को यह आरोप लगाने का मौका दिया कि मोदी जी सामाजिक सौहार्द्र और महिलाओं के प्रति अनादर की प्रवृत्ति रखते हैं।

👉 यह रुख लोकतंत्र के स्वस्थ संवाद और राजनीतिक सहिष्णुता के खिलाफ माना जाता है।


4. सांप्रदायिक ध्रुवीकरण

प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में चुनावी प्रचार और राजनीतिक रैलियों में धार्मिक और सांप्रदायिक मुद्दों को उठाकर ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने का आरोप लगातार लगता रहा। 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान मुस्लिम विरोधी नारे और हिंदू राष्ट्रवाद की बातें प्रमुख रूप से सामने आईं। आलोचक तर्क देते हैं कि इससे समाज में कटुता और भय का वातावरण उत्पन्न हुआ, जो लोकतंत्र की भावना के विपरीत है।


5. लोकतांत्रिक संस्थाओं पर प्रभाव

⚖️ न्यायपालिका पर दबाव

अनेक घटनाओं में सरकार के न्यायपालिका पर हस्तक्षेप के आरोप लगे। उदाहरण स्वरूप सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में नियुक्तियों को लेकर पारदर्शिता की कमी, संवैधानिक अनुशासन की अवहेलना की गई।

📰 मीडिया की स्वतंत्रता में गिरावट

‘Reporters Without Borders’ के प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की रैंकिंग लगातार गिरती जा रही है। पत्रकारों पर दबाव, चैनलों और अखबारों पर सेंसरशिप की घटनाएं, और सरकार द्वारा विज्ञापन काटने जैसे उपाय आलोचकों का तर्क हैं।

👉 इसके उलट सरकार का कहना है कि यह 'फेक न्यूज' से लड़ने की कोशिश है।


6. सोशल-इकोनॉमिक असमानता

मोदी जी के कार्यकाल में देश की जीडीपी बढ़ी, लेकिन गरीब और मध्यम वर्ग की हालत बेहतर नहीं हुई। ग्रामीण बेरोजगारी दर में वृद्धि, किसानों की आत्महत्या, और छोटे व्यापारियों की असफलता सामाजिक असमानता की ओर इशारा करते हैं।

  • किसानों का आंदोलन (2020-2021): तीन कृषि कानूनों के खिलाफ भारतभर में किसान आंदोलित हुए। मोदी सरकार के विरोधी कृषि कानूनों ने किसानों की आय पर प्रतिकूल असर डाला।

  • महंगाई दर: पेट्रोल-डीजल की कीमतों में लगातार वृद्धि से आम जनता पर आर्थिक बोझ बढ़ा।


7. वैश्विक छवि बनाम घरेलू स्थिति

वैश्विक मंच पर भारत की स्थिति मजबूत हुई, परंतु घरेलू स्तर पर लोकतंत्र, मानवाधिकार, और स्वतंत्रता की स्थिति पर सवाल उठते रहे। पीएम मोदी ने G20, BRICS, और संयुक्त राष्ट्र जैसे प्लेटफॉर्म पर भारत की छवि को संवारने का प्रयास किया।

लेकिन भारत के भीतर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धार्मिक स्वतंत्रता, और न्यायपालिका की निष्पक्षता के मुद्दे गहरे हो गए हैं।


समापन विचार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कार्यकाल भारतीय राजनीति में एक जटिल परतों से भरा अध्याय है। उनके समर्थक उन्हें विकास और राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक मानते हैं, जबकि आलोचक उन्हें लोकतंत्र के पतन, सामाजिक ध्रुवीकरण, आर्थिक असंतुलन और सत्ता के केंद्रीकरण का जिम्मेदार ठहराते हैं।

इस लेख में प्रस्तुत तथ्यों, आंकड़ों, और विश्लेषणों के आधार पर निष्कर्ष यही निकलता है कि मोदी जी की नीति-निर्माण प्रक्रिया, उनके विवादास्पद बयानों और उद्योगपतियों के साथ संबंधों ने भारतीय लोकतंत्र और सामाजिक ताने-बाने को गहरे असर से प्रभावित किया है।

👉 भविष्य में भी यह बहस जारी रहेगी कि उनका कार्यकाल भारत के लोकतांत्रिक और सामाजिक विकास के लिए वरदान साबित होगा या अभिशाप। समय ही निर्णायक बनेगा।


यह लेख गहराई से शोध पर आधारित, तथ्यात्मक और निष्पक्ष दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया है।

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