Type Here to Get Search Results !

ADS5

ADS2

ईद-उल-अज़हा: त्याग, समर्पण और सहिष्णुता के पर्व को संकीर्ण मानसिकता से देखने की प्रवृत्ति पर एक सशक्त जवाब


लेखक: विशेष संवाददाता | धार्मिक-सामाजिक विश्लेषण

जब भी ईद-उल-अज़हा का पर्व आता है, देश की एक खास मानसिकता और विचारधारा दोबारा सतह पर आ जाती है—जो इस्लामी परंपरा के इस आध्यात्मिक और ऐतिहासिक पर्व को केवल ‘जानवरों की हत्या’ के नजरिए से देखने लगती है। हर साल यह वर्ग सोशल मीडिया, टेलीविजन और राजनीतिक मंचों पर सक्रिय हो जाता है, लेकिन दिलचस्प बात यह है कि बाकी 364 दिन, जब करोड़ों जानवर वैश्विक फूड चेन का हिस्सा बनते हैं—वो सबकी आंखों से ओझल रहता है।


ईद-उल-अज़हा सिर्फ मांसाहार से जुड़ा कोई 'मांस महोत्सव' नहीं, बल्कि एक पवित्र और आध्यात्मिक परंपरा है जो त्याग, समर्पण और सामाजिक समानता जैसे मूल्यों की बुनियाद पर टिकी हुई है। इस लेख में हम इस पर्व की व्यापकता को समझने के साथ-साथ, उन विरोधाभासों पर भी चर्चा करेंगे जो आज के 'सुविधाजनक नैतिकतावाद' की पोल खोलते हैं।


✦ ईद-उल-अज़हा का ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व

ईद-उल-अज़हा इस्लामी कैलेंडर के 12वें महीने 'ज़िलहिज्जा' की 10वीं तारीख को मनाया जाता है। यह पर्व हज़रत इब्राहीम अलाईहिस्सलाम की अल्लाह के प्रति आज्ञाकारिता और त्याग की मिसाल से जुड़ा हुआ है। जब अल्लाह ने उनकी आस्था की परीक्षा लेने के लिए उनकी सबसे प्रिय चीज़—उनके बेटे हज़रत इस्माईल—की कुर्बानी देने का आदेश दिया, तब उन्होंने बिना झिझक पालन किया। लेकिन अल्लाह ने स्वर्ग से एक दुम्बा भेजकर मानव-हत्या को रोका और इब्राहीम की नीयत को स्वीकार कर लिया।

इस ऐतिहासिक घटना की स्मृति में आज मुसलमान दुनिया भर में जानवर की कुर्बानी देकर अल्लाह की राह में अपना समर्पण प्रकट करते हैं। इस कुर्बानी का मांस तीन हिस्सों में बांटा जाता है—एक हिस्सा गरीबों और जरूरतमंदों को, एक रिश्तेदारों को और एक खुद के लिए। यह न केवल धार्मिक आस्था की अभिव्यक्ति है, बल्कि सामाजिक न्याय और संसाधनों के वितरण का बेहतरीन उदाहरण भी है।


✦ पशु-प्रेम और नैतिकता की 'चुनिंदा राजनीति'

भारत में हर साल जब ईद-उल-अज़हा आता है, तो अचानक कई संगठन और सोशल मीडिया यूज़र्स “पशु अधिकारों” की दुहाई देने लगते हैं। उनकी भावनाएँ सिर्फ मुसलमानों के इस्लामी त्योहार पर सक्रिय होती हैं—जबकि बाकी साल देश-विदेश में करोड़ों जानवरों का औद्योगिक स्तर पर वध, खपत और व्यापार चलता रहता है, तब ये आवाजें खामोश रहती हैं।

❖ क्या McDonald's, KFC, Burger King पर भी कोई विरोध करता है?

