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दुनिया का मीडिया, बुलडोज़र नीति और भारत का लोकतांत्रिक इमेज — एक विस्तृत विश्लेषण

23 अक्टूबर 2025 ✍🏻 Z S Razzaqi | अंतरराष्ट्रीय विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार   

हाल के वर्षों में भारत में विकास, कानून-व्यवस्था और अवैध निर्माण के नाम पर की जा रही तेजी से हुई ध्वंसकारी कार्रवाइयाँ — और खासकर उन अभियानों में बुलडोज़र का प्रतीकात्मक और वैधानिक प्रयोग — अंतरराष्ट्रीय मीडिया, मानवाधिकार संस्थाओं और कई लोकतांत्रिक मण्डलों की तीव्र आलोचना का केंद्र बन गए हैं। कई विदेशी पत्र-पत्रिकाएँ और मानवाधिकार संस्थाएँ इसे केवल शहरी नियोजन का सवाल नहीं, बल्कि नागरिकता, अल्पसंख्यक सुरक्षा और लोकतांत्रिक मूल्यों पर एक चुनौती के रूप में देखती हैं। 


अंतरराष्ट्रीय मीडिया और संस्थाओं की प्रतिक्रिया — एक रूपरेखा

अंतरराष्ट्रीय मीडिया रिपोर्टों और मानवाधिकार संगठनों ने कई पैमानों पर चिंता जताई है:

मानवाधिकार दृष्टि: बेघर करने, लक्षित समुदायों पर कार्रवाई और बिना वैकल्पिक आवास/श्‍रोत्रों के विस्थापन को चिंताजनक बताया गया। UN विशेषज्ञों ने भी “मनरेगा- जैसे क़दम” नहीं बल्कि लक्षित और अरक्षित विस्थापन पर रोक लगाने की अपील की।

लोकतांत्रिक मूल्यों पर प्रश्नचिन्ह: अनेक अंतरराष्ट्रीय टिप्पणीकारों ने कहा कि सरकारों द्वारा अवहेलना किए गए संस्थागत संतुलन — स्वतंत्र मीडिया, नागरिक समाज और न्यायपालिका पर दबाव — लोकतंत्र की नींव को कमजोर कर रहे हैं।

छवि-प्रबंधन बनाम वास्तविकता: विदेश नीति के विश्लेषक कहते हैं कि भारत की वैश्विक कूटनीति और 'सॉफ्ट पावर' पहलों के बावजूद घरेलू नीतियों की आलोचना सरकार के दावे — जैसे “वसुधैव कुटुम्बकम” — को असंगत दिखाती है। जब देश अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वैश्विक सद्भाव के संदेश देता है परन्तु घरेलू स्तर पर अलग व्यवहार दिखता है, तो यह नैरेटिव का विरोधाभास बन जाता है।

Turkey News Agency: TRT WORLD'S Headline

Erasing a people: How India’s bulldozer politics targets its Muslim poor

TRT WORLD News Translated in Hindi below  

बुलडोज़र बाबा’ और ‘बुलडोज़र मामा’ की राजनीति

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ को “बुलडोज़र बाबा” कहा जाने लगा है — अवैध निर्माणों पर कठोर कार्रवाई के प्रतीक के रूप में।
उनके नक़्शे-क़दम पर चलते हुए मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को “बुलडोज़र मामा” कहा गया।

2022 में मध्य प्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने खुलेआम कहा था —

“पत्थर फेंकने वालों के घरों को पत्थरों के ढेर में बदल देंगे।”

इस बयान ने एक ख़तरनाक संदेश दिया: कानूनी प्रक्रिया के बिना सामूहिक सज़ा।
इस नीति के तहत सिर्फ आरोपी नहीं, पूरे समुदायों को “दोषी” मानकर मिटाया जाने लगा।


लखनऊ और मथुरा की त्रासदी: जहां घरों के साथ इतिहास भी मिटा दिया गया

2024 में लखनऊ के अकबर नगर की करीब 1,800 मुस्लिम बस्तियाँ ढहा दी गईं।
सरकार ने दावा किया कि वहां “बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिए” रहते हैं,
जबकि स्थानीय लोगों ने बताया कि वे 50 साल से वहीं रह रहे थे।

2023 में मथुरा में 135 मुस्लिम परिवारों के घर तोड़े गए—यह कहते हुए कि वे “अवैध कब्ज़े” हैं।
मगर ठीक बगल में बसे हिंदू घरों को कोई नुकसान नहीं हुआ।


दिल्ली और G-20 की तैयारियाँ: “वसुधैव कुटुंबकम” का विडंबनापूर्ण चेहरा

2023 में दिल्ली में G-20 शिखर सम्मेलन की तैयारी के दौरान राजधानी में हजारों झुग्गियां उखाड़ दी गईं।
सरकार ने दुनिया को दिखाने के लिए शहर को “साफ़” किया, लेकिन इन सफाई अभियानों में हज़ारों गरीब मजदूर परिवार उजड़ गए — वही लोग जिनकी मेहनत पर दिल्ली खड़ी है।

