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बीते 11 वर्षों में भारत: सामाजिक दरारें, आर्थिक अस्थिरता और लोकतांत्रिक क्षरण का एक विस्तृत विश्लेषण

 7 दिसंबर 2025 | पत्रकारकविता शर्मा  | पत्रकार  

भारत एक ऐसा देश है जिसकी आत्मा उसकी विविधता, सामूहिकता और सामाजिक सौहार्द में बसती है। पर पिछले 11 वर्षों ने इस देश की आत्मा पर ऐसे घाव छोड़े हैं जो केवल राजनीतिक मूल्यांकन की कहानी नहीं, बल्कि राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक ढांचे की गंभीर टूटन का बयान हैं। यह अवधि केवल सत्ता परिवर्तन का अध्याय नहीं थी—यह एक ऐसा दौर रहा जिसमें देश की दिशा, नीतियाँ, संस्थाएँ, विकास मॉडल और सामाजिक संतुलन—सब प्रश्नों के घेरे में आ गए।

यह लेख उन सभी पहलुओं को विस्तार से समझने का एक प्रयास है।


भाग 1: सामाजिक ताने-बाने पर नफरत का बोझ

1.1 नफरत का राजनीतिक चरित्र

भारत के लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत सामाजिक सद्भाव रही है। लेकिन पिछले दशक में नफरत एक उपकरण बन गई—

  • भाषणों में विभाजनकारी टिप्पणियाँ

  • टीवी चैनलों पर नफरत आधारित डिबेट

  • सोशल मीडिया पर संगठित प्रचार

  • और सरकारी चुप्पी ने इस आग को संस्थागत रूप दे दिया

नफरत अब राजनीतिक लाभ का सबसे बड़ा साधन बन गई।

1.2 समाज में मानसिक विभाजन

पहले जहाँ धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्रीय पहचान सिर्फ विविधता का प्रतीक थे, वहीं अब वे

  • राजनीतिक पहचान

  • दुश्मनी के आधार

  • और सामाजिक दूरियों के स्थायी स्तंभ

बन गए। यह विभाजन सिर्फ चुनावी रणनीति नहीं—भविष्य की पीढ़ियों में सामाजिक हिंसा का बीज बोती प्रक्रिया है।


भाग 2: लोकतांत्रिक संस्थाओं पर दबाव

2.1 संसद का पतन

पहले संसद देश की वास्तविक आवाज़ थी।
अब

  • सवाल पूछना अपराध मान लिया गया

  • अध्यादेशों का दुरुपयोग बढ़ा

  • विपक्ष को निलंबित किया गया

  • बहसें सीमित हो गईं

संसदीय लोकतंत्र का मूल स्वभाव ही क्षीण हो गया।

2.2 न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल

लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायपालिका अंतिम सुरक्षा दीवार होती है, लेकिन

  • विवादास्पद नियुक्तियाँ

  • महत्वपूर्ण मामलों में देरी

  • जांच एजेंसियों का राजनीतिक उपयोग

  • और सर्वोच्च अदालत पर बढ़ती सार्वजनिक आशंकाएँ

इन सबने न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता को गहरा झटका दिया।

2.3 मीडिया का दमन

मीडिया जो कभी "लोकतंत्र का चौथा स्तंभ" कहलाता था, अब

  • सरकारी प्रचार का वाहक

  • भय, धमकी और दबाव में संचालित

  • जांच एजेंसियों की कार्रवाई से डराया गया

  • आलोचना करने वालों को देशद्रोही ठहराया गया

आज बहुत कम मीडिया संस्थान ही सत्ता से सवाल पूछने का साहस कर पाते हैं।


भाग 3: नीतिगत गलतियाँ जिन्होंने अर्थव्यवस्था को झकझोरा

3.1 नोटबंदी: एक रात जिसने अर्थव्यवस्था का संतुलन तोड़ दिया

नोटबंदी सिर्फ आर्थिक निर्णय नहीं, बल्कि आर्थिक आपदा थी जिसका प्रभाव वर्षों तक उभरा।

  • लाखों मजदूर बेरोज़गार हुए

  • छोटे व्यवसाय टूट गए

  • अनौपचारिक अर्थव्यवस्था नष्ट हो गई

  • उत्पादन और रोजगार दोनों ध्वस्त हुए

  • नकदी संकट ने उद्योगों को पंगु कर दिया

यह निर्णय आज भी विशेषज्ञों द्वारा “स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी नीतिगत असफलता” कहा जाता है।

