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लोकतंत्र की नींव हिलाने वाली प्रक्रिया? SIR के पीछे छिपी राजनीति और ब्लैक-आउट सच

 30 नवंबर 2025 |✍🏻 Z S Razzaqi |वरिष्ठ पत्रकार 

भारत की चुनावी व्यवस्था दुनिया की सबसे विशाल लोकतांत्रिक मशीनरी मानी जाती है—लेकिन जब यही मशीनरी भारीपन, भ्रम, भय और प्रशासनिक अव्यवस्था का प्रतीक बनने लगे, तब उसके उद्देश्यों, निष्ठा और निष्पक्षता पर स्वाभाविक प्रश्न उठते हैं।

वर्तमान में लागू की जा रही Special Intensive Revision (SIR) प्रक्रिया—जिसका मूल उद्देश्य मतदाता-सूची को स्वच्छ, अपडेटेड और वास्तविक बनाना है—उसी लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर एक गहरी बेचैनी, विरोध और शंका को जन्म दे रही है।

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बीते कुछ हफ्तों में देश के कई हिस्सों से लगातार जिस प्रकार बूथ-स्तरीय अधिकारियों (BLOs) की मौतों, आत्महत्याओं, तनाव-जन्य हार्ट अटैक, सुसाइड नोट्स, भय, अतिरिक्त बोझ, और प्रशासनिक दबाव की रिपोर्टें सामने आई हैं, उसने SIR को एक साधारण चुनावी अभ्यास नहीं रहने दिया। यह अब एक व्यापक राष्ट्रीय चिंता में बदल चुका है।


SIR का प्रशासनिक बोझ: आंकड़ों का काला सच

देशभर से प्राप्त रिपोर्टों के अनुसार:

  • SIR की शुरुआत के बाद मात्र कुछ सप्ताहों में 25–41 के बीच BLOs की मौतों के दावे सामने आ चुके हैं।

  • कई आत्महत्याओं में मृतक कर्मचारियों के सुसाइड नोट यह संकेत देते हैं कि टारगेट पूरा न होने, भीषण दबाव, रात-रात तक सर्वे, और एक साथ दो-दो जिम्मेदारियाँ उन्हें असहनीय लगने लगी थीं।

  • उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान जैसे राज्यों में लगातार बढ़ रही मौतें प्रशासनिक संरचना की विफलता की ओर संकेत करती हैं।

  • कई BLOs ने खुलकर कहा है कि उनसे अवास्तविक लक्ष्य, कड़ी समयसीमा, और कभी-कभी अनौपचारिक दबाव के साथ काम करवाया जा रहा था।

  • कुछ जिलों में BLOs ने यह भी शिकायत की कि SIR प्रक्रिया को “आपदा मोड” की तरह चलाया जा रहा है—जबकि यह एक साधारण नागरिक-सत्यापन प्रक्रिया है।

यह स्थिति यह दर्शाती है कि चुनावी-प्रबंधन की मूल आत्मा—मानवीय संवेदना और प्रशासनिक संतुलन—इस प्रक्रिया में कहीं खो गई है।


मतदाता सूची संशोधन या सामाजिक भय? नीति और वास्तविकता का अंतर

SIR का घोषित उद्देश्य यह है कि:

  • मृत मतदाताओं को हटाया जाए

  • डुप्लिकेट या फर्जी प्रविष्टियां साफ हों

  • नए और वास्तविक मतदाताओं को शामिल किया जाए

परंतु इसके लागू होने का तरीका कई संवेदनशील समुदायों के बीच व्यापक चिंता पैदा कर रहा है—विशेषत: दलित, मुसलमान, आर्थिक रूप से कमजोर तबके, प्रवासी मजदूर और शहरी झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले परिवार।

कई गंभीर आरोप सामने आए हैं:

