"Z S RAZZAQI, स्वतंत्र पत्रकार और विश्लेषक"
भूमिका
2014 में जब नरेंद्र मोदी ने भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी, तब वैश्विक और घरेलू स्तर पर उम्मीदों की एक नई लहर उठी थी। एक चायवाले से लेकर देश के सर्वोच्च पद तक पहुँचे इस नेता की तुलना नेल्सन मंडेला से की गई, और उन्हें एक ऐसे निर्णायक नेता के रूप में प्रस्तुत किया गया, जो न केवल भारत के लिए, बल्कि वैश्विक राजनीति के लिए भी एक नयी ऊर्जा ला सकता था।
लेकिन आज, 2025 में, जब G-7 सम्मेलन में भारत को निमंत्रण नहीं मिला, तब यह सवाल गहराता जा रहा है — क्या नरेंद्र मोदी ने वैश्विक कूटनीति में अपनी चमक खो दी है? क्या वह अब भी विश्व के लिए वही करिश्माई नेता हैं, जिनसे विकास और स्थिरता की उम्मीदें जुड़ी थीं? या फिर भारत की आंतरिक राजनीति में उभरे धार्मिक ध्रुवीकरण, संस्थाओं का क्षरण, और लोकतांत्रिक मूल्यों में गिरावट ने मोदी की छवि को कमजोर कर दिया है?
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G-7 सम्मेलन में भारत को आमंत्रित न किया जाना: केवल राजनयिक निर्णय या गंभीर वैश्विक संकेत?
G-7 दुनिया की सात सबसे विकसित लोकतांत्रिक और औद्योगिक शक्तियों का समूह है। यह मंच उन देशों को आमंत्रित करता है जिनकी नीतियाँ लोकतंत्र, मानवाधिकार और वैश्विक स्थिरता के मानकों से मेल खाती हैं। नरेंद्र मोदी को 2019, 2021 और 2023 में G-7 में विशेष आमंत्रण प्राप्त हुआ था। यह भारत की बढ़ती वैश्विक स्थिति और मोदी की अंतरराष्ट्रीय लोकप्रियता का संकेत माना गया।
लेकिन 2025 के सम्मेलन से भारत की अनुपस्थिति, विशेषकर तब जब दुनिया में भारत को अमेरिका, जापान और यूरोप के लिए एक रणनीतिक साझेदार के रूप में देखा जा रहा है, एक चौंकाने वाली बात है। क्या यह बदलाव केवल कार्यक्रमीय कारणों से हुआ है? या यह भारत की आंतरिक राजनीति, लोकतंत्र की स्थिति और अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर बढ़ती वैश्विक चिंता का परिणाम है?
मोदी युग की आंतरिक चुनौतियाँ: आर्थिक असंतुलन, सामाजिक ध्रुवीकरण और लोकतांत्रिक क्षरण
आर्थिक मोर्चे पर असंतोष
भारत की अर्थव्यवस्था पिछले एक दशक में ऊपरी स्तर पर मजबूत दिखी है – जीडीपी के आँकड़े, स्टार्टअप्स की संख्या और इंफ्रास्ट्रक्चर निवेश इसकी मिसाल हैं। लेकिन जमीनी हकीकत अलग है।
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बेरोजगारी दर अब भी उच्च स्तर पर बनी हुई है। CMIE के आंकड़ों के अनुसार शहरी बेरोजगारी लगातार 8 प्रतिशत से ऊपर बनी रहती है।
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युवाओं में सरकारी नौकरियों की कमी और निजी क्षेत्र में छंटनी ने असंतोष बढ़ाया है।
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महंगाई दर, विशेषकर खाद्य और ईंधन क्षेत्र में, आम जनता की जीवनशैली पर प्रतिकूल असर डाल रही है।
इस आर्थिक तनाव का सबसे बड़ा शिकार भारत का मध्यमवर्ग और निचला तबका है, जिसे 2014 में मोदी के "अच्छे दिनों" की सबसे अधिक उम्मीद थी।
सामाजिक और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण
मोदी सरकार के नेतृत्व में भारत का सामाजिक तानाबाना लगातार ध्रुवीकृत होता दिख रहा है। मुसलमानों, ईसाइयों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ बढ़ती घटनाएँ, घृणा फैलाने वाले भाषण और मॉब लिंचिंग की घटनाओं ने भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि को गहरा आघात पहुँचाया है।
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सत्ताधारी दल के कई प्रवक्ता और नेता सार्वजनिक रूप से अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसक और भड़काऊ बयान देते हैं।
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पुलिस और न्यायिक संस्थानों पर पक्षपात के आरोप बढ़े हैं, जिससे संवैधानिक संस्थाओं की साख कमजोर हुई है।
यह विभाजनकारी राजनीति न केवल भारत के भीतर तनाव को जन्म देती है, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत की लोकतांत्रिक विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाती है।
संस्थागत और लोकतांत्रिक गिरावट
स्वतंत्र प्रेस, निष्पक्ष चुनाव आयोग, अपराजेय न्यायपालिका – किसी भी जीवंत लोकतंत्र की ये पहचान होती हैं। लेकिन भारत में इन संस्थाओं की स्वायत्तता पर लगातार प्रश्न उठ रहे हैं।
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प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत की रैंकिंग लगातार गिर रही है।
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विपक्षी नेताओं के खिलाफ ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स जैसी एजेंसियों का दुरुपयोग अब एक आम धारणा बन चुका है।
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न्यायपालिका की स्वतंत्रता और चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर भी सवाल उठाए गए हैं।
इन सब पहलुओं ने भारत को दुनिया की सबसे बड़ी लोकतंत्र से एक ‘चुनावी अधिनायकवाद’ की ओर ले जाने की आशंका को जन्म दिया है।
क्या मोदी सरकार 'ध्रुवीकरण' को रणनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही है?