3.2 GST की अव्यवस्थित प्रणाली

GST का उद्देश्य अच्छा था, लेकिन उसका ढांचा अव्यवस्थित और जटिल रहा।

  • अत्यधिक कर स्लैब

  • रिफंड में देरी

  • पोर्टल की तकनीकी खराबियाँ

  • छोटे व्यापारियों पर भारी कर बोझ

GST ने छोटे उद्यमियों को कमजोर किया, जबकि बड़े कॉर्पोरेट को लाभ मिला।

3.3 लॉकडाउन की त्रासदी

अचानक घोषित लॉकडाउन भारत के इतिहास की सबसे बड़ी मानवीय त्रासदियों में शामिल हुआ।

  • करोड़ों मजदूर पैदल चलकर मरे

  • ग्रामीण अर्थव्यवस्था बिखर गई

  • शहरी श्रम बाजार कुछ महीनों तक अस्तित्वहीन रहा

  • मध्यम वर्ग पर भीषण आर्थिक तनाव पड़ा

यह निर्णय प्रशासनिक दूरदर्शिता की कमी का सबसे कड़वा उदाहरण है।


भाग 4: CAA, NRC और लोकतांत्रिक आंदोलनों का दमन

4.1 नागरिकता को सवालों में बदल देना

CAA और NRC ने नागरिकता जैसे संवेदनशील अधिकार को भय का विषय बना दिया।

  • करोड़ों लोगों ने दस्तावेज़ों के लिए संघर्ष किया

  • देश भर में अभूतपूर्व आंदोलन हुए

  • महिलाओं और युवाओं ने लोकतंत्र की रक्षा के लिए आवाज़ उठाई

लेकिन प्रतिक्रिया रही—

  • गिरफ्तारियाँ

  • झूठे मुकदमे

  • बदनाम करने वाले अभियान

सरकार ने असहमति को राष्ट्र-विरोधी ठहराने की कोशिश की।


भाग 5: किसान आंदोलन — एक साल का संघर्ष

किसानों पर थोपे गए कृषि कानून दिखाते हैं कि नीतियाँ बिना संवाद और अध्ययन के बनाई गईं।

  • कानूनों को समझने का अवसर नहीं दिया गया

  • विरोध करने वालों को अपमानित किया गया

  • हजारों किसानों की जान गई

  • एक वर्ष बाद सरकार अपने ही कानून वापस लेने को मजबूर हुई

इससे स्पष्ट हुआ कि देश में नीतिनिर्माण प्रक्रिया संवेदनशीलता से नहीं, बल्कि आदेशात्मक अंदाज़ में चल रही है।


