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11 साल की मोदी सरकार और 30 साल का गुजरात मॉडल: वादों, विफलताओं और हकीकत का आईना

 भारत में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का राजनीतिक वर्चस्व पिछले तीन दशकों से गुजरात में और 2014 से केंद्र में बना हुआ है। नरेंद्र मोदी को 'विकास पुरुष' की छवि देकर प्रधानमंत्री बनाया गया था। गुजरात मॉडल, स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन, मजबूत विदेश नीति और आर्थिक क्रांति के वादों के साथ देश को एक 'नया भारत' देने का सपना दिखाया गया। लेकिन 11 साल बाद भी कई सवाल जनता की आंखों में तैर रहे हैं। आइए इस लंबे विश्लेषण में भाजपा की गुजरात से दिल्ली तक की यात्रा और वादों की हकीकत का विश्लेषण करें।


गुजरात में भाजपा का 30 साल का सफर: वादों की पोटली, हकीकत फिसलती ज़मीन

गुजरात में भाजपा 1995 से सत्ता में है। मोदी ने यहां मुख्यमंत्री रहते विकास की एक चमकदार तस्वीर पेश की, जिसे पूरे देश में बेचा गया। स्मार्ट सिटी, ग्रीन एनर्जी, शुद्ध जल, रोजगार, शिक्षा, और स्वास्थ्य सेवा जैसे बड़े-बड़े वादे किए गए। मगर आज भी गुजरात में गाँवों की स्थिति दयनीय है। किसानों की आत्महत्याएं, बेरोजगारी और शिक्षा का गिरता स्तर साफ दिखाता है कि 'गुजरात मॉडल' कितना खोखला था। बुलेट ट्रेन जैसी परियोजना आज भी अधर में लटकी है।

बनारस से क्योटो तक का सपना: वादों में ही उलझा बनारस

2014 में नरेंद्र मोदी ने बनारस से चुनाव लड़ते हुए कहा था कि वो बनारस को क्योटो जैसा बनाएंगे। मगर 11 साल बाद भी बनारस की सड़कों पर गंदगी, बिजली की समस्या और अव्यवस्थित यातायात जस का तस है। घाटों की सफाई और पर्यटन के नाम पर करोड़ों खर्च जरूर हुए, लेकिन आम नागरिक की ज़िन्दगी नहीं बदली।

कोविड-19 प्रबंधन: सरकार की सबसे बड़ी असफलता

2020 में आई कोविड महामारी ने भारत की स्वास्थ्य सेवाओं की पोल खोल दी। ऑक्सीजन की कमी, अस्पतालों में बेड की मारामारी, श्मशानों में लंबी कतारें और टीकाकरण में भारी अव्यवस्था ने सरकार के दावों की सच्चाई उजागर कर दी। पीएम केयर्स फंड का पैसा कहां और कैसे खर्च हुआ, इसकी जानकारी आज तक सामने नहीं आई। जनता के पैसे से बने इस फंड को पारदर्शिता से दूर रखा गया।

नोटबंदी: एक सिरफिरा फैसला जिसने अर्थव्यवस्था को पस्त कर दिया

8 नवम्बर 2016 को नरेंद्र मोदी ने रातों-रात 500 और 1000 के नोट बंद कर दिए। इस फैसले ने छोटे व्यापारियों, मजदूरों और मध्यमवर्गीय लोगों को तबाह कर दिया। दावा किया गया था कि इससे कालेधन पर रोक लगेगी, आतंकवाद खत्म होगा और डिजिटलीकरण बढ़ेगा। लेकिन हकीकत ये है कि देश की जीडीपी बुरी तरह गिरी और करोड़ों लोगों की नौकरियां चली गईं।

गलत तरीके से लागू GST: कारोबारियों की कमर तोड़ी

जीएसटी को 'वन नेशन, वन टैक्स' के रूप में पेश किया गया, लेकिन इसे बिना तैयारी के लागू किया गया। छोटे व्यापारियों, दुकानदारों और लघु उद्योगों को इसका सबसे बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ा। टैक्स स्लैब की जटिलता और ऑनलाइन सिस्टम की कमजोरी ने हजारों छोटे व्यापार बंद करवा दिए।


