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ज़मीन की चीख: भारत के किसानों की अनसुनी दास्तान

भारत, जिसे कृषि प्रधान देश कहा जाता है, वहाँ के किसानों की स्थिति विडंबनापूर्ण है। वे जो देश का पेट भरते हैं, अक्सर खुद भूखे मरने को मजबूर हो जाते हैं। हरित क्रांति के बाद से लेकर आज तक, किसानों के अधिकारों और उनके हक की लड़ाई जारी है। लेकिन हर बार सत्ता किसानों की आवाज़ को कुचलने की कोशिश करती है। झूठे वादों और आधे-अधूरे सुधारों के बीच किसानों का शोषण जारी है। यह लेख भारत के किसानों की संघर्षगाथा को विस्तार से प्रस्तुत करता है, उनकी समस्याओं, आंदोलनों, और संभावित समाधानों पर गहन विचार करता है।


 किसानों की स्थिति: एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

भारत में किसानों की स्थिति का इतिहास बहुत पुराना है। स्वतंत्रता से पहले भी किसानों का शोषण जारी था। ब्रिटिश शासन के दौरान ज़मींदारी प्रथा और लगान की अत्यधिक दरों ने किसानों को गरीबी और कर्ज़ के जाल में फंसा दिया। स्वतंत्रता के बाद भी स्थिति में बहुत सुधार नहीं हुआ। हरित क्रांति ने कुछ हद तक उत्पादन बढ़ाया, लेकिन इसके साथ ही किसानों पर रासायनिक खाद और कीटनाशकों का बोझ भी बढ़ गया। छोटे और सीमांत किसानों की स्थिति और भी खराब हो गई।

किसानों के आंदोलन: एक संघर्ष गाथा

देश में कई बार किसानों ने अपने हक के लिए आवाज़ उठाई है। इन आंदोलनों में उनका संघर्ष, बलिदान और धैर्य दिखता है। 2020-21 का किसान आंदोलन इसका सबसे बड़ा उदाहरण था, जब लाखों किसानों ने तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली की सीमाओं पर डेरा डाला।

लेकिन यह पहला आंदोलन नहीं था। इससे पहले भी:

 1988: महेंद्र सिंह टिकैत का नेतृत्व

1988 में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में किसानों ने दिल्ली के बोट क्लब पर विशाल प्रदर्शन किया। यह आंदोलन किसानों की मांगों को लेकर था, जिसमें उचित फसल मूल्य और कर्ज़ माफी की मांग शामिल थी।

 2017: महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में आंदोलन

2017 में महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में किसानों ने अपनी फसलों के उचित दाम और कर्ज़ माफी के लिए आंदोलन किए। इन आंदोलनों में किसानों ने सड़कों पर उतरकर अपनी मांगों को जोरदार ढंग से रखा।

2018: किसान मुक्ति मार्च

2018 में दिल्ली में ‘किसान मुक्ति मार्च’ निकाला गया, जिसमें किसानों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) और कर्ज़ माफी की मांग की। यह मार्च किसानों की एकजुटता और संघर्ष का प्रतीक बन गया।

 2020-21: कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन

2020-21 में केंद्र सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानूनों के विरोध में पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और अन्य राज्यों के किसानों ने दिल्ली की सीमाओं पर ऐतिहासिक धरना दिया। इस आंदोलन में 750 से अधिक किसानों की जान चली गई।

 750 किसानों की शहादत: न कभी भूला जाएगा, न माफ किया जाएगा

2020-21 के किसान आंदोलन के दौरान 750 से अधिक किसानों ने ठंड, बारिश, भूख और सत्ता की क्रूरता के कारण अपनी जान गंवाई। इनमें से कुछ किसानों की मौत ठंड और दिल के दौरे से हुई, कुछ ने निराशा में आत्महत्या कर ली, तो कुछ को पुलिसिया कार्रवाई में अपनी जान गंवानी पड़ी। यह शहादत किसानों के संघर्ष की गवाही देती है और सत्ता की क्रूरता को उजागर करती है।

