नई दिल्ली | 7 नवम्बर 2025 | रिपोर्ट: Z S Razzaqi |वरिष्ठ पत्रकार
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2020 में सीमांचल का उलटफेर
अमौर, बहादुरगंज, बायसी, जोकीहाट और कोचाधामन — ये वो पाँच सीटें थीं जहाँ AIMIM ने झंडा बुलंद किया था। इनमें से तीन सीटों (अमौर, बहादुरगंज, बायसी) पर महागठबंधन तीसरे स्थान पर रहा, जबकि दूसरे नंबर पर एनडीए के प्रत्याशी थे। यह नतीजा न सिर्फ़ महागठबंधन के लिए झटका था, बल्कि इसने यह भी साबित किया कि सीमांचल का मुस्लिम वोट बैंक अब पारंपरिक राजनीतिक दलों के बंधन से आज़ाद सोचने लगा है।
सीमांचल की सियासत की बुनावट
किशनगंज, अररिया, कटिहार और पूर्णिया — यही हैं सीमांचल के चार प्रमुख ज़िले।
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किशनगंज में मुस्लिम आबादी करीब 67%,
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कटिहार में 42%,
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अररिया में 41%,
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और पूर्णिया में 37% है।
यानी यह इलाका बिहार के मुस्लिम मतदाताओं का असली केंद्र है। यही कारण है कि ओवैसी ने सबसे पहले इस भूगोल को अपनी राजनीति की प्रयोगशाला बनाया।
ओवैसी की एंट्री और विस्तार
AIMIM ने 2015 में पहली बार बिहार में कदम रखा, लेकिन सफलता नहीं मिली। 2019 के किशनगंज उपचुनाव में पार्टी ने इतिहास रचते हुए जीत हासिल की। कमरूल होदा ने बीजेपी की स्वीटी सिंह को हराकर कांग्रेस का गढ़ तोड़ दिया। यही से शुरू हुआ AIMIM का उभार, जिसने 2020 में पाँच सीटों की जीत के साथ सीमांचल को हिला दिया।
हालाँकि, 2020 में जीते पाँच में से चार विधायक बाद में आरजेडी में शामिल हो गए, केवल अख़्तरुल ईमान AIMIM में बने रहे। फिर भी, ओवैसी का प्रभाव सीमांचल में बना रहा।
2025 में समीकरण क्या कहते हैं
इस बार महागठबंधन और एनडीए दोनों सीमांचल में अपनी पूरी ताकत झोंक रहे हैं।
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कांग्रेस: 12 सीटें
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आरजेडी: 9 सीटें
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वीआईपी: 2 सीटें
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सीपीआई(एमएल): 1 सीट
वहीं AIMIM ने पूरे बिहार में 25 उम्मीदवार उतारे हैं, जिनमें से 15 सीमांचल में हैं।
दूसरी ओर, -
बीजेपी 11,
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जेडीयू 10,
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और एलजेपी (रामविलास) 3 सीटों पर मैदान में है।
स्पष्ट है कि इस बार मुकाबला त्रिकोणीय होता जा रहा है — महागठबंधन बनाम एनडीए बनाम AIMIM।
“हमें अपना लीडर चाहिए”
सीमांचल के युवाओं के बीच ओवैसी की लोकप्रियता बढ़ रही है।
पूर्णिया के मुजीबुर रहमान कहते हैं,
“ओवैसी बैरिस्टर है, पढ़े-लिखे हैं, दुनियादारी समझते हैं। चाहे सरकार बने या न बने, वोट हम उन्हीं को देंगे।”
यही भावना किशनगंज, अररिया और कटिहार में भी सुनाई देती है। एक नौजवान मतदाता आमिर हसन कहते हैं,
“बिहार में मुसलमानों का कोई लीडर नहीं है। अब हमें अपना नेता चाहिए, और वो ओवैसी हैं।”
दरअसल, 2017 में आरजेडी के वरिष्ठ नेता और सीमांचल के प्रतीक तसलीमुद्दीन के निधन के बाद इस इलाके में नेतृत्व का बड़ा शून्य पैदा हुआ। तसलीमुद्दीन को “सीमांचल का गांधी” कहा जाता था, और उनकी गैरमौजूदगी में ओवैसी उस जगह को भरने की कोशिश कर रहे हैं।
नाराज़गी का समीकरण
नीतीश कुमार सरकार से मुस्लिम समाज की नाराज़गी नए वक़्फ़ क़ानून को लेकर है, तो तेजस्वी यादव से असंतोष इस बात पर है कि 18% आबादी के बावजूद किसी मुस्लिम नेता को उप-मुख्यमंत्री पद के लिए प्रोजेक्ट नहीं किया गया। यही असंतोष AIMIM के पक्ष में वोटों का रुझान पैदा कर सकता है।
वरिष्ठ पत्रकार फैजान अहमद का कहना है:
“सीमांचल के मुस्लिम युवा ओवैसी को आइकॉन मानते हैं। उनके भाषण, उनके तर्क और बेबाकी उन्हें आकर्षित करते हैं। सवाल यह है कि क्या यह आकर्षण मतों में तब्दील होगा?”
मतदाताओं में मतभेद
हालाँकि सीमांचल में हर मतदाता का मूड एक जैसा नहीं है।
किशनगंज के बहादुरगंज के अशरफ़ रज़ा कहते हैं,
“पिछली बार गलती हो गई थी। भावना में बहकर वोट दे दिया। इस बार सोच-समझकर वोट देंगे।”
वहीं अररिया के अरमान अंसारी मानते हैं,
“हम ओवैसी को ही वोट देंगे। कोई मुसलमानों के लिए आवाज़ नहीं उठाता। वो ही बोलते हैं। बाकी सब चुप रहते हैं।”
इन बिखरे विचारों से यह साफ है कि सीमांचल में इस बार चुनाव भावनाओं और नेतृत्व दोनों की परीक्षा है।
निष्कर्ष:-
सीमांचल का फैसला किसके नाम?
2020 में ओवैसी ने सीमांचल की सियासत में जो तूफ़ान उठाया था, उसका असर अब भी बाकी है। लेकिन इस बार विपक्ष और सत्ता दोनों सतर्क हैं। अगर AIMIM फिर से पाँच या उससे ज़्यादा सीटें जीतती है, तो यह साबित होगा कि सीमांचल में “मजलिस” अब एक अस्थायी प्रयोग नहीं, बल्कि स्थायी उपस्थिति बन चुकी है।