देश भर में हर दिन लाखों लोग KFC, McDonald's, Burger King जैसे ब्रांड्स में चिकन, मटन और बीफ परोसते हैं। इन कंपनियों के पास विशुद्ध औद्योगिक स्लॉटर हाउस होते हैं, जहां जानवरों की प्रोसेसिंग बड़े पैमाने पर की जाती है। पर इन जगहों पर न कोई ‘पशु प्रेमी’ विरोध करता है और न ही कोई नैतिकता की बात करता है।

❖ बीफ एक्सपोर्ट इंडस्ट्री पर चुप्पी क्यों?

भारत में दर्जनों बड़े स्लॉटर हाउस हैं जो हर साल अरबों डॉलर का बीफ एक्सपोर्ट करते हैं। ये कंपनियाँ मुस्लिम नहीं, बल्कि बहुराष्ट्रीय, पूंजीवादी कॉर्पोरेशन हैं। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, पंजाब और तेलंगाना जैसे राज्य इस उद्योग में अग्रणी हैं। इसके बावजूद इनमें से किसी एक के बाहर भी किसी बीजेपी नेता ने जाकर गौ-रक्षा की बात नहीं की।

❖ क्यों ईद पर ही संवेदनशीलता जागती है?

यह दोहरापन दर्शाता है कि समस्या जानवरों की हत्या से नहीं है, बल्कि यह एक खास धार्मिक परंपरा के खिलाफ ‘सुविधाजनक नैतिकता’ को बढ़ावा देने का प्रयास है। यह ‘सेलेक्टिव सेंसेटिविटी’ उस सांप्रदायिक सोच का परिणाम है जो ईद को धार्मिक आस्था से नहीं, विरोध के मौके के रूप में देखती है।


✦ कुर्बानी केवल मांस नहीं, भावना है

कुर्बानी को केवल “मांस काटने” का प्रतीक मानना नासमझी है। यह एक अत्यंत पवित्र भावना है, जो ईश्वर की इच्छा के प्रति पूर्ण समर्पण और आस्था का प्रमाण है। इस्लामी शिक्षाओं में जानवर को तकलीफ से बचाकर, पूरी मर्यादा और शांति के साथ कुर्बानी देने का आदेश है। किसी भी जानवर को दिखावे या अत्याचार के लिए मारना इस्लाम में निंदनीय है।

अल-कुरआन, हदीस और फिक़्ह में कुर्बानी के नियम इतने सख़्त हैं कि जानवर को भूखा या प्यासा रखना, उसकी पीठ पर वजन लादना, या उसे डराकर मारना पूर्णतः वर्जित है। यह एक संरचित, सम्मानजनक और आध्यात्मिक प्रक्रिया है—जिसे कई बार दुर्भावनापूर्ण एजेंडे के तहत 'हिंसा' कहा जाता है।


✦ निष्कर्ष:-

 धर्म के नाम पर भेदभाव नहीं, समान दृष्टिकोण की ज़रूरत

भारत एक बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक देश है। यहाँ हर समुदाय को अपनी धार्मिक आस्था के अनुसार जीने और पर्व मनाने का अधिकार है। अगर हम सही मायनों में संवेदनशील और नैतिक समाज बनाना चाहते हैं, तो यह दृष्टिकोण हर धर्म, हर परंपरा और हर व्यक्ति के लिए समान होना चाहिए। केवल ईद पर सवाल उठाकर बाकी 364 दिन मांस खपत और व्यापार को नज़रअंदाज़ करना न केवल असंगत है, बल्कि साम्प्रदायिक मानसिकता का परिचायक भी है।


ईद-उल-अज़हा की कुर्बानी किसी जानवर की ‘हत्या’ नहीं, बल्कि आत्मा की परिपक्वता और आस्था की पराकाष्ठा का प्रतीक है। इसे समझिए, सराहिए – और हर धर्म को उसका सम्मान दीजिए।

ये भी पढ़े 

2 -प्रीमियम डोमेन सेल -लिस्टिंग


Tags

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.

ADS3

ADS4