16 दिसम्बर 2025 |✍🏻 Z S Razzaqi |वरिष्ठ पत्रकार
भारत के ग्रामीण गरीबों के लिए जीवनरेखा मानी जाने वाली महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) एक बार फिर केंद्र में है—लेकिन इस बार विस्तार के लिए नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व को लेकर।
केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित Viksit Bharat Guarantee for Rozgar and Ajeevika Mission (Gramin) Bill, 2025 ने अर्थशास्त्रियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और राज्यों को गंभीर चिंता में डाल दिया है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह नया विधेयक रोजगार की गारंटी को कानूनी अधिकार से बदलकर सरकारी कृपा में तब्दील कर देता है।
ग्रामीण जीवन की सुरक्षा-कवच: MGNREGA की असली भूमिका
कर्नाटक के रायचूर ज़िले के हीरापुर गांव में रहने वाले हरौली शेखर जैसे लाखों भूमिहीन मजदूरों के लिए MGNREGA केवल रोजगार योजना नहीं, बल्कि गांव में टिके रहने की गारंटी है।
2005 में कांग्रेस-नेतृत्व वाली यूपीए सरकार द्वारा लागू यह कानून ग्रामीण परिवारों को साल में कम से कम 100 दिन का वैधानिक रोजगार देता है—और विफलता पर बेरोज़गारी भत्ता भी।
भले ही काम और भुगतान में देरी होती हो, फिर भी यह योजना मजदूरों को शहरों की मजबूरी भरी पलायन-यात्रा से बचाती है।
नया बिल: अधिकार से नियंत्रण की ओर
नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा प्रस्तावित नया बिल सतही तौर पर भले ही रोजगार दिवसों को 100 से बढ़ाकर 125 करता हो, लेकिन असल बदलाव सत्ता के केंद्रीकरण में छिपा है।
मुख्य विवादास्पद प्रावधान
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अब रोजगार मजदूर की मांग पर नहीं, बल्कि केंद्र सरकार की वार्षिक स्वीकृति पर मिलेगा
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ग्राम पंचायतों की भूमिका कमजोर, क्योंकि योजनाओं को केंद्र की मंजूरी अनिवार्य
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राज्यों पर अधिक वित्तीय बोझ, जबकि निर्णय केंद्र के हाथ में
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केंद्र तय करेगा कि किस जिले या गांव में काम मिलेगा या नहीं
“गारंटी बिना गारंटी” — विशेषज्ञों की चेतावनी
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री Jean Dreze का कहना है:
“यह कानून MGNREGA को नया रूप देने के नाम पर उसे नष्ट करने की तैयारी है। यह रोजगार गारंटी देता है—लेकिन यह नहीं बताता कि वह गारंटी लागू भी होगी या नहीं।”
LibTech India के शोधकर्ता चक्रधर बुद्ध के अनुसार,
“यदि यह बिल पास हुआ, तो लोग काम मांगने पर नहीं, बल्कि तब पाएंगे जब केंद्र सरकार चाहेगी। यह हमें MGNREGA से पहले के दौर में वापस ले जाएगा।”
राज्यों के अधिकार कम, जिम्मेदारी अधिक
नए बिल के तहत:
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अधिकांश राज्यों में 60:40 लागत साझेदारी
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यदि राज्य तय सीमा से अधिक खर्च करता है, तो पूरा बोझ उसी पर
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पूर्वोत्तर व पहाड़ी राज्यों को ही 90% केंद्रीय सहायता
केरल से राज्यसभा सांसद John Brittas के अनुसार,
“इससे राज्यों पर 50,000 करोड़ रुपये से अधिक का अतिरिक्त भार पड़ेगा—केवल केरल पर ही 2,000–2,500 करोड़।”
कृषि मौसम में 60 दिन का ‘वर्क ब्रेक’: मजदूरों पर दोहरी मार
नया बिल कृषि मौसम के दौरान 60 दिन तक रोजगार रोकने का प्रावधान करता है।
सरकार इसे खेतों में श्रमिक उपलब्धता के लिए जरूरी बताती है, लेकिन विशेषज्ञ इसे मजदूरों की सौदेबाजी शक्ति खत्म करने वाला कदम मानते हैं।
Mazdoor Kisan Shakti Sangathan के संस्थापक निखिल डे कहते हैं:
“इससे जमींदारों का वर्चस्व लौटेगा और मजदूरी शोषण बढ़ेगा।”
डिजिटल निगरानी: अधिकार से बाहर धकेले जाते मजदूर
बायोमेट्रिक हाजिरी, आधार-आधारित भुगतान और अब AI-आधारित ट्रैकिंग सिस्टम—
ये सभी मिलकर ग्रामीण मजदूरों के लिए तकनीक का बोझ बनते जा रहे हैं।
LibTech के अनुसार, केवल e-KYC के कारण 27 लाख से अधिक मजदूर सिस्टम से बाहर हो चुके हैं।
दूरदराज़ इलाकों में तकनीकी विफलता का मतलब—रोज़गार का अधिकार समाप्त।