एक अनुमान के अनुसार, 2022-23 के बीच पूरे भारत में 1,53,820 घर तोड़े गए और 7,38,000 लोग बेघर हुए।
अमनेस्‍टी इंटरनेशनल की फरवरी 2024 की रिपोर्ट में पाया गया कि मुस्लिम-बहुल इलाकों को योजनाबद्ध तरीके से चुना गया — खासकर वे स्थान जहाँ हाल ही में विरोध या दंगे हुए थे।


कानूनी प्रक्रिया का अपमान और न्याय की नज़रअंदाज़ी

भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 हर नागरिक को “जीने और आजीविका के अधिकार” की गारंटी देता है।
1985 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि “बिना उचित प्रक्रिया के झुग्गीवासियों को हटाना उनके जीवन और रोज़गार पर हमला है।”
फिर भी, हाल के वर्षों में इस सिद्धांत को खुलकर तोड़ा गया।

2024 में सुप्रीम कोर्ट ने “बुलडोज़र जस्टिस” पर सुनवाई करते हुए कहा कि

“अभियोजन की जगह संपत्ति ध्वस्त करने की नीति प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।”

इसके बावजूद राज्यों में प्रशासनिक मशीनरी ने कोर्ट के आदेशों की अनदेखी की।

राजस्थान के उदयपुर में एक मुस्लिम ऑटो रिक्शा चालक का घर सिर्फ इसलिए तोड़ दिया गया क्योंकि उसके किरायेदार के बेटे पर हिंसा का आरोप था।
कोई कानूनी नोटिस नहीं, कोई सुनवाई नहीं — बस बुलडोज़र आया और जीवनभर की कमाई मिट्टी में मिल गई।


जब गरीबी और पहचान दोनों अपराध बन जाएँ

ये कार्रवाईयाँ अब शहरी नियोजन से ज़्यादा राजनीतिक और सांप्रदायिक स्वरूप ले चुकी हैं।
यह न सिर्फ गरीबों के घर मिटाती हैं, बल्कि उनके अस्तित्व को भी “ग़ैरज़रूरी” साबित करने की कोशिश करती हैं।

मलबे में तब्दील इन बस्तियों में सिर्फ दीवारें नहीं गिरतीं —
गिरता है सामाजिक संतुलन, मानवीय गरिमा, और संविधान का वादा

जो लोग शहरों की सड़कों, घरों और बाजारों को ज़िंदा रखते हैं,
उन्हीं को “विकास” की रफ्तार में कुचल दिया जा रहा है।


विश्व में मोदी जी के खोकले सन्देश 

‘वसुधैव कुटुम्बकम’ और ‘मदर ऑफ डेमोक्रेसी’ — शब्द और उनकी व्याख्याएँ

प्रधानमंत्री और शीर्ष नेतृत्व द्वारा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दिए गए सांस्कृतिक और लोकतांत्रिक विमर्श-वाक्यांशों (जैसे “वसुधैव कुटुम्बकम”, “भारत — लोकतंत्र की जननी/माँ” आदि) का उपयोग विदेश नीति संदेश के रूप में किया जाता रहा है। लेकिन कई स्तंभकार और आलोचक सवाल उठाते हैं: क्या ये बयान घरेलू वास्तविकता से मेल खाते हैं? जब घरेलू स्तर पर धार्मिक सौहार्द, अभिव्यक्ति की आज़ादी और संस्थागत स्वायत्तता पर संदेह होता है, तो अंतरराष्ट्रीय मंचों पर दिये गए ऐसे वाक्यांशों का विरोधाभासी चित्र बन जाता है — और यही बात विदेशी टिप्पणीकारों और मीडिया द्वारा अक्सर सराई और कटाक्ष के साथ उठाई जाती है।

निष्कर्ष:-

बुलडोज़र की आहट अब सिर्फ़ मिट्टी और ईंटें गिराने की आवाज़ नहीं रही—यह हमारी संवैधानिक परिभाषा, सामाजिक संवेदनशीलता और मानवीयता पर वार करने वाली एक नितांत खतरनाक नीति बन चुकी है। जब किसी कार्रवाई का उद्देश्य न्याय या विकास नहीं रह जाता, और वह किसी एक समुदाय की उपस्थिति, यादों और आजीविका को मिटाने पर केंद्रित हो जाए, तो उसे केवल प्रशासनिक कदम नहीं कहा जा सकता — वह सुसंगठित बहिष्कार और पहचान का उन्मूलन बन जाता है।

