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क्या वक्फ कानून इस्लाम का अभिन्न अंग है? सुप्रीम कोर्ट में बहस पूरी, फैसला सुरक्षित

 

मुख्य बिंदु:
सुप्रीम कोर्ट ने पूछा — क्या वक्फ इस्लाम का मौलिक धार्मिक अभ्यास है या एक सामान्य धर्मार्थ कार्य?
सरकार का पक्ष — वक्फ जरूरी धार्मिक प्रथा नहीं है, इसलिए इस पर कानून बनाना संवैधानिक है।
याचिकाकर्ताओं का विरोध — वक्फ की परिभाषा और धार्मिक महत्व को बाहरी प्राधिकरण तय नहीं कर सकता।
वक्फ संशोधन कानून 2025 के खिलाफ कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं।
कोर्ट ने अंतरिम रोक पर फैसला सुरक्षित रख लिया है।
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क्या है मामला?

सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई और न्यायमूर्ति एजी मसीह शामिल हैं, वक्फ संशोधन अधिनियम 2025 को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। इन याचिकाओं में दावा किया गया है कि यह नया कानून संविधान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है और मुस्लिम समुदाय के धार्मिक मामलों में सरकारी हस्तक्षेप है।


वक्फ: धर्म या दान?

बहस का केंद्रीय मुद्दा यह रहा कि क्या वक्फ इस्लाम का अभिन्न धार्मिक हिस्सा है या केवल एक धर्मार्थ व्यवस्था?

वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कहा:

“वक्फ ईश्वर को समर्पण है… यह जीवन के बाद के लिए है। यह एक धर्मार्थ कार्य नहीं बल्कि आध्यात्मिक समर्पण है।”

इस पर मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने टिप्पणी की:

“धर्मार्थ कार्य केवल इस्लाम में नहीं हैं, हिंदू धर्म में भी ‘मोक्ष’ और दान का बड़ा महत्व है।”

न्यायमूर्ति मसीह ने ईसाई धर्म का उदाहरण देते हुए कहा,

“हम सब स्वर्ग की ओर ही बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं।”

 


क्या सरकार वाजिब है?

सरकार का तर्क है कि वक्फ धार्मिक अधिकार नहीं है, इसलिए इस पर कानून बनाना संविधान के अनुसार है। सरकार ने यह भी कहा कि वक्फ की संपत्तियां धर्मनिरपेक्ष उपयोग — जैसे मदरसे, अनाथालय, स्कूल आदि — में आती हैं।

एक मामला तब सामने आया जब तमिलनाडु की एक महिला ने बताया कि उनके पूरे गांव को वक्फ संपत्ति घोषित कर दिया गया है, जिसमें चोल वंशकालीन हिंदू मंदिर भी शामिल है।



वक्फ बोर्ड की रचना पर सवाल

संशोधित कानून के तहत वक्फ बोर्डों में गैर-मुस्लिम सदस्यों की अनिवार्य नियुक्ति का प्रावधान किया गया है।

सरकार का तर्क है कि वक्फ बोर्ड मुख्यतः संपत्ति प्रबंधन जैसे "धर्मनिरपेक्ष कर्तव्य" निभाते हैं। लेकिन याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह अनुच्छेद 26 का उल्लंघन है, जो धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता देता है।

इस पर अदालत ने तीखा सवाल पूछा:

“क्या हिंदू बोर्ड में मुसलमानों को भी शामिल किया जाएगा? अगर नहीं, तो यहां क्यों?”

 


क्या धर्म का प्रमाण देना जरूरी है?

नए कानून में यह प्रावधान है कि केवल वही मुस्लिम वक्फ संपत्ति में दान कर सकते हैं, जो कम से कम 5 वर्षों से इस्लाम का पालन कर रहे हों

वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने इस पर प्रतिक्रिया दी:

“यह डर पैदा करने की रणनीति है। कौन से धार्मिक संस्थान दान के लिए धर्म का प्रमाण मांगते हैं?”

 


‘वक्फ बाय यूज़र’ प्रावधान पर बहस

नया कानून ‘वक्फ बाय यूज़र’ की अवधारणा को समाप्त करता है। पहले अगर किसी संपत्ति का लंबे समय तक धार्मिक या समाजसेवी मुस्लिम उपयोग होता था, तो उसे वक्फ संपत्ति घोषित किया जा सकता था, भले ही दस्तावेज़ न हों।

अब सरकार का तर्क है कि यह अधिकार 1954 के वक्फ अधिनियम के तहत दिया गया था, जिसे अब नए कानून से हटाया गया है। लेकिन यह भी आश्वासन दिया गया है कि पहले से घोषित वक्फ संपत्तियों पर असर नहीं पड़ेगा।



क्या कोर्ट रोक लगा सकता है?

सरकार ने कोर्ट को स्पष्ट कर दिया है कि वह नए कानून पर आंशिक या पूर्ण अंतरिम रोक का पुरज़ोर विरोध करेगी।

सरकार ने कहा:

“संसद द्वारा बनाए गए कानूनों को संविधान सम्मत माना जाता है, और अंतरिम रोक शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत के खिलाफ है।”

 


अब आगे क्या?

सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं की सभी दलीलों को सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया है। अगले कुछ हफ्तों में यह स्पष्ट हो सकता है कि वक्फ संशोधन कानून 2025 को लेकर देश की सर्वोच्च अदालत क्या रुख अपनाती है।

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