नई दिल्ली, 29 जनवरी 2025 – भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को हल करने की दिशा में एक नई पहल हुई है। पूर्वी लद्दाख के डेपसांग और डेमचोक क्षेत्रों में सैन्य तनाव कम करने के उद्देश्य से दोनों देशों ने सेनाओं को पीछे हटाने पर सहमति जताई है। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि जमीनी हकीकत अब भी चिंताजनक बनी हुई है, और चीन की आक्रामक नीतियों पर भारत सरकार की खामोशी सवालों के घेरे में है।
क्या 'लाल आंख' की नीति सिर्फ चुनावी जुमला थी?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 से पहले, जब वे विपक्ष में थे, तत्कालीन मनमोहन सरकार को चीन के आक्रामक रवैये पर घेरा था। उन्होंने अपने भाषणों में कहा था कि चीन को उसकी हरकतों पर "लाल आंख" दिखाने की जरूरत है। लेकिन अब, सत्ता में 11 साल पूरे होने के बावजूद, हालात उलट नजर आ रहे हैं।
पिछले एक दशक में चीन ने अरुणाचल प्रदेश में हजारों किलोमीटर भारतीय भूमि पर दावा ठोक दिया, लद्दाख में लगातार घुसपैठ कर रहा है और सीमाओं पर सैन्य गतिविधियां तेज कर दी हैं। तवांग और अन्य संवेदनशील क्षेत्रों में चीन की उकसाने वाली हरकतें जारी हैं, लेकिन इस पर प्रधानमंत्री मोदी या उनकी सरकार की ओर से कोई ठोस बयान या जवाबी कार्रवाई नहीं देखी गई है।
पांच वर्षों में पहली उच्चस्तरीय बैठक, लेकिन ठोस नतीजे नहीं
रूस के कज़ान में आयोजित ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच पांच वर्षों में पहली द्विपक्षीय बैठक हुई। इसके बाद, दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्रियों के बीच कई दौर की वार्ताएं हुईं, जिनमें सीमा से सेनाओं को पीछे हटाने पर सहमति बनी।
हालांकि, इस वार्ता में चीन द्वारा भारत की जमीन पर किए गए अतिक्रमण का मुद्दा उठाने की कोई आधिकारिक जानकारी सामने नहीं आई। सरकार की इस रणनीतिक चुप्पी को लेकर विपक्ष लगातार सवाल उठा रहा है।
सीमा पर हालात गंभीर, लेकिन सरकार की प्रतिक्रिया धीमी
गलवान घाटी में जून 2020 की हिंसक झड़प के बाद से भारत और चीन के बीच सैन्य गतिरोध बना हुआ है। स्थिति को नियंत्रित करने के लिए दोनों देशों के बीच अब तक 38 दौर की वार्ताएं हो चुकी हैं। हालांकि, अमेरिका और अन्य अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों की रिपोर्ट्स के अनुसार, चीन ने लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश में अपने सैन्य ठिकानों का विस्तार किया है और लगातार भारतीय सीमाओं में घुसपैठ बढ़ा रहा है।
विशेषज्ञों का कहना है कि हाल ही में चीन ने अरुणाचल प्रदेश में कई भारतीय गांवों के नाम बदल दिए और तवांग क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश कर रहा है। इसके बावजूद, भारत सरकार की ओर से चीन के खिलाफ कोई तीखा बयान या कड़ी कार्रवाई नहीं की गई है।
क्या सरकार की चुप्पी रणनीतिक है या असहायता का संकेत?
विश्लेषकों का मानना है कि भारत सरकार ने चीन को लेकर अब तक कोई कठोर रुख नहीं अपनाया है। 2014 से पहले मोदी सरकार ने जिस "लाल आंख" दिखाने की बात कही थी, वह अब कहीं नजर नहीं आ रही। सरकार की इस चुप्पी को लेकर विपक्ष भी लगातार सवाल उठा रहा है।
भविष्य की राह: क्या भारत अपनी संप्रभुता की रक्षा कर पाएगा?
भारत-चीन संबंधों में हालिया सुधार महत्वपूर्ण हैं, लेकिन स्थायी शांति और विश्वास बहाली के लिए ठोस रणनीति की आवश्यकता है। यदि सरकार चीन की घुसपैठ और क्षेत्रीय विस्तारवाद को लेकर कोई स्पष्ट संदेश नहीं देती, तो इससे भारत की सुरक्षा और संप्रभुता पर गंभीर खतरा उत्पन्न हो सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को केवल कूटनीतिक वार्ताओं तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि चीन के आक्रामक रवैये का खुलकर विरोध करना चाहिए। अन्यथा, आने वाले वर्षों में भारतीय सीमाओं पर और अधिक दबाव बढ़ सकता है, और भारत की भौगोलिक अखंडता के लिए यह एक बड़ी चुनौती बन सकती है।
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