भाग 6: रेलवे, सड़कों और निर्माण कार्यों की विफलता

6.1 रेलवे

रेल दुर्घटनाएँ बढ़ीं पर जवाबदेही नहीं।

  • बड़े हादसों के बाद भी कोई इस्तीफ़ा नहीं

  • बुनियादी ढांचे की मरम्मत अधूरी

  • आधुनिकीकरण राजनीतिक भाषणों में सीमित

यात्रियों की सुरक्षा को प्रचार के पीछे धकेल दिया गया।

6.2 पुलों और सड़कों का गिरना

देश भर में

  • नए पुल ढह रहे हैं

  • सड़कें कुछ महीनों में धंस जाती हैं

  • निर्माण गुणवत्ता बेहद खराब

यह भ्रष्टाचार का स्पष्ट प्रमाण है, पर दंडित कोई नहीं।


भाग 7: बेरोज़गारी, महंगाई और आर्थिक संकट

7.1 बेरोजगारी चरम पर

आज भारत के युवा सबसे बड़े संकट से गुजर रहे हैं।

  • सरकारी नौकरियाँ बंद या स्थगित

  • लाखों पद खाली

  • निजी क्षेत्र में अवसर कम

  • उद्योग जगत पर नीतिगत अस्थिरता का असर

एक पीढ़ी मनोवैज्ञानिक और आर्थिक तनाव में फँसी है।

7.2 महंगाई

रसोई से लेकर परिवहन तक सब महंगा।

  • ईंधन

  • गैस

  • दालें

  • दूध

  • सब्जियाँ

  • बीमा

  • शिक्षा

महंगाई ने परिवारों की रीढ़ तोड़ दी।


भाग 8: प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से निजीकरण

भारत की सामूहिक सम्पत्ति—

  • बंदरगाह

  • खनिज

  • कोयला

  • बिजली

  • हवाई अड्डे

  • जल संसाधन

सब कुछ कुछ चुनिंदा कॉर्पोरेट संस्थानों को सौंपा गया। इससे

  • एकाधिकार बढ़ा

  • प्रतिस्पर्धा घटी

  • जनता पर बोझ बढ़ा

राष्ट्र के संसाधन जनहित की जगह निजी हित में उपयोग हो रहे हैं।


भाग 9: शिक्षा व्यवस्था का पतन

9.1 स्कूल बंद होना

कई राज्यों में हजारों सरकारी स्कूल बंद किए गए।

  • गरीब और ग्रामीण बच्चों की शिक्षा प्रभावित

  • लड़कियों का स्कूल छोड़ना बढ़ा

  • शिक्षकों की कमी गंभीर हुई

9.2 उच्च शिक्षा पर संकट

विश्वविद्यालयों में असहमति पर कार्रवाई बढ़ी।

  • छात्र नेताओं पर FIR

  • स्वतंत्रता-संपन्न शोध वातावरण खत्म

  • नियुक्तियों में पारदर्शिता कम

भारत का ज्ञान-आधारित भविष्य अंधेरे में धकेला जा रहा है।


भाग 10: अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा और सूचकांकों का पतन

भारत कई वैश्विक सूचकांकों में तेजी से नीचे गिरा है।
यह अंतरराष्ट्रीय समुदाय का भारत की आंतरिक स्थिति पर गंभीर मूल्यांकन है।

  • प्रेस की स्वतंत्रता कम हुई

  • भूख में वृद्धि

  • कानून के शासन का पतन

  • गरीबी में उछाल

  • पर्यावरणीय क्षति बढ़ी

ये आंकड़े बताते हैं कि देश प्रचार में आगे, लेकिन वास्तविक विकास में पीछे होता गया।


भाग 11: एयरलाइन और सेवा क्षेत्र की अव्यवस्था — इंडिगो एक उदाहरण

इंडिगो की अराजकता केवल एक एयरलाइन की विफलता नहीं है—
यह पूरे प्रबंधन तंत्र की कमजोरियों का आईना है।

  • उड़ानों का बड़े पैमाने पर रद्द होना

  • यात्रियों का फँसना

  • प्रशासनिक तैयारियों की कमी

यह दिखाता है कि भारत की सेवाएँ सतही चमक के पीछे गहरी बदहाली छुपाए बैठी हैं।


अब्दुल को टाइट करने के चक्कर में सबकुछ ढीला होगया 

नफ़रत बाँटने वालों को तो बड़ा मज़ा आता था जब सरकारी साज़िशों की आहट पर बुलडोज़र गरजते थे और सत्ता का तमाशा सड़क पर उतरकर अपनी ताक़त दिखाता था। उन्हें लगता था कि डर और दमन से समाज को झुकाया जा सकता है। मगर इतिहास की अपनी विडम्बनाएँ होती हैं—जो लोग दूसरों को कसकर पकड़ने चले थे, वही एक दिन ऐसी उलझन में फँस गए कि अब उनके अपने दाँव ढीले पड़ते जा रहे हैं। सत्ता का पहिया जब ज़्यादा ज़ोर से घुमाया जाए, तो वही पहिया पलटकर पूरे सिस्टम को हिला देने की क्षमता रखता है, और आज वही हो रहा है—अति का घमंड टूटने लगा है, और सच्चाई, चाहे देर से सही, अपना असर दिखाने लगी है।

भविष्य की दिशा: भारत को किस रास्ते की जरूरत है

भारत को बचाने के लिए आवश्यक है कि

  • नफरत की राजनीति समाप्त हो

  • सामाजिक एकता को पुनर्जीवित किया जाए

  • नीतियाँ विशेषज्ञों की सलाह से बनें

  • संस्थाओं को स्वतंत्रता मिले

  • जनता को सम्मान मिले

  • संसाधन कुछ हाथों से निकलकर जनता के लिए काम करें

  • संवाद, विश्वास और पारदर्शिता बढ़े

  • शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार पर राष्ट्र का ध्यान लौटे

एक ऐसा राष्ट्र जिसके नागरिक भय, भूख और बेरोज़गारी में जीते हों—वह महान नहीं बन सकता।

भारत को मजबूत बनाने का रास्ता शक्ति-प्रदर्शन नहीं,
बल्कि समानता, न्याय, अवसर और सामाजिक सौहार्द से जाता है।




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