यह निष्कर्ष कठोर है पर सत्य है: यदि राज्य की मशीनरी बिना पारदर्शिता, बिना सुनवाई और बिना विकल्पों के लोगों के घरों को ढहा देती है, तो वह न्याय का अपमान कर रही है। संविधान का अनुच्छेद 21 केवल कागज़ पर नहीं लिखा — वह उन कार्मिकों, दुकानदारों, रोज़गारियों और बच्चों के लिए जीवन का अधिकार सुनिश्चित करने वाला है, जिनकी आजीविका और जीवन-स्थापना इन बर्बर कार्रवाइयों से छीनी जा रही है। जब “कानून का राज” झुककर सामूहिक सज़ा का औजार बन जाता है, तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है।

यह सिर्फ़ व्यक्तिगत दुख या स्थानीय विस्थापन नहीं है — यह सामुदायिक विस्थापन है। सामूहिक सज़ा का अर्थ यह होता है कि पूरे मोहल्लों को दोषी ठहराकर सामाजिक समेकन का तार टूट जाता है। स्कूलों के बच्चे, कभी-कभी पीढ़ियों से बसे परिवार, नर्सिंग-माँएँ, बुज़ुर्ग—इन सबका जीवन ऐसी कार्रवाइयों के कारण प्रतिबंधित हो जाता है। जब रोज़मर्रा की नौकरियाँ, छोटे व्यवसाय और सामाजिक नेटवर्क मिटते हैं, तो पीड़ा केवल पल भर की नहीं रहती; वह दीर्घकालिक गरीबी, अशिक्षा और असुरक्षा में बदल जाती है।

हम नागरिकों के पास दो विकल्प हैं—सियासत की चुप्पी को स्वीकार करके पीड़ितों को और असहाय बनाना, या आवाज़ उठाकर, कानूनी और सामाजिक ढाँचे के भीतर संघर्ष कर के इस निष्पक्षता-विहीन रवैये को रोकना। अदालतें, मानवाधिकार संस्थाएँ, प्रेस और नागरिक समाज—इनके सम्मिलित दबाव से ही न केवल तत्काल प्रभावितों को राहत मिलेगी, बल्कि एक स्थायी नीतिगत बदलाव की राह भी बन सकती है। संवैधानिक संस्थाओं की निष्पक्षता और सक्रियता की अब ज्यादा जरूरत है।

राज्य का काम अवैध निर्माणों को ठीक तरह से, पारदर्शी प्रक्रिया और पुनर्वास के स्पष्ट विकल्पों के साथ हटाना होना चाहिए — न कि पहचान या समुदाय के आधार पर लक्षित करना। विकास का अर्थ घरों को गिराना नहीं, लोगों के जीवनस्तर में सुधार लाना होना चाहिए। अस्थायी "स्वच्छता अभियानों" और "सुरक्षा कार्रवाइयों" के नाम पर यदि सामाजिक विभाजन गहरा किया जा रहा है, तो वह विकास नहीं, सामाजिक विघटन है।

हमारी नैतिक जवाबदेही यह भी है कि हम केवल शिकायत न करें, बल्कि समाधान भी प्रस्तुत करें। सटीक और तत्काल कदमों में शामिल होने चाहिए: प्रभावितों को कानूनी सहायता, अस्थायी आवास, आजीविका समर्थन, प्राथमिक स्वास्थ्य तथा शिक्षा सेवाएँ, और पुनर्वास के स्पष्ट मानदंड—सब सार्वजनिक रूप से घोषित और लागू किए जाने चाहिए। यही सच्चा विकास है—जो सबसे कमजोर को पीछे न छोड़कर सबके लिए टिकाऊ विकल्प दे।

यदि लोकतंत्र ने अपनी आत्मा नहीं खोनी है तो अभी भी समय है—नरमी की जगह पारदर्शिता लाओ, डर की जगह न्याय दो, दमन की जगह समावेशन अपनाओ। इतिहास उन राष्ट्रों को निंदा के साथ याद रखता है जिन्होंने अपने नागरिकों को बुनियादी अधिकारों से वंचित किया; वहीं वह उन प्रवर्तकों को भी याद रखता है जिन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए आवाज़ उठाई और सफल हुए।

अंत में, संदेश स्पष्ट है: बुलडोज़र राजनीति का विरोध केवल एक साम्प्रदायिक हित का नहीं, बल्कि सम्पूर्ण लोकतंत्र और मानवाधिकारों का रक्षात्मक कर्तव्य है। अगर आज हम चुप रहें तो कल का शहर, कल का मोहल्ला, और अंततः लोकतंत्र का दर्जा भी मलबे में दब सकता है। आवाज उठाइए — कानूनी, नागरिक और मानवीय हर उपलब्ध रास्ते से — ताकि किसी की पहचान, घर और आजीविका को “विकास” के नाम पर मिटने न दिया जाए।

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