विदेश नीति में विफलता: खोखली तस्वीर, साख कमजोर

सरकार ने विदेश नीति को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि बताया, लेकिन सच्चाई इससे अलग है। नेपाल, श्रीलंका और म्यांमार जैसे पड़ोसी देश चीन के करीब होते गए। पाकिस्तान और चीन के साथ तनाव बढ़ा, और डोकलाम-लद्दाख सीमा विवाद में भारत की स्थिति कमजोर दिखी। अमेरिका और रूस के साथ संबंधों में भी कोई ठोस प्रगति नहीं दिखी।

शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का बदहाल ढांचा

सरकारी स्कूल, कॉलेज और अस्पतालों की हालत बद से बदतर होती जा रही है। हजारों स्कूल बंद हुए, या निजीकरण की ओर धकेल दिए गए। उच्च शिक्षा की गुणवत्ता गिरती गई। मेडिकल सेवाएं केवल कागजों में सशक्त दिखीं।

महंगाई: जनता की कमर तोड़ती कीमतें

पेट्रोल-डीजल, गैस, खाद्य पदार्थों और दवाओं की कीमतें आसमान छू रही हैं। आम आदमी का बजट हर महीने बिगड़ता जा रहा है। सरकार ने दावा किया था कि महंगाई पर काबू पाएंगे, लेकिन इसके उलट हालत और खराब हो गई।

किसानों की MSP की मांग: अब भी अधूरी

किसानों को उनकी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का वादा चुनाव दर चुनाव दोहराया गया। किसान आंदोलन के दौरान सरकार ने बातचीत का दिखावा किया, लेकिन एमएसपी पर कोई ठोस कानूनी गारंटी नहीं दी। 700 से ज्यादा किसानों की मौत के बाद तीन कृषि कानून वापस लेने पड़े, मगर MSP अब भी सपना है।

तीन कार्यकाल, फिर भी अधूरा विकास

मोदी सरकार को 2014 में विकास के वादे पर, 2019 में राष्ट्रीय सुरक्षा और 2024 में हिंदुत्व की आड़ में समर्थन मिला। लेकिन बुनियादी समस्याएं जस की तस बनी हुई हैं। आज भी बनारस क्योटो नहीं बन पाया, बुलेट ट्रेन स्टेशन पर ही खड़ी है और गुजरात मॉडल केवल इवेंट मैनेजमेंट बनकर रह गया है।

नफ़रत और धर्म की अफ़ीम का असर अब ख़त्म होता दिख रहा है

पिछले 11 वर्षों में देश की जनता को नफ़रत और धर्म की अफ़ीम पिलाकर गुमराह करने की साज़िशें की गईं। टीवी डिबेट्स, सोशल मीडिया और चुनावी मंचों पर कभी मंदिर-मस्जिद, कभी हिंदू-मुस्लिम के नाम पर जनता को बरगलाया गया। लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। धीरे-धीरे जनता को यह समझ आने लगा है कि असल मुद्दे रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई और सामाजिक सुरक्षा हैं — न कि नफ़रत की राजनीति। यहाँ तक कि जो लोग कभी आँख मूंद कर समर्थन कर रहे थे, वे भी अब सवाल पूछने लगे हैं। अब न मस्जिदों पर चढ़ने की बातें काम आ रही हैं, न धर्म के नाम पर उकसावे में लोग आ रहे हैं। जनता की सोच में यह बदलाव सत्ता के लिए सबसे बड़ा संदेश है कि नफ़रत से देश नहीं चलता, विकास से ही राष्ट्र मज़बूत बनता है।

निष्कर्ष: वादों की सियासत और सच्चाई का फासला

मोदी सरकार ने 11 साल और भाजपा ने गुजरात में 30 साल पूरे कर लिए हैं। इतने लंबे समय में वादों की चमक फीकी पड़ चुकी है और हकीकत सामने आ चुकी है। जनता को अब स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन और 'नया भारत' जैसे खोखले नारों की जगह ठोस विकास चाहिए। महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और किसान हित में वास्तविक काम चाहिए। समय आ गया है कि जनता अब सवाल पूछे और वादों के सबूत मांगे।

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