सत्ता का रवैया: हर बार कुचला गया आंदोलन

हर बार जब भी किसान अपने अधिकारों के लिए खड़े होते हैं, सत्ता उन्हें दबाने की कोशिश करती है। सरकारें पुलिस बल, मीडिया प्रोपेगैंडा और कानूनी दांव-पेचों का इस्तेमाल करके आंदोलन को तोड़ने का प्रयास करती हैं।

मीडिया का दुष्प्रचार

किसानों को ‘आंदोलनजीवी’, ‘खालिस्तानी’, ‘अराजकतावादी’ जैसे शब्दों से बदनाम किया गया। मीडिया ने किसानों की वास्तविक समस्याओं को नजरअंदाज करके उन्हें गलत तरीके से प्रस्तुत किया।

 पुलिसिया दमन

लाठीचार्ज, आंसू गैस और वाटर कैनन का इस्तेमाल किया गया। किसानों के साथ बर्बरता से पेश आया गया और उन्हें दबाने की कोशिश की गई।

 इंटरनेट और संचार बंदी

प्रदर्शनकारियों को अलग-थलग करने के लिए इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गईं। यह कदम किसानों को दबाने और उनकी आवाज़ को दबाने के लिए उठाया गया।

झूठे वादे और आधे-अधूरे समाधान

MSP पर कानूनी गारंटी देने का वादा हर बार किया गया, लेकिन अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। किसानों को झूठे वादों से बार-बार ठगा गया।

 MSP: हर बार झूठे वादे

न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) किसानों के लिए जीवनरेखा है, लेकिन हर सरकार इस मुद्दे को बस चुनावी वादा बनाकर छोड़ देती है।

स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें

स्वामीनाथन आयोग ने सुझाव दिया था कि किसानों को उत्पादन लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य मिलना चाहिए। लेकिन इस सिफारिश को लागू नहीं किया गया।

सरकारी उपेक्षा

सरकारें MSP घोषित तो करती हैं, लेकिन उसे लागू नहीं करतीं, जिससे बिचौलियों का फायदा होता है और किसान घाटे में रहते हैं। किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिलता।

आगे का रास्ता: समाधान क्या है?

किसानों की समस्याओं का समाधान नीतिगत सुधारों और किसानों की सहमति से ही संभव है। यहाँ कुछ संभावित समाधान प्रस्तुत हैं:

MSP की कानूनी गारंटी

जब तक MSP को कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं बनाया जाता, किसानों की स्थिति नहीं सुधरेगी। MSP की कानूनी गारंटी किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाने में मदद करेगी।

कर्ज़ मुक्ति

छोटे और सीमांत किसानों को कर्ज़ से राहत देने की नीतियाँ बनाई जाएं। कर्ज़ मुक्ति किसानों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने में मदद करेगी।

कृषि सुधार किसानों की सहमति से हों

नीतियाँ किसानों से संवाद करके बनाई जाएं, न कि कॉर्पोरेट दबाव में। किसानों की सहमति से बनी नीतियाँ ही स्थायी समाधान प्रदान कर सकती हैं।

 मीडिया की निष्पक्षता

किसानों की वास्तविक समस्याओं को सही रूप में प्रस्तुत करने की जरूरत है। मीडिया को किसानों की आवाज़ को निष्पक्षता से प्रस्तुत करना चाहिए।

निष्कर्ष:-

भारत के किसानों की चीख़ें हर बार सत्ता के गलियारों में अनसुनी रह जाती हैं। किसान हर बार ठगे जाते हैं, हर बार कुचले जाते हैं। लेकिन जब तक खेतों में हल चलेगा, जब तक धरती पर अन्न उगेगा, तब तक किसानों की लड़ाई जारी रहेगी। ज़मीन की चीख़ों को दबाया नहीं जा सकता। किसानों की आवाज़ को सुनने और उनकी समस्याओं का समाधान करने की जरूरत है। यही भारत के कृषि प्रधान देश होने का सच्चा अर्थ है।

नोट - Z S AZZAQI  द्वारा लिखी गयी - 2020 के किसान आंदोलन पर उनकी श्रृंखला "ज़मीन की चीख" से लिया गया सा आभार एक आर्टिकल 

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