नई दिल्ली | 6 नवम्बर 2025 | रिपोर्ट: Z S Razzaqi |वरिष्ठ पत्रकार
भारत में वायु प्रदूषण अब केवल पर्यावरणीय संकट नहीं, बल्कि एक "जनस्वास्थ्य आपातकाल" का रूप ले चुका है। इसी पृष्ठभूमि में, देशभर में तेजी से बिगड़ती वायु गुणवत्ता को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक महत्वपूर्ण जनहित याचिका (PIL) दाखिल की गई है। यह याचिका ल्यूक क्रिस्टोफर काउंटीन्हो — जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की Fit India Movement से जुड़े वेलनेस चैंपियन हैं — द्वारा दायर की गई है।
याचिकाकर्ता ने अदालत से मांग की है कि वह केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दे कि वे तुरंत ठोस कदम उठाएं और बढ़ते प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए देशव्यापी स्तर पर राष्ट्रीय जनस्वास्थ्य आपातकाल (National Public Health Emergency) घोषित करें।
2.2 मिलियन बच्चे झेल चुके हैं फेफड़ों की स्थायी क्षति
याचिका में यह गंभीर दावा किया गया है कि दिल्ली में 22 लाख से अधिक स्कूली बच्चे पहले ही अपरिवर्तनीय फेफड़ों की क्षति झेल चुके हैं, और यह स्थिति हर बीतते साल और भयावह होती जा रही है। यह न सिर्फ राजधानी बल्कि देश के कई प्रमुख शहरों — मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, लखनऊ, पटना और बेंगलुरु — में भी लागू होती है, जहाँ PM₂.₅ और PM₁₀ का स्तर लगातार खतरनाक सीमाओं से ऊपर है।
संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वास्थ्य का अधिकार
याचिकाकर्ता ने दलील दी है कि नागरिकों का स्वच्छ वायु में सांस लेना, संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वास्थ्य के अधिकार का अभिन्न हिस्सा है। बावजूद इसके, देश के शहरी और ग्रामीण दोनों ही क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता लगातार गिर रही है और सरकारों की नीतियाँ ज़मीनी स्तर पर विफल साबित हो रही हैं।
खतरनाक आंकड़े: दिल्ली और पटना सबसे प्रदूषित
याचिका के अनुसार, राष्ट्रीय स्वच्छ वायु गुणवत्ता मानक (NAAQS), 2009 के तहत PM₂.₅ की वार्षिक औसत सीमा 40 μg/m³ और PM₁₀ की सीमा 60 μg/m³ तय की गई है।
परंतु वास्तविक आंकड़े कहीं अधिक भयावह हैं:
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दिल्ली: PM₂.₅ ≈ 105 μg/m³
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लखनऊ: PM₂.₅ ≈ 90 μg/m³
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पटना: PM₂.₅ ≈ 131 AQI के बराबर
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कोलकाता: PM₂.₅ ≈ 33 μg/m³
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के 2021 दिशानिर्देशों के अनुसार, सुरक्षित सीमा केवल PM₂.₅ = 5 μg/m³ और PM₁₀ = 15 μg/m³ होनी चाहिए। यानी भारत के कई शहर 10 से 20 गुना अधिक प्रदूषित हैं जितना WHO ने सुरक्षित बताया है।
ग्रामीण भारत निगरानी से बाहर
याचिका में यह भी कहा गया है कि भारत में वायु गुणवत्ता निगरानी (Air Quality Monitoring) मुख्यतः शहरी इलाकों तक सीमित है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों को नज़रअंदाज़ किया गया है।
वर्तमान में देश में पर्याप्त निगरानी केंद्र नहीं हैं —
कम से कम 4000 केंद्रों की आवश्यकता है (2800 शहरी + 1200 ग्रामीण), जबकि मौजूदा संख्या इस लक्ष्य से काफी पीछे है।
इस कारण “डेटा शैडो” की स्थिति बन गई है, जहाँ सबसे अधिक प्रभावित तबके — किसान, मजदूर, औद्योगिक बेल्ट और अनौपचारिक बस्तियाँ — आधिकारिक रिकॉर्ड में शामिल ही नहीं हैं।
नीतियाँ बनीं, लेकिन अमल अधूरा
सरकार द्वारा 2019 में शुरू किया गया राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP), जिसका उद्देश्य 2024 तक PM स्तर में 20–30% कमी लाना था (बाद में 2026 तक 40% तक का लक्ष्य बढ़ाया गया), वास्तविकता में काफी पीछे है।
जुलाई 2025 तक केवल 130 में से 25 शहरों ने ही 40% की कमी हासिल की है, जबकि 25 शहरों में प्रदूषण और बढ़ा है।
याचिकाकर्ता का तर्क
“भारत के 1.4 अरब नागरिक हर दिन ज़हरीली हवा में सांस लेने को मजबूर हैं। यह विफलता केवल प्रशासनिक नहीं बल्कि संरचनात्मक है — क्योंकि ग्रामीण इलाकों को निगरानी ढांचे से बाहर रखा गया है, और औद्योगिक नियमों का पालन केवल कागज़ों तक सीमित है।”
कानूनी ढांचा कमजोर हुआ
याचिका में आरोप है कि वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981 और अन्य पर्यावरणीय कानूनों के बावजूद, नियामक व्यवस्था को लगातार कमजोर किया गया है।
अपर्याप्त फंडिंग, बिखरी निगरानी और नियमों के पालन में ढिलाई के कारण, प्रदूषण नियंत्रण केवल औपचारिकता बनकर रह गया है।
यह भी बताया गया है कि भारत स्टेज-VI वाहनों की जांच में, नाइट्रोजन ऑक्साइड उत्सर्जन (NOx) कई गुना अधिक पाया गया है जितना मानक तय था।