2014 से लेकर 2024 तक, भारतीय राजनीति में विचारधाराओं की जगह पहचान की राजनीति ने ले ली है। 'सबका साथ, सबका विकास' जैसे समावेशी नारे अब मंचों से गायब हैं। उनकी जगह ऐसे बयान उभरते हैं जो किसी विशेष धर्म, जाति या समुदाय को केंद्र में रखते हैं।
मोदी सरकार के कई नेता चुनावों के दौरान ऐसे बयान देते हैं जिनमें धार्मिक उन्माद, ऐतिहासिक घाव और ‘हम बनाम वे’ की प्रवृत्ति प्रमुख होती है। यह चुनावी गणित में कारगर हो सकता है, लेकिन लोकतांत्रिक राष्ट्र के मूल्यों के लिए यह खतरनाक संकेत है।
वैश्विक राजनीति में मोदी की गिरती साख: एक सच्चाई या केवल धारणाओं का खेल?
मोदी एक ऐसे नेता रहे हैं जिनकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यक्तिगत ब्रांडिंग बहुत प्रभावशाली रही है। उन्होंने 'India is back' जैसे नारों के साथ विदेशी निवेश, कूटनीति और भारत की सॉफ्ट पावर को नई दिशा दी।
लेकिन अब:
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यूरोपीय संघ, अमेरिका और अंतर्राष्ट्रीय थिंक टैंक्स ने भारत में मानवाधिकारों की स्थिति को लेकर गंभीर चिंता जताई है।
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वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे वैश्विक अखबारों में भारत की आंतरिक नीतियों की आलोचना आम हो गई है।
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कई बार विदेशी नेताओं ने मोदी सरकार की आलोचना सीधे तौर पर नहीं की, लेकिन उनकी चुप्पी भी एक कूटनीतिक संदेश है।
निष्कर्ष
नरेंद्र मोदी आज भी भारत के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक हैं। करोड़ों लोग उन्हें एक ऐसे नेता के रूप में देखते हैं जो भारत को आत्मनिर्भर बना सकते हैं, राष्ट्र को गौरव दे सकते हैं। लेकिन सत्ता के दस वर्षों बाद उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि क्या वे केवल चुनावी जीत के नेता बनकर रह जाएंगे, या फिर एक समावेशी, लोकतांत्रिक और वैश्विक भारत के निर्माता के रूप में इतिहास में याद किए जाएंगे।
G-7 से भारत की अनुपस्थिति, बढ़ती बेरोजगारी, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और लोकतांत्रिक संस्थाओं की गिरती साख – ये सभी संकेत हैं कि भारत को आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है। अगर मोदी सरकार केवल सत्ता की रणनीतियों में उलझी रही और आलोचना को राष्ट्रविरोधी बताया जाता रहा, तो वैश्विक मंचों पर भारत की प्रतिष्ठा और भी गहराई से प्रभावित होगी।
भारत जैसे विशाल लोकतंत्र को न केवल आर्थिक और सैन्य दृष्टि से, बल्कि नैतिक और मानवीय दृष्टि से भी एक मिसाल बनना होगा। और यह तभी संभव है जब नेता खुद को आलोचना से ऊपर नहीं, बल्कि जवाबदेही के भीतर मानें।
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