नई दिल्ली | 2 नवम्बर 2025 | रिपोर्ट: Z S Razzaqi |वरिष्ठ पत्रकार
प्रस्तावना: न्याय की राह में पाँच साल लंबा इंतज़ार
मामले की पृष्ठभूमि
फरवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा को लेकर कई छात्रों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और नागरिकों पर UAPA जैसी कठोर धाराओं के तहत मुकदमा दर्ज किया गया था।
उमर खालिद, जो पहले से ही कई सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर मुखर रहे हैं, उन्हें “दिल्ली दंगों की साजिश” का हिस्सा बताया गया।
दिल्ली पुलिस का आरोप है कि इन अभियुक्तों ने “योजना बनाकर विरोध प्रदर्शनों के ज़रिए हिंसा भड़काई”, लेकिन पिछले पाँच वर्षों में न तो ट्रायल शुरू हुआ, न ही किसी प्रत्यक्ष साक्ष्य का ठोस आधार सामने आया।
सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई और न्यायिक देरी की सच्चाई
सुप्रीम कोर्ट में जब वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने इस मामले में जमानत याचिका पर तर्क रखा, तो उन्होंने जो आँकड़े प्रस्तुत किए, वे किसी भी लोकतंत्र के लिए शर्मनाक थे।
उन्होंने बताया कि –
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55 तारीखों पर जज छुट्टी पर रहे।
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26 तारीखों पर अदालत में समय नहीं था।
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59 तारीखों पर स्पेशल पब्लिक प्रॉसीक्यूटर ही अनुपस्थित रहे।
इसका मतलब है कि लगभग 140 से अधिक सुनवाई केवल “सिस्टम की गैर-जिम्मेदारी” में बर्बाद हुईं।
और इस सबके बीच, दिल्ली पुलिस आज भी यह कहती रही कि “आरोपी ट्रायल टाल रहे हैं।”
वास्तविकता यह है कि उमर खालिद का नाम कुल 751 एफआईआर में से केवल एक में है, और उस एक मामले में भी ट्रायल शुरू नहीं हुआ। फिर भी वे पाँच वर्ष से अधिक समय से जेल में बंद हैं।
कानूनी दृष्टि से प्रश्न: क्या देरी ही न्याय का अंत नहीं है?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति को “जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता” का अधिकार प्राप्त है।
लेकिन जब एक नागरिक बिना ट्रायल के वर्षों तक जेल में रहता है, तो क्या यह अनुच्छेद अपने अर्थ को नहीं खो देता?
न्यायालयों का यह दायित्व है कि वे बेल मामलों को प्राथमिकता से सुनें, क्योंकि जमानत का सिद्धांत “न्याय” का हिस्सा है, न कि दया का परिणाम।
यदि किसी आरोपी के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं, हथियार नहीं, फंडिंग नहीं, और न ही हिंसा से जुड़ा कोई भौतिक प्रमाण है — तो ऐसे में उसका पाँच वर्षों तक हिरासत में रहना न्यायिक निष्पक्षता पर गहरा प्रश्नचिह्न है।
लोकतंत्र के लिए गहरी चिंता: जब न्याय व्यवस्था सुस्त पड़ जाए
भारत स्वयं को “मदर ऑफ डेमोक्रेसी” कहता है — पर क्या ऐसा लोकतंत्र अपने नागरिकों के साथ समान व्यवहार करता है?
क्या न्याय केवल उन लोगों तक सीमित रह गया है जिनके पास शक्ति, साधन और राजनीतिक पहुँच है?
जहाँ नाम ‘उमर’ हो या ‘शरजील’, वहाँ न्याय की गति ठहर जाती है — यह धारणा समाज के भीतर एक असुरक्षा और अविश्वास की भावना को जन्म देती है।
न्याय में देरी का मतलब सिर्फ़ देरी नहीं, बल्कि न्याय से वंचना है। और जब न्याय वंचित हो जाए, तो लोकतंत्र की आत्मा भी घायल होती है।
दिल्ली पुलिस और अभियोजन की भूमिका पर सवाल
दिल्ली पुलिस ने इस मामले में “साजिश” की थ्योरी को लेकर जो चार्जशीट दायर की, उसमें कई विरोधाभास सामने आए।
कई गवाहों के बयान समय के साथ बदले, कुछ साक्ष्य अदालत में साबित नहीं हुए, और कई बार “पॉलिटिकल नैरेटिव” को साक्ष्य का रूप देने की कोशिश की गई।
कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि अगर अभियोजन पक्ष के पास इतने वर्षों में कोई ठोस सबूत नहीं मिला, तो यह साफ दर्शाता है कि केस का आधार कमजोर है।
इसके अलावा, अदालत में पेश की गई चार्जशीट के “सप्लीमेंटरी” वर्ज़न इतने अधिक हो चुके हैं कि पूरा मामला अब “कानूनी देरी की भूलभुलैया” में फँस गया है।
मानवीय दृष्टिकोण: हिरासत में बीते पाँच वर्ष
उमर खालिद ने जेल में अपने पाँच साल पूरे कर लिए हैं — बिना ट्रायल, बिना सजा, केवल आरोपों के आधार पर।
गुलफिशा फातिमा जैसी युवा एक्टिविस्ट, जिन्होंने नागरिकता संशोधन कानून (CAA) के विरोध में आवाज़ उठाई थी, आज भी जेल में हैं जबकि उनके खिलाफ कोई हिंसात्मक प्रमाण नहीं मिला।
यह केवल कानूनी नहीं, बल्कि मानवीय त्रासदी भी है — जहाँ नागरिक स्वतंत्रता का अर्थ ही धीरे-धीरे मिटता जा रहा है।
३ नवंबर की सुनवाई: क्या इस बार न्याय की घड़ी बजेगी?
अब इस मामले की अगली सुनवाई 3 नवंबर 2025 को निर्धारित है।
देश की निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं — क्या इस बार अदालत “वीकेंड” या “प्रोसीजर” की दीवारों से आगे बढ़कर न्याय को प्राथमिकता देगी?
या फिर यह भी किसी नई तारीख़, किसी नई सुनवाई और किसी नए इंतज़ार में बदल जाएगा?