  1. विशेष समुदायों के वोट हटाने के निर्देश
    कई राज्यों से ऐसी शिकायतें आई हैं कि BLOs को मौखिक निर्देश दिए गए कि विशेष जातीय/धार्मिक इलाकों के वोटों की “कड़ी जांच” की जाए।
    कुछ BLOs ने यह भी दावा किया कि वे ऐसा न करने पर नौकरी-छिनने की धमकी सुन चुके थे।

  2. सत्यापन के नाम पर सामाजिक दबाव
    घर-घर सत्यापन के दौरान, कई मजदूर या दिहाड़ी-मजदूर घर पर मौजूद नहीं होते। इससे उनके नाम काटे जाने का खतरा बढ़ गया है।

  3. डर और भ्रम का माहौल
    कई इलाकों में लोगों ने सवाल उठाया कि क्या SIR, NRC-CAA जैसी नीतियों के समान एक जनसंख्या-चयन प्रक्रिया की शुरुआत तो नहीं है।

लोकतंत्र का आदर्श यही है कि हर नागरिक की आवाज सुरक्षित, स्वतंत्र, बिना भय और दबाव के कायम रहे। लेकिन जब प्रक्रियाएँ अनिश्चित, कठोर व भ्रमित करने वाली बन जाएँ, तो नागरिक स्वाभाविक रूप से भयभीत होते हैं।


पूर्व नीतियों से तुलना: प्रशासनिक आकस्मिकता की पुरानी परंपरा

SIR पर उठ रहा विवाद यह भी दर्शाता है कि भारत में बड़े प्रशासनिक कदम अक्सर बिना पर्याप्त तैयारी, सँवाद, प्रशिक्षण और चरणबद्ध क्रियान्वयन के लागू कर दिए जाते हैं। यह व्यवहार कुछ पूर्व घटनाओं के समान दिखाई देता है:

1. नोटबंदी (2016)

रात 8 बजे की घोषणा के बाद करोड़ों लोगों के पास मौजूद 500–1000 रुपये की नोटें अवैध घोषित हो गईं।

  • उद्देश्य बताया गया: काला धन, आतंकवाद की फंडिंग, जाली नोटों पर रोक

  • परिणाम बने: नकद-आधारित वर्ग का टूटना, हजारों मौतों के आरोप, आर्थिक सुस्ती, और घोषित लक्ष्यों का अधूरापन

2. लॉकडाउन (2020)

बिना पूर्व सूचना लगाए गए लॉकडाउन ने लाखों प्रवासी मजदूरों को हजारों किलोमीटर पैदल चलने पर मजबूर कर दिया।

  • प्रशासनिक तैयारी अल्प

  • मानवीय पक्ष लगभग अनुपस्थित

  • दीर्घकालिक आर्थिक चोट गहरी

3. GST (2017)

क्रियान्वयन में अव्यवस्था, तकनीकी खामियाँ, छोटे व्यवसायों के लिए जटिलता
आज भी इसके सुधार जारी हैं

इन्हीं अनुभवों के आधार पर कई राजनीतिक दल, सामाजिक कार्यकर्ता और आम नागरिक SIR को “वही पुरानी प्रशासनिक हटधर्मिता” करार दे रहे हैं—जहाँ उद्देश्य भले संवैधानिक हो, परंतु क्रियान्वयन हिंसक, जल्दबाज़ी भरा, असंतुलित और मानवीय दृष्टि से असंवेदनशील बन जाता है।


BLOs: लोकतंत्र के सबसे निचले स्तर के सैनिक — और सबसे महंगे बलिदान

बूथ-स्तरीय अधिकारी (BLO) भारत की चुनावी व्यवस्था का पहला और सबसे महत्वपूर्ण स्तंभ हैं।
वे न सिर्फ मतदाता सूची बनाते हैं, बल्कि चुनावों के दौरान मतदान केंद्रों पर व्यवस्था भी संभालते हैं।

फिर भी:

  • उन्हें न्यूनतम वेतन

  • बिना पर्याप्त प्रशिक्षण

  • दोहरी-तीहरी जिम्मेदारियाँ

  • और SIR जैसे कार्यों में असंभव समयसीमाएँ दी जाती हैं

जिसके कारण यह वर्ग धीरे-धीरे लोकतांत्रिक कुल्हाड़ी का पहला और सबसे कठोर प्रहार झेल रहा है।

कई BLOs द्वारा छोड़ गए सुसाइड नोट में एक ही बात लिखी मिली:
“टारगेट पूरा नहीं हो रहा था… दबाव बहुत बढ़ गया था।”

जब एक संवैधानिक संस्था का कर्मचारी ही डर और दबाव से टूट जाए, तो यह चेतावनी है कि लोकतंत्र की जड़ें हिल रही हैं।


चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर प्रश्न

ECI दुनिया की सबसे मजबूत स्वतंत्र चुनावी संस्थाओं में गिना जाता रहा है।
लेकिन SIR की प्रक्रिया और BLOs की मौतों के बाद:

  • विपक्ष लगातार आरोप लगा रहा है कि आयोग सरकार के दबाव में काम कर रहा है

  • कई नागरिक समूह कह रहे हैं कि SIR नागरिक-अधिकारों का अतिक्रमण है

  • सोशल मीडिया से लेकर कोर्ट तक, SIR की वैधता, उसकी निष्पक्षता और मानवता पर तीखी बहस चल रही है

चुनाव आयोग जितना शक्तिशाली है, उसकी जवाबदेही भी उतनी ही गहरी है।
और जब किसी प्रक्रिया से हज़ारों BLOs भयभीत, परेशान या मृत पाए जाएँ, तो कठोर प्रश्न उठना स्वाभाविक है।


आगे का रास्ता: लोकतंत्र बचाने के लिए सुधार आवश्यक

SIR एक आवश्यक प्रक्रिया हो सकती है—लेकिन उसका वर्तमान रूप अत्यधिक विवादित और मानवीय मूल्यों का उल्लंघन करने वाला बन चुका है।

इसलिए आवश्यक है कि:

  1. समयसीमाएँ पुनः निर्धारित हों

  2. BLOs को पर्याप्त प्रशिक्षण और सहायक स्टाफ मिले

  3. मतदाता-हटाने की हर प्रक्रिया पारदर्शी और रिकॉर्ड-आधारित हो

  4. सामाजिक रूप से संवेदनशील समूहों की विशेष सुरक्षा सुनिश्चित हो

  5. हर मौत की स्वतंत्र जांच हो

  6. ECI हालात स्पष्ट करे: क्या लक्ष्य वैध हैं या सिर्फ संख्या-पूर्ति?

  7. SIR को चरणबद्ध और मानवीय ढंग से लागू किया जाए

लोकतंत्र तभी सुरक्षित रहता है जब उसकी प्रक्रियाएँ मजबूत के साथ-साथ न्यायपूर्ण, पारदर्शी और मानवीय भी हों।


निष्कर्ष:-

SIR का विवाद यह दर्शाता है कि भारत में प्रशासनिक नीतियाँ अक्सर संवैधानिक उद्देश्य के बावजूद क्रियान्वयन की खराबी का शिकार हो जाती हैं।
जब किसी प्रक्रिया से कर्मचारियों की मौतें होने लगें, नागरिक भयभीत होने लगें, और राजनीतिक विवाद चरम पर पहुँच जाए—तो यह सिर्फ एक नीति-विफलता नहीं होती, बल्कि लोकतांत्रिक चरित्र का संकट होती है।

भारत के लोकतंत्र की ताकत चुनाव आयोग की ईमानदारी और नागरिकों के विश्वास पर टिकी है।
SIR जैसे अभियानों को यदि सुधार नहीं मिला, तो यह विश्वास धीरे-धीरे क्षीण होगा—और यह क्षरण किसी भी लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